मेरी दृष्टि में राम सृष्टि भर के जनक, पालक और ज़रूरत पड़ने पर संहांरक भी हैं। त्रिलोक कौशिक

हम सब स्वतंत्र हैं इस राम- रसायन को जैसे उचित समझें धारण करें।इतना ध्यान रहे राम और राम का नाम शोर या राजनीति की भेंट नहीं चढ़ना चाहिए

त्रिलोक कौशिक

अभी कुछ देर पहले एक सुधि पत्रकार का प्रश्न मुझ तक आया, ‘ बताइए राम, आपकी दृष्टि में क्या हैं, कैसे हैं? प्रश्न सुनने में जितना सरल था उत्तर देने में उतना ही कठिन लगा।

कारण था अब जब राम को लेकर चारों तरफ़ एक उत्साह का माहौल है ऐसे में मैं निराश – निराश बातें कैसे करूँ!

बात ऐसी है कि मैं तुलसी और कबीर के बीच कहीं झूल रहा हूँ। वे मेरे लिए मूर्तिमान भी हैं, और अमूर्त भी।

उनकी आराधना का अभिनय कर , राम की राजनीति में जो समाज डूबा है, या डुबाया जा रहा है मेरे राम उसे लेकर बहुत आशान्वित या आशवश्त तो नहीं ही होंगे।

मुंह में राम बगल में छुरी ‘ यह कहावत सदियों से भारत में चरितार्थ रही है।

मेरी दृष्टि में राम सृष्टि भर के जनक, पालक और ज़रूरत पड़ने पर संहांरक भी हैं।

जहाँ – जहाँ रावणत्व की धूम मची है वहाँ- वहाँ राम मनुष्यता की प्रतिष्ठा के प्रतीक है। वे जनकसुता के प्रिय हैं, और जैसा लोक में प्रचलित है, वे अग्निपरीक्षा के बाद सीता माता की संपूर्ण शुचिता के बावजू़द उनको वन भेजने के दोष की गिरफ़्त में भी हैं।

राम को रामायण में कवि बाल्मीकि ने रचा, रामचरितमानस में तुलसी ने रचा और राम की जलसमाधि में कवि भारत भूषण ने रचा। सबके राम उनकी श्रद्धा व समझ के दायरे में पल्लवित हुए।किसी ने उनकी विरह वेदना के चरम का परम सौंदर्य सृजित किया तो किसी ने उनके मर्यादित स्वरूप के रेखांकन में अपनी ऊर्जा का विकसन किया। समाज का, उसकी समझ का, उसके संस्कार का हिस्सा बने राम, जन के भीतर पूर्णतः रमे हुए प्रतीत होते हैं। राम का नाम जिस जिह्वा से, जब समय उच्चरित होता है, उस समय बालक के भीतर स्वत: स्फूर्त आलोक की सृष्टि होती है। ईश्वर ( नाम कोई भी ले लीजिए)प्रकाश है और प्रकाश का ही सृष्टा है। आप सोचिए बिना प्रकाश के नितांत अंधकार में कोई कितनी देर रह सकता है। मेरे गांव में शिवालय है, हनुमान जी का मंदिर है। अलग से राम जी का या सीता- राम का कोई मंदिर नहीं है तो भी बहुतायत में लोग ‘ जेहि विधि राखे राम उसी के जिला जी रहे हैं।

ज़रूरी नहीं कि कोई बहुत पढ़ा- लिखा आदमी ही राम पर बात करे तभी राम -रसायन जन – जन तक पहुंचेगा।

राम जीवन के निकट तब और अधिक थे जब राम के नाम की इस तरह सियासत नहीं हो रही थी। अच्छा यह है कि राम, राम ही हैं। किसी के बनाने – बिगाड़ने से उनका कुछ न बिगड़ेगा।

अच्छा हो वे अपने लोकपाल जीवन – पोषक, आनंदस्वरूप में जगत में, हर जीव में एक आस्था के रूप में विद्यमान रहें।
यही कल्याणकारी भी होगा, और सुंदर भी

तुलसी ने कहा भी है-
प्रीति राम सौं नीति पथ चली राग – रस रीति।
तुलसी संतन के मतै इहि भगति की रीति।

न मन राग से मुक्त हैं, न रस से। हमारे पास बस शब्दों की जुगाली करने के लिए राम-नाम है।

पाथर पूजे हरि मिलैं तो मैं पूजूं पहार ‘

कहने वाले कबीर की अनदेखी नहीं की जा सकती! मेरे लिए राम तभी राम हैं जब उनके सानिध्य में सीता मां विराजमान हैं।

जाके प्रिय न राम – वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।

इस चक्कर में कितने स्नेही दूर के बना लिए। हनुमान ने सीता- राम को हृदय में बसाया। , हम सब स्वतंत्र हैं इस राम- रसायन को जैसे उचित समझें धारण करें।इतना ध्यान रहे राम और राम का नाम शोर या राजनीति की भेंट नहीं चढ़ना चाहिए।

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