‘मीडिया वालों सच बोलो….प्लीज़’

किसान आंदोलन में एमएसपी के बाद जो शब्द सबसे ज्यादा सुनाई दे रहा वह है ‘गोदी मीडिया’

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ने अपनी विश्वसनीयता लोगों की नज़र में खो दी

खनौरी में किसान मौत: किसान देश के अन्नदाता हैं ना कि शत्रु देश के घुसपैठिए, क्यों सरकार सीधी गोलियां चलवा रही है

सरकार की किसानों को खुश करने के लिए गन्ना कीमतों में बढ़ोतरी

चुनावी मौसम में किसी भी कीमत पर सरकार किसान को नाराज नहीं करेगी

अशोक कुमार कौशिक 

खनौरी बॉर्डर पर युवा किसान की मौत को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है।जिसको लेकर बीजेपी सरकार पर सवाल खड़े किए जा रहे है। इसी कड़ी में श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह की भी प्रतिक्रिया सामने आई है। उन्होंने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स पर पोस्ट कर लिखा कि खनौरी बॉर्डर पर किसानों पर पुलिस द्वारा की गई सीधी फायरिंग में एक पंजाबी युवक की मौत और कई अन्य के गंभीर रूप से घायल होने की घटना अत्यंत दुखद है।

जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह ने आगे कहा कि ये किसान देश के अन्नदाता हैं ना कि शत्रु देश से आये घुसपैठिए, जिन पर सरकार सीधी गोलियां चलवा रही है, उनके सीने और सिर को छलनी कर रही है। उन्हें दिल्ली जाने और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के तहत विरोध करने से रोकने के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई रणनीति जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के साथ किए जुल्म से कम नहीं है।

इस वाक्या को सोशल मीडिया, यूट्यूब पर तत्वों के साथ दिखा रहे हैं वहीं गोदी मीडिया सरकारी दृष्टिकोण के साथ। इसी से अंदाजा लग सकता है की मीडिया के प्रति किसने में अविश्वास क्यों बढ़ रहा है।

एक वाक्या पहले किसान आंदोलन का है।  सिंघु बॉर्डर पर एक अंतर्राष्ट्रीय चैनल किसान आंदोलनकारी से बात कर ही रहे थे कि एक पोस्टर लिए एक व्यक्ति फ्रेम में घुस आया।

इस पोस्टर पर लिखा था, ‘मीडिया वालों सच बोलो….प्लीज़!’

किसान आंदोलन के दौरान एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाद सबसे अधिक यदि कोई शब्द सुनाई देता है तो वो है ‘गोदी मीडिया’।

ये वाक्यांश मीडिया के उस हिस्से के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो प्रदर्शनकारियों की नज़र में सरकार का पक्ष रख रहा है और किसानों के आंदोलन के बारे में आधारहीन नकारात्मक ख़बरें प्रसारित कर रहा है।

कैमरामैन और हाथ में माइक लिए रिपोर्टरों को देखते ही गोदी मीडिया गो बैक के नारे लगने लगते हैं। कुछ ऐसा ही दूसरे चरण के आंदोलन में शंभू, खनौरी व अन्य पंजाब हरियाणा बॉर्डर पर अब लोग पत्रकारों से बात करने से पहले ये देखते हैं कि उनके हाथ में माइक पर किस चैनल का लोगो है।

एक्स का कहना- सरकार ने किसानों से जुड़े 177 खातों को ब्लॉक करने के लिए दबाव 

उधर सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ ने किसानों के विरोध प्रदर्शन से जुड़े खाते और पोस्ट ‘ब्लॉक’ करने के भारत सरकार के आदेश से बृहस्पतिवार को असहमति जतायी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आह्वान किया। सूत्रों ने बताया कि इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने गृह मंत्रालय के अनुरोध पर किसानों के विरोध प्रदर्शन से जुड़े 177 सोशल मीडिया खातों और वेब लिंक को अस्थायी रूप से ‘ब्लॉक’ करने का आदेश दिया है। 

‘एक्स’ ने एक पोस्ट में कहा, ”भारत सरकार ने शासकीय आदेश जारी किए हैं जिसके तहत एक्स को विशिष्ट खातों और पोस्ट्स पर कार्रवाई करने की आवश्यकता है जो अच्छे-खासे जुर्माने और कारावास सहित संभावित दंड के अधीन हैं। आदेश का अनुपालन करते हुए हम केवल भारत में ही इन खातों और पोस्ट्स पर रोक लगाएंगे, हांलांकि, हम इन कार्रवाइयों से असहमत हैं और हमारा मानना है कि ये पोस्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आनी चाहिए।”

