तीसरी बार कुर्सी पर काबिज होने के लिए हर हथकंडे का इस्तेमाल
 हरियाणा में भाजपा जजपा गठबंधन नहीं टूटेगा?, पंजाब में अकाली दल को लेगें साथ
महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों के बावजूद छोटे दल निश्चित संजीवनी साबित हो सकते हैं

अशोक कुमार कौशिक

लोकसभा चुनाव में अब एक साल से कम समय बचा है. सत्तारूढ़ भाजपा चारों ओर चुनौतियों से घिरी हुई है. दो बार लगातार चुनाव में झंडे गाड़ने वाली भाजपा अब नई नीति बनाने को विवश होती जा रही है। कभी सहयोगी दलों पर मनमानी करने वाली पार्टी को अब उन्हीं की बैशाखियों की जरूरत पड़ती दिखाई दे रही है। कई बड़े क्षेत्रीय दल अब एनडीए का हिस्सा नहीं हैं. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी अब छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों पर फोकस कर रही है. उसे लगने लगा है कि अब ये दल बड़े सहारा बन सकते हैं. पार्टी का पूरा फोकस अब एनडीए के विस्तार पर है, ताकि चुनाव में मनचाही सफलता अर्जित की जा सके.

पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अकेले 303 सीटें मिली थीं. उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में ज्यादातर सीटें एनडीए गठबंधन ने जीती थीं. भाजपा को दो चिंता सता रही है. एक-कई महत्वपूर्ण सहयोगी अब उसके साथ नहीं हैं. दो-जहां अकेले भारी जीत मिली, वहां जरूरी नहीं कि जीत दोबारा भी मिले. कुछ गड़बड़ी भी होने की आशंका सता रही है. कारण यह है कि कई राज्यों में सौ फीसदी तो कई में 80-90 फीसद सीटें मिल गयी थीं.

जरूरी नहीं कि वही परिणाम आए

इस बार वही परिणाम आयें, यह जरूरी नहीं है. बस यही भाजपा को यही भय है और यही चुनौती. कर्नाटक चुनाव के परिणाम ने इस चिंता, भय, चुनौती को और बढ़ा दिया है. वहां पार्टी का हर दांव उल्टा पड़ा है. हालाँकि, पार्टी को मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान से बड़ी उम्मीदें हैं लेकिन यहां अगर कोई चूक हुई तो अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. ऐसे में पार्टी एनडीए कुनबे को बढ़ाने की कोशिशों में जुटी हुई है. उसे छोटे दलों को जोड़ने में कितनी कामयाबी मिलती है और ये दल सीटों को जीतने में कितने मददगार होते हैं, यह परिणाम के बाद ही पता चलेगा. लेकिन भाजपा शीर्ष नेतृत्व सतर्क हो गया है.

सहयोगी रहे कई दल इस बार विरोधी

साल 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार में जनता दल यूनाइटेड, पंजाब ने शिरोमणि अकाली दल, महाराष्ट्र में शिवसेना साथ थीं. इसलिए बिहार और महाराष्ट्र में भाजपा और सहयोगी दलों ने शानदार जीत दर्ज की थी. अब जनता दल यूनाइटेड कांग्रेस-राजद समेत अन्य दलों के महागठबंधन का हिस्सा है. ऐसे में बिहार में सीटों को बरकरार रखने और उसे बढ़ाने की चुनौती है. यहां भाजपा कुशवाहा, चिराग पासवान जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन चाहती है. बिहार में ये छोटी किन्तु महत्वपूर्ण पार्टियां हैं. क्योंकि ये सब जाति की राजनीति करते हैं. इनका अपना प्रभाव है. ये अकेले सीटें एक बार जिता भले न सकें लेकिन हराने में हरदम सक्षम दिखते हैं. ऐसे में भाजपा इन्हें गले लगाने में परहेज नहीं करने वाली है.

राज्यों का ये है गणित 

शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. महाराष्ट्र में शिवसेना साथ में है लेकिन उद्धव ठाकरे और उनके समर्थक नहीं हैं. शिंदे वालों शिवसेना है. अब देखना होगा कि महाराष्ट्र में चुनाव के मौके पर उद्धव वाली शिव सेना का क्या असर होगा? क्योंकि महाराष्ट्र में अभी भी गांव-गांव तक एक तरह का माहौल भाजपा के खिलाफ बना हुआ है. बाल साहब ठाकरे के चाहने वाले शिंदे से ज्यादा भाजपा से गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि भाजपा ने ही उद्धव ठाकरे को सीएम की कुर्सी से उतारा है. किसी को नहीं पता कि इसका क्या प्रभाव लोकसभा चुनाव में पड़ेगा.

