कमलेश भारतीय

बचपन में जब खेलते थे और कोई चीटिंग करता था तब कहते थे कि रौल किया , हम नहीं मानते । अब यह बात याद आ रही है जब कथित बाबा को पंजाब के चुनाव से तेरह दिन पहले इक्कीस दिन की पैरोल पर छोड़ा गया जबकि इससे पहले तीन बार इनकी पैरोल की अर्जी खारिज की जाती रही और बीमार मां को देखने के लिए भी सिर्फ कुछ घंटों की पैरोल दी गयी थी तो अब चुनाव के ऐन मौके पर इक्कीस दिन की पैरोल किसलिए ? पहले हरियाणा के जेल मंत्री चौ रणजीत चौटाला ने