सोशल मीडिया मंच ने कहा कि भारत सरकार के आदेश को चुनौती देने वाली एक रिट अपील अभी लंबित है। साथ ही उसने पारदर्शिता बढ़ाने के लिए इस आदेश को सार्वजनिक करने का आह्वान किया। एक्स ने कहा, ”कानूनी बाध्यताओं के कारण हम शासकीय आदेश प्रकाशित नहीं कर सकते, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें सार्वजनिक करना पारदर्शिता के लिए आवश्यक है।

मीडिया के प्रति नाराज़गी नई नहीं

ये पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फ़ैसलों के विरोध में खड़े हुए किसी आंदोलन के दौरान मीडिया के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही है।

लेकिन दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है उसमें मीडिया के प्रति दिख रहा ग़ुस्सा असाधारण है।

मुख्यधारा की मीडिया के कई चैनलों के पत्रकारों को लोग खुलकर हूट कर रहे हैं। पोस्टरों और बैनरों से उनका विरोध किया जा रहा है।

मीडिया, जो अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है, कहीं ना कहीं उसने अपनी विश्वसनीयता लोगों की नज़र में खो दी है।

मुख्यधारा की मीडिया के प्रति कम हुए विश्वास ने पत्रकारिता के लिए जो जगह ख़ाली की है उसे छोटे-छोटे चैनलों और सोशल मीडिया चैनलों के पत्रकार भर रहे हैं। आंदोलन स्थलों पर ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो स्वतंत्र रूप से अपने यूट्यूब चैनल चला रहे हैं और किसान आंदोलन से जुड़ी ख़बरें पोस्ट कर रहे हैं।

पंजाब यूथ क्लब आर्गेनाइज़ेशन से जुड़े जोगिंदर जोगी कहते हैं, ‘सोशल मीडिया और लोकल चैनलों ने ही इस आंदोलन को ज़िंदा किया है वरना ये अब तक मर गया होता। नेशनल मीडिया ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी है।’

जोगी कहते हैं, ‘मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। मीडिया की ज़िम्मेदारी समाज के साथ हो रहे अन्याय को सामने लाना है। लेकिन यहां ऐसा लग रहा है कि मीडिया बिक चुकी है। मीडिया लोगों की बात रखने के बजाए सरकार का पक्ष ही दिखा रही है।’

‘बहुत से चैनल आंदोलन को पाकिस्तान और ख़ालिस्तान से जोड़कर दिखा रहे हैं। इसकी वजह से लोगों में मीडिया के लिए ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा है।’

प्रदर्शन में शामिल एक युवा कहता है, ‘मीडिया सरकार की वाहवाही लूटने के लिए किसानों को एंटी नेशनल साबित करने पर जुटी है. पत्रकार ये दिखाने का मौक़ा ढूंढ रहे हैं कि देश विरोधी और एंटी नेशनल तत्व आंदोलन में शामिल हैं।’

राष्ट्रीय मीडिया में नहीं मिली खास तवज्जो

पिछली बार बीते दो महीनों से किसानों का ये आंदोलन पंजाब में चल रहा था। इस दौरान किसानों ने कई प्रदर्शन किए, रैलियां की और रेल भी रोकी लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में उन्हें कोई ख़ास जगह नहीं मिल सकी। यही स्थिति आंदोलन के दूसरे चरण में भी देखने को मिल रही है। आंदोलन को 9 दिन होने को आए लेकिन राष्ट्रीय चैनल सरकार को खुश करने और किसानों को बदनाम करने में लगे हैं।

किसान आंदोलन में शामिल लोगों में इस बात का भी ग़ुस्सा है कि राष्ट्रीय मीडिया ने इस आंदोलन को तब तक नज़रअंदाज़ किया जाएगा जब तक कि किसान दिल्ली की सीमा तक नहीं पहुँच जाए।

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम का कहना है कि आज मीडिया ऐसी चीज़ों को कवर करने से बच रहा है जिनसे सरकार के असहज या नाराज़ होने का अंदेशा हो।

अंजुम कहते हैं, ‘मीडिया अब ऐसे एंगल तलाश रहा है जो सरकार के एजेंडे को ही आगे बढ़ाए। किसानों का यही आंदोलन अगर 2014 के पहले हो रहा होता तो दर्जनों चैनलों के पचासों रिपोर्टर यहां खड़े होकर देश को ये बता रहे होते कि किसानों की मांगे कितनी जायज़ हैं।’

पिछ्ले आन्दोलन में भी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि कृषि क़ानून किसानों के हितों में हैं और उन्हें फ़ायदा पहुंचाने के मक़सद से लाए गए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार ये भी कहा है कि अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं और किसानों को बरगलाया जा रहा है।

अजीत अंजुम कहते हैं, ‘आज सत्ता में मोदी हैं, ऐसे में मीडिया आंदोलन को उसी रूप में दिखाने की कोशिश कर रहा है जो सत्ता को सूट करता है। इसलिए ही विदेशी फ़ंडिंग और ख़ालिस्तान के एंगल जोड़े जा रहे हैं। ये दुर्भाग्यपूर्ण है।’

