साहित्यकार डॉ. सुरेश वशिष्ठ

ओ मेरे आत्मिय, मेरे गुरुपिता !
आपके श्रीचरणों में श्रद्धावत मेरा प्रणाम।

हे गुरुपिता… मैंने कभी अपने जैविक पिता की सूरत नहीं देखी। माँ ने बताया था कि वह हवस का पुजारी था। एक बिगड़ैल रईस था। खूब रुपए-पैसे लुटाया करता था। वह जब भी कोठे पर आया करता था, माँ को भी ढ़ेर सारे रुपए देकर जाता था। माँ को कभी उससे प्रेम रहा होगा, मैं नहीं जानती। यही समझती हूँ कि वह एक ग्राहक था। चैन और सुकून के लिए कोठे पर आया-जाया करता था। वहाँ पहले वह नाच-नृत्य में झूम उठता था और फिर महफिल को रंगीन बनाने लगता था। मस्त धुनों में जब आनंद की सरिता बहने लगती थी, तब माँ को लिए वह किसी कोठरी में चला जाता और डूबने लगता। यही उसकी दिनचर्या थी। मैं उन्हीं क्षणों की पैदाइश हूँ। धन-दौलत की उसके पास कोई कमी नहीं थी। लेकिन जब मैं पेट पड़ी और माँ ने यह उसे बताया तो सुनकर वह बिफर उठा था। वह इतना नाराज हुआ कि उस दिन के बाद फिर कभी कोठे पर लौटकर नहीं आया। मेरे जैविक पिता की यही तस्वीर मेरे सामने हमेशा टंगी रही।
परन्तु मेरे आत्मिय मेरे गुरुपिता ! मैं तो सदैव तुम्हीं में अपने पिता की छवि देखती रही हूँ। मुझे आपने पहली कक्षा से दसवीं कक्षा तक पढ़ाया है। उस परिवेश में जो स्नेह आपसे मिला, किसी और टीचर्स से वैसी प्रीत नहीं मिल सकी। आपने कभी यह सोचा ही नहीं कि मेरी माँ एक तवायफ है। कोठे की रौनक है। मैं एक कुजात….एक अवैध संतान हूँ। जवानी के जोश में आए तूफान का निचौड़ हूँ। दसवीं कक्षा तक आते-आते भी आपका स्नेह वैसा ही बना रहा। मैंने आपकी आँखों में सदैव पिता-सी प्रीत और मेरे प्रति सहृदय-भाव को समझा और परखा है।

काश ! आप मेरे जैविक पिता होते ! लेकिन पिता तो हो ही न ! क्या हुआ कि कभी मेरी माँ से आपकी मुलाकात नहीं हुई। आप उसकी जवानी पर रीझे नहीं और कभी आपने रंध्र बहाव को उसकी देह में उलीचा भी नहीं ! तभी तो, आपके स्नेह से संचित यह पौध आपको अपना पिता स्वीकार करती है? आप यह सब अच्छे से जानते हैं। और उसी प्रीत में अपनी लाड़ो से लाड़ भी करते हैं। मेरी माँ भी यह जानती है और मैं भी !

मेरे आत्मिय, मेरे गुरुपिता ! अगले शुक्रवार मेरी ‘नथ उतरवाई’ है। आप इस प्रथा के बारे में नहीं जानते। मैं बतलाती हूँ…. ‘उस दिन, बोली बढ़ाकर जो मेरी नथ उतारेगा, उसके घर मैं एक वर्ष तक रहूँगी। उसकी रखैल बनकर ! और वहाँ से लौट आने के बाद कोठे की यह रौनक नृत्य-रास रचाकर जीवन को आगे बढ़ाएगी। वैश्या जीवन की शुरुआत यहीं से होती है।’

यहाँ कोठे पर इस रस्म को विवाह माना जाता है। मानती हूँ कि अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे नहीं पड़ते। मंत्रोचार की जगह रस से लबालब फूहड़ गीत की लुभावन तान होती है। लोग इसे विवाह मानें या नीलामी, होना तो यही है। उस दिन यही होना है।
उस दिन, बोली लगाने वालों के बीच मैं सजी-धजी अपने जिस्म की नुमाइश कर रही होंगी। मौजूद ग्राहक ललचाई नजरों से मेरी जवानी को घूरते दिखाई देंगे और किसी वस्तु की तरह मेरी ‘बोली’ लगाई जाएगी। जो मुझे जीतेगा, मैं उसके साथ चली जाऊँगी। पूरे एक वर्ष तक वह मुझे अपनी रखैल बनाकर कहाँ रखेगा, वही जाने। सब जानते हैं कि वह किसी ऐशगाह में मेरे जिस्म से खेला करेगा और मैं बूँद-बूँद रिसती रहूँगी। मुझ जैसी औरत को घर लेकर जाना किसी को भी मंजूर नहीं होगा।

आपसे अर्ज है कि अपनी लाड़ो की नथ उतरवायी इस प्रथा के उत्सव में जरूर-जरूर आना। और अपनी आँखों से अविरल बहते नीर में मुझे नहला देना, विदा कर देना !

आपकी लाड़ो, लक्ष्मी स्वरूपा

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