श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र कोर्स का समापन समारोह आयोजित

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

कुरुक्षेत्र, 1 फरवरी : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में आयोजित श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम का समापन समारोह आयोजित किया गया। शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने कहा कि कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता पर इस प्रकार के समझने के लिए व्याख्यान, उसकी कक्षाएं लगें, भले ही कोर्स नाम दिया जाए, ऐसे कार्यक्रमों से ज्ञान की प्राप्ति तो होगी ही। समाज की अन्य संस्थाओं को भी ऐसे कार्यक्रमों के लिए आगे आना चाहिए। उन्होंने भविष्य में भी इसी तरह के आयोजन करने को कहा। बहुत से व्यक्ति श्रीमद्भगवद्गीता को केवल भक्ति का ग्रंथ मानकर ही रह जाते हैं वरन् गीता सभी के लिए है। गीता दैनिक जीवन की जटिलताओं को सरल बनाती है। दैनिक व्यस्तताओं तथा समयाभाव के इस युग में इस प्रकार के कार्यक्रम हमें सहजता व सरलता अपनाने में सहायक सिद्ध होते हैं।

डॉ. ऋषि गोयल ने कोर्स में शामिल किए गए 9 विषयों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि गीता के साथ लोग जुड़ें और गीता के तत्वों को ग्रहण करें। समाज जीवन के विभिन्न लोगों की आवश्यकताओं का दृष्टिपात करते हुए एवं उनकी आवश्यकताओं का अवलोकन करते हुए और उनके लिए गीता का कथ्य क्या है, ऐसे 9 विषयों को लेकर विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा आयोजित श्रीमद्भगवद्गीता पर यह प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम का सफल आयोजन हुआ है। इस अवसर पर कोर्स के अनेक प्रतिभागियों ने स्वयं पर आचरण हेतु सीखी अनेक बातों को मंच के माध्यम से साझा किया।

डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने समापन समारोह में कहा कि यदि मनुष्य होना सार्थक करना है तो श्रीमद्भगवद्गीता से श्रेष्ठ, परिपूर्ण और समग्र मार्गदर्शक कोई दूसरा नहीं है। भगवान श्री कृष्ण का सबसे बड़ा उपकार मानवता पर यही रहा कि उन्होंने ज्ञान और कर्म का समन्वय और उसके साथ-साथ भक्ति का भी समन्वय करके एक परिपूर्ण जीवन दर्शन हमारे सामने अर्जुन को माध्यम बनाकर दिया। गीता कर्म के साथ ज्ञान को मिलाती है माने बंधन के साथ मुक्ति को मिलाती है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को भगवान ने बुद्धि दी है। उस बुद्धि के द्वारा वह विचार कर सकता है, विश्लेषण, विवेक और सत्य की खोज कर सकता है। यह जगत वास्तव में भगवान का ही स्वरूप है। भगवान का रक्षण है सत, चित्त, आनंद। सत माने ऐसा अस्तित्व जो कभी नष्ट नहीं होता। चित्त माने पूर्ण और परम ज्ञान। आनंद माने परम सुख जिसमें कभी दुख नहीं आता।

अभीप्सा शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि अभीप्सा माने प्यास, खो जाने की इच्छा। मन में प्रश्न उठते हैं, बुद्धि में जिज्ञासा आती है, हृदय में अभीप्सा पैदा होती है। प्रश्न का उत्तर होता है। सत्य की जिज्ञासा हुई तो उसका समाधान करना पड़ता है। तथ्य को जानने की इच्छा को प्रश्न कहते हैं, सत्य को जानने की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं और सत्य हो जाने की प्यास को अभीप्सा कहते हैं। ‘स्व भावो अध्यात्म उच्यते’ की व्याख्या करते हुए कहा कि यह ‘स्व’ का भाव ही अध्यात्म है। अध्यात्म के अंदर स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और हमारी आत्मा भी आती है। हमारी जो आंतरिक वास्तविकता है, उसका साइंस ही अध्यात्म विद्या है और वह सब को जाननी ही चाहिए। हमारा वास्तविक आनंद ज्ञान की मौज है। प्रज्ञा की मौज है। प्रज्ञा माने जिस करके सब जाना जाता है उसको जान लेना। उन्होंने कहा कि मानव आत्म दर्शन की क्षमता का दिव्यतम वरदान पाकर सृष्टि सर्वोत्कृष्ट है और दर्शन इस आत्म दृष्टि की उद्घातक है। उन्होंने प्रतिभागियों की जिज्ञासाओं का समाधान भी किया। इस अवसर पर कृष्ण कुमार भंडारी, जयभगवान सिंगला, डॉ. हुकम सिंह सहित अनेक जिज्ञासु उपस्थित रहे।