मीडिया की भूमिका आंदोलन में शामिल किसानों की मांगों को समझकर उसे सरकार और देश तक पहुंचाने की है। लेकिन आंदोलन में शामिल लोगों को लगता है कि मीडिया ये काम करने के बजाए किसी भी तरह से आंदोलन की कोई कमी खोज लेना चाहती है।

प्रदर्शन में शामिल बॉबी नाम का एक युवा कहता है, ‘यहां हज़ारों किसान बैठे हैं, बुजुर्ग बैठे हैं। मीडिया के कैमरे इन लोगों की बात सुनने के बजाए उन दो-चार लोगों को खोजते रहते हैं जो किसी तरह की हुल्लड़बाज़ी कर रहे हैं। हम जो बोले सो निहाल का नारा लगाते हैं तो हमें ख़ालिस्तानी बताकर दिखाते हैं।’

सोशल मीडिया और लोकल चैनलों पर अधिक विश्वास

आंदोलन में शामिल लोग सोशल मीडिया और छोटे स्थानीय मीडिया चैनलों पर अधिक विश्वास कर रहे हैं। शंभू व खनौरी बॉर्डर पर कवरेज कर रहे है अजीत अंजुम सोशल मीडिया चैनल के ख्याति पत्रकार को लोगों ने घेर रखा है।

वो अपने मोबाइल फ़ोन व कैमरा से वीडियो रिकॉर्ड कर रहे हैं। इसी से वो लाइव भी करते हैं। वह कहते हैं, ‘हम लगातार यहां से वीडियो पोस्ट कर रहे हैं। हमारे कई वीडियो को लाखों लोगों ने देखा है। हमारा यूट्यूब चैनल है लेकिन आंदोलन के कवरेज को ज़बरदस्त रेस्पांस मिल रहा है।’

एक अन्य यूट्यूबर कहते हैं, ‘लोगों में बड़े चैनलों के प्रति ग़ुस्सा है। यूट्यूबर या सोशल मीडिया चैनलों का स्वागत किया जा रहा है। छोटे चैनल ही आंदोलन को दिखा रहे हैं। हम सीधी तस्वीरें दिखाते हैं, कोई एजेंडा नहीं चलाते इसलिए कोई हमारा विरोध नहीं करता। लोग भी उसे ही पसंद करते हैं तो सच्चाई के साथ कवरेज करता है।’

राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में पब्लिक पिलर नाम से वेब चैनल चलाने वाले मंदरूप सिंह भी किसान आंदोलन को कवर करने पहुंचे हैं। मंदरूप कहते हैं, ‘यहां लोगों में नेशनल मीडिया के प्रति बहुत ग़ुस्सा है। माइक देखकर लोग ग़ुस्सा हो जाते हैं, उन्हें बताना पड़ता है कि हम मीडिया से नहीं, सोशल मीडिया से हैं, तब वो बात करते हैं।’

अंबाला से आए विनर सिंह सिख चैनल के लिए रिपोर्टिंग कर रहे हैं। विनर सिंह भी मानते हैं कि आम लोगों में मेनस्ट्रीम मीडिया के प्रति ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा है।

वो कहते हैं, ‘पहली बार एक बड़ा मोर्चा दिख रहा है जिसमें लोग मीडिया पर निर्भर होना नहीं चाहते। आंदोलन में शामिल लोग मीडिया से नफ़रत कर रहे हैं।’

विनर कहते हैं, ‘पहले लोग अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए मीडिया के सामने आते थे। लेकिन हम देख रहे हैं कई बड़े चैनलों के रिपोर्टरों को भगाया जा रहा है, उन्हें प्रदर्शन स्थल से बाहर निकाला जा रहा है। लोगों में मीडिया के लिए ऐसा ग़ुस्सा पहले नहीं देखा है।’

विनर कहते हैं, ‘इसकी वजह ये भी है कि आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें भी की जा रही है और इससे लोगों का मीडिया के प्रति भरोसा टूट गया है। लोग यहां चैनल की माइक आईडी देखकर बात कर रहे हैं। ये पत्रकारिता पर गंभीर सवाल है।’

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम कहते हैं कि ये एक दुर्भाग्यपूर्ण दौर है जिसमें पत्रकारों और पार्टियों के प्रवक्ताओं के बीच फ़र्क़ करना मुश्किल हो रहा है।

हालांकि उन्हें ये लगता है कि सोशल मीडिया एक विकल्प के तौर पर खड़ा हो रहा है। अंजुम कहते हैं, ‘सोशल मीडिया ने बहुत सी उन आवाज़ों को उठाया है जिन्हें सरकार दबाना या कुचलना चाहती है। लोगों ने अपने पास मौजूद संसाधनों के ज़रिए अपनी आवाज़ को उठाया है।’

