बात 11 जनवरी 1966 की……….यादें लालबहादुर शास्त्री जी की…

अजीत सिंह   

लालबहादुर शास्त्री लोकप्रिय प्रधान मंत्री थे। 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में विजय से उनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गई थी। उनके सादा जीवन और ईमानदारी के अनेकों किस्से सुनने में आते थे।  

ताशकंद में 1966 के समझौते के बाद वहीं रहस्यमयी परिस्थितियों में जब उनका स्वर्ग वास हुआ तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। शोक की लहर फैल गई।  

11 जनवरी को उनका शव जब भारत लाया जा रहा था तो उन्हें कंधा देने वालों में रूस के प्रधान मंत्री कोसीगिन और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान भी शामिल थे।   

मैं उस समय कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में तृतीय वर्ष का विद्यार्थी था। हम सभी बहुत उदास थे। रेडियो पर खबरें सुन रहे थे और हैरान थे कि ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद यह सब कैसे हो गया?   

बस यूं ही किसी ने खबर फैला दी कि शास्त्री जी के अंतिम दर्शन के लिए सरकार ने मुफ्त रेलगाड़ियां  चला दी हैं। बस हम सभी दिल्ली जाने के लिए तैयार हो गए।   

अपने ग्रुप में हम 15 के करीब विद्यार्थी थे और ऐसे कितने ही ग्रुप थे। रेलगाड़ी ठसाठस भरी थी।   

जनवरी की कड़ाके की ठंड में हम शाम आठ बजे के करीब दिल्ली पहुंचे। जहां शास्त्री जी का शरीर अंतिम दर्शन के लिए रखा हुआ था , वहां पहुंचे तो देखा कि तीन चार किलोमीटर लंबी लाइन लगी हुई थी। पुलिस वाले किसी को लाइन से बाहर जाने ही नहीं दे रहे थे। सड़क के किनारे पर पाइप लगाकर छोटा रास्ता बनाया गया था।   

हम भी लाइन में लग गए पर घंटे भर बाद भी लाइन सरक ही नहीं रही थी। भूख भी लग रही थी और ठंड भी कमाल थी।   

हम लाइन से बाहर आ गए कुछ खाने पीने के लिए। एक रेहड़ी पर चाय, मट्ठी, बिस्किट वगैरा खाकर कुछ गुज़ारा किया और वहीं अंगीठी तापने लगे। सर्दी बढ़ती ही जा रही थी और अंतिम दर्शन करने वालों की लाइन और लंबी हो गई थी। हम पहले की अपनी जगह भी छोड़ चुके थे।   

यह लाइन तो कल सुबह तक भी खत्म नहीं होगी। रात भर खड़े खड़े और थक जाएंगे। इससे अच्छा है, यहीं कहीं उठते बैठते अंगीठी तापते रहें, दर्शन सुबह कर लेंगे, एक मित्र ने सुझाव दिया और सबने हामी भर दी।  

हम यह बात कर ही रहे थे कि एक व्यक्ति जो पास में ही बैठा अंगीठी ताप रहा था, टपक से बोला, “हम आपको दर्शन करा सकते हैं बाबूजी। पांच रुपए एक के हिसाब से लगेंगे”।   

“अबे अंतिम दर्शन पर भी टिकट लगता है क्या?   

हैरान व थोड़े गुस्से के साथ  हमने उससे पूछा।   

“देखलो बाबूजी, चलना है तो बात करो”, उसने उत्तर दिया। वह कोई मजदूर लग रहा था। उसके हाथ में कोई औेजार भी था।

    “ना, तू कोई पुलिस का आदमी है, या कौन है जो लाइन के बाहर से दर्शन करा देगा”?  

“आपको इससे क्या मतलब?

दर्शन करा दूंगा पर पैसे पहले लूंगा। यकीन नहीं हो, तो इस चाय वाले से पूछ लो”।   

“अजी, यह 200 रूप से ज़्यादा की दिहाड़ी बना चुका है अब तक”, हमारे पूछने से पहले ही चाय वाला बोल उठा।  

“पर कैसे?  हमने पूछा।  

मजदूर दिखने वाला व्यक्ति बोला,”यह जो पाइप देखते हो ना, लाइन को सही रखने लिए जो लगाई गई है। यह हमने लगाई है और हम ही इसकी देखभाल व मरम्मत वगैरा कर रहे हैं। चलना है तो निकालो पांच रुपए, हाथ में पकड़ो यह रैंच और चलो हमारे साथ एक एक आदमी, मजदूर बनके”, बंदे ने फुर्ती दिखाते हुए कहा।  

हमारे एक साथी को गुस्सा आया और उसने उसकी बाजू पकड़ कर मरोड़ दी। गाली देते हुए बोला,” पांच रुपए और वो भी मरे हुए आदमी के अंतिम दर्शन को, बड़ा कमीना बन्दा है बे तू”।  

बात झगड़े में बढ़ने लगी थी । उसके और भी कुछ साथी आ गए और हमारे साथी भी गर्म हो रहे थे। बड़ी मुश्किल से बीच बचाव हुआ।  

वह चाय वाला भी उसी की मदद को आ गया। “जेब में पैसे नहीं, आ गए दिल्ली की सैर करने। वो देखो, तुम्हारे जैसा एक बाबू बैठा है रजाई में। सर्दी से कुड़क रहा था। मैंने दी है एक घंटे के लिए पांच रुपए में”।  

दिल्ली के इस बाज़ार की हमने कल्पना नहीं की थी। हम लाइन में नहीं लगे। बस यूं ही टहलने के लिए आस पास निकल गए। दूसरी जगह जाकर चाय पी, अंगीठी सेकते हुए। सुबह करीबन चार बजे लौटे तो देखा कि लाइन समाप्त हो चुकी थी।

पुलिस वाले जल्दी जल्दी कह रहे थे। हम दौड़ते हुए गए। शास्त्री जी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किए हाथ जोड़ कर। शास्त्री जी की धर्मपत्नी ललिता शास्त्री जी व उनके परिजन हाथ जोड़े गम्भीर मुद्रा में बैठे थे। एक क्षण के लिए हमारी आंखें भी नम हो गईं।

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