हरियाणा राज्य सरकार में शामिल जननायक जनता पार्टी के साथ भाजपा लोकसभा चुनाव में प्री-एलायन्स करना चाहती है. विधान सभा चुनाव के बाद इस पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला ने भाजपा को समर्थन देकर सरकार बनवाई थी. हालांकि आजकल दोनों दलों के बीच में कुछ तल्खी चल रही है। सारी तल्खी उचाना सीट को लेकर है। दोनों पार्टियों के नेता भले ही एक दूसरे के खिलाफ बयान दे रहे हो पर राजनीतिक हालात को देखते हुए गठबंधन को भाजपा तोड़ेगी इस पर संशय है।

उत्तर प्रदेश में अपना दल और निषाद पार्टी भाजपा के साथ सहज हैं लेकिन भाजपा चाहती है कि ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा को अपने साथ ले लें. पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10-12 सीटों पर राजभर वोटों का प्रभाव देखा जाता है. जो संकेत मिल रहे हैं, उसके मुताबिक राजभर भाजपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं.

विधान सभा में वे समाजवादी पार्टी के साथ लड़े थे. बाद में रिश्ते में खटास आ गयी. इस बीच वे लगातार डिप्टी सीएम बृजेश पाठक के साथ देखे जा रहे हैं. विधान परिषद उप चुनाव में उनके विधायकों ने भाजपा कैंडीडेट्स को अपना समर्थन दिया था, ऐसा माना गया. राजनीति में संकेत मायने रखते हैं. 29 मई को मतदान के बाद राजभर डिप्टी सीएम के साथ विक्ट्री निशान बनाते हुए दिखे थे.

नॉर्थ-ईस्ट में एक-एक, दो-दो एमपी वाले राज्यों में भी भाजपा छोटे-छोटे दलों के संपर्क में है. विधान सभा में अनेक गठबंधन बने थे, उन्हें कायम रखने की पार्टी की पूरी कोशिश है.

दक्षिण भारतीय राज्य चुनौती

लोकसभा में 130 सदस्य देने वाले दक्षिण भारतीय राज्य अभी भी भाजपा के लिए चुनौती हैं. आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ दल वाईएसआर कांग्रेस बहुत मजबूत स्थिति में है. वहां भाजपा अपने पुराने सहयोगी तेलगू देशम पार्टी के साथ जाना चाहेगी. हाल ही में टीडीपी चीफ गृह मंत्री अमित शाह से दिल्ली में मिले भी थे. उनकी स्थिति विधान सभा या लोकसभा में इस समय बहुत अच्छी नहीं है. सहारे की जरूरत उन्हें भी है. तेलंगाना से अभी चार एमपी भाजपा से हैं लेकिन के चंद्रशेखर राव जिस तरह से उभर रहे हैं और आक्रामक हैं, वे किसी भी सूरत में भाजपा को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं.

तमिलनाडु, केरल में भाजपा सन्नाटे में है. तमिलनाडु में प्रमुख सहयोगी एआईडीएमके से रिश्ते में खटास आई है. यद्यपि, वह एनडीए का हिस्सा है, पर आगे क्या रुख होगा, कहना मुश्किल है. कर्नाटक में भाजपा के 25 एमपी अभी हैं. अब वहां कांग्रेस की सरकार है. माना जा रहा है कि यहां भाजपा को नुकसान होगा. दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के शिक्षक डॉ अभिषेक प्रताप सिंह कहते हैं कि मौजूदा सीन में भाजपा के सामने 2019 दोहराने की तगड़ी चुनौती है.

केंद्र सरकार के ढेरों अच्छे काम कर्नाटक चुनाव में दब गए हैं. चुनावों में परसेप्शन बहुत मायने रखते हैं. पूरा चुनावी गणित इसी पर टिका हुआ होता है. मणिपुर हिंसा, ओडिशा में ट्रेन हादसा, उज्जैन में सप्तऋषियों की प्रतिमाओं को नुकसान समेत कई ऐसी चीजें हुई हैं, जो भाजपा सरकारों की छवि को दाग लगा गयी हैं. महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी हैं. ऐसे में छोटे दल उसके लिए निश्चित संजीवनी साबित हो सकते हैं.

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