अंजुम कहते हैं, ‘अगर सोशल मीडिया के नज़रिए से देखा जाए तो ये शानदार मौक़ा है अपनी पहचान बनाने का। सोशल मीडिया उस दबाव से बाहर है जो कार्पोरेट मीडिया पर होता है और इसलिए ही सोशल मीडिया चैनल अधिक आज़ादी से काम कर पा रहे हैं।’

सैयद अकरम ने बड़े चैनल में नौकरी छोड़कर एक साल पहले अपना यूट्यूब चैनल ‘द नेशन’ शुरू किया था। उनके पास अब सात लाख के क़रीब सब्सक्राइबर हैं। वो लगातार प्रदर्शनस्थलों से कवरेज कर रहे हैं।

सैयद अकरम कहते हैं, ‘मीडिया ने जो जगह ख़ाली छोड़ दी है उसे सोशल मीडिया और वेब मीडिया भर रहा है। हमने सोचा नहीं था कि आंदोलन की कवरेज को इतना ज़बरदस्त रेस्पांस मिलेगा। लोग अब बिना लाग लपेट के सीधे ज़मीन से जुड़ी आवाज़ें सुनना पसंद कर रहे हैं. हम ठीक यही काम कर रहे हैं।’

मीडिया के प्रति टूट रहे भरोसे को ग्राउंड में काम करने वाले पत्रकार भी समझ रहे हैं और जनता भी। शायद यही वजह है कि पहले जिस माइक को देखकर लोग अपनी बात रखने के लिए दौड़े आते थे वो अब उन माइकों को थामे पत्रकारों को ही दौड़ा रहे हैं।

पिछले आंदोलन से भी सरकार ने सबक नहीं लिया। दूसरे चरण के आंदोलन पर हरियाणा और पंजाब सरकार आमने-सामने। हरियाणा पुलिस पंजाब की सीमा में जाकर किसानों पर जबरदस्ती कर रही है। राष्ट्रीय चैनल इस बात को नहीं दिख रहे।

वैसे किसानों को खुश करने के लिए आज प्रधानमंत्री ने एक बड़ा फैसला किया है। उस बड़े फैसले के तहत सरकार ने गन्ना भुगतान की कीमतों में आठ फीसदी तक की बढ़ोतरी कर दी है। इसके अलावा भी कुछ बड़े ऐलान किए हैं। अब एक तरफ ये ऐलान हुए हैं तो दूसरी तरफ किसानों ने अपने दिल्ली कूच वाले प्लान को दो दिन आगे बढ़ा दिया है।

अब एक नजर से देखें तो सरकार के लिए ये एक बड़ा अवसर बन सकता है। अगर किसान ने दिल्ली कूच दो दिन नहीं किया तो इतना ही समय अब केंद्र को फिर मनाने के लिए मिल जाएगा। जमीन पर तनाव बढ़ने की स्थिति कम रहेगी, ऐसे में सारा फोकस सिर्फ किसानों से बातचीत में लगाया जा सकता है। इसी वजह से कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने भी पांचवे दौर की बातचीत के लिए अपनी सहमति दे दी है। अब किसान उस बातचीत में शामिल होते हैं या नहीं, ये अभी साफ नहीं।

वैसे सरकार के लिए ये दो दिन का समय काफी अहम रहने वाला है। अभी तक तो सबकुछ इतनी तेजी से बदल रहा था कि सरकार को संभलने का एक बार भी मौका नहीं मिला। लेकिन अब जब किसान अपनी रणनीति बनाने वाले हैं, तब सरकार भी आगे की रणनीति पर काम कर सकती है। ये बात भी समझने वाली है कि पिछली बार जब किसान आंदोलन चल रहा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद माना था कि तपस्या में कुछ कमी रह गई होगी। ऐसे में अब उस तपस्या की कमी को पूरा करने पर जोर दिया जा रहा है।

चुनावी मौसम में किसी भी कीमत पर सरकार किसान को नाराज नहीं देखना चाहती। ऐसे में उसी किसान को खुश करने के लिए लगातार तपस्या की जा रही है। इसी कड़ी में सरकार ने बुधवार रात को बड़ा फैसला लेते हुए गन्ना खरीद की कीमत बढ़ाने का फैसला लिया। 

उस फैसले के बारे में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि चीनी मिलों द्वारा किसानों को गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिए आगामी गन्ना सीजन के लिए 1 अक्टूबर 2024 से 30 सितंबर 2025 की अवधि में मूल्य निर्धारित करने का निर्णय लिया गया है… वर्ष 2024-25 के लिए मूल्य 340 रुपये प्रति क्विंटल तय करने का निर्णय लिया गया है, जो पिछले वर्ष 315 रुपये था, जो इस वर्ष बढ़कर 340 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है।

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