हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार

आजाद एक ऐसा शब्‍द है जो महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद के साथ जुड़ा है। इन्‍होंने अपनी पूरी जिंदगी को आजाद रखने का वचन था और उसे आखिरी सांस तक निभाया भी। ऐसे आजादी के महानायक, मां भारती के सच्चे उपासक जगदानी देवी- पंडित सीताराम तिवारी के सपूत चंद्रशेखर आजाद का अवतरण 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा नामक स्थान पर   हुआ था। आजाद का बचपन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में बीता था। यहां पर आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाए थे। जिसके कारण उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी।

स्तुत्य, जलियांवाला बाग कांड के समय चन्द्रशेखर बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् 1921 में असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो वे अपनी पढ़ाई छोड़कर सड़क पर उतर आए। इन्‍होंने अपना पूरा जीवन देश की आजादी की लड़ाई के लिए कुर्बान कर दिया। चंद्रशेखर बेहद कम्र उम्र में देश की आजादी की लड़ाई का हिस्सा बने थे। जब सन् 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद गांधीजी ने अपना आंदोलन वापस ले लिया तो आज़ाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इसके बाद वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल और शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेश चन्द्र चटर्जी द्वारा 1924 में गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए। इस एसोसिएशन के साथ जुड़ने के बाद चंद्रशेखर ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी कांड 1925 में पहली बार सक्रिय रूप से भाग लिया। 

कालजयी, आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने मिलकर 17 दिसंबर, 1928 की शाम को लाहौर में पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को मार दिया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। इस हत्याकांड के बाद लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है। आजाद ने भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा था, लेकिन वहां से उन्हें कोरा जवाब मिल गया था। आज़ाद ने इन तीनों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया था। वे पण्डित नेहरू से भी आग्रह किए थे कि तीनों की फांसी को उम्रकैद में बदलवा दिया जाए, लेकिन सफलता नहीं मिली।

मनमुग्ध, चंद्रशेखर को ‘आजाद’ नाम एक खास वजह से मिला। चंद्रशेखर जब 15 साल के थे तब उन्‍हें किसी केस में एक जज के सामने पेश किया गया। वहां पर जब जज ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने ने कहा, ‘मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा घर जेल है’। जज ये सुनने के बाद भड़क गए और चंद्रशेखर को 15 कोड़ों की सजा सुनाई, यही से उनका नाम आजाद पड़ गया। चंद्रशेखर पूरी जिंदगी अपने आप को आजाद रखना चाहते थे। अभिभूत आजाद का कहना था, देश की स्वतंत्रता के लिए विपत्तियों से युद्ध करना ही मेरा राष्ट्रधर्म है।”

अविनाशी, अंग्रेजों से लड़ाई करने के लिए चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य साथियों के साथ बैठकर आगामी योजना बना रहे थे। इस बात की जानकारी अंग्रेजों को पहले से ही मिल गई थी। जिसके कारण अचानक अंग्रेज पुलिस ने उन पर हमला कर दिया। आजाद ने अपने साथियों को वहां से भगा दिया और अकेले अंग्रेजों से लोहा लगने लगे। इस लड़ाई में पुलिस की गोलियों से आजाद बुरी तरह घायल हो गए थे। वे सैकड़ों पुलिस वालों के सामने 20 मिनट तक लड़ते रहे थे। उन्होंने संकल्प लिया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसीलिए अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए महज 24 बरस की अल्पायु में 27 फरवरी 1931 को प्राणों की आहुति दे दी। इतिहास के अमर पन्नों में दर्ज यह वीरगाथा सदा-सर्वदा प्रेरणापुंज रहेगी। वंदेमातरम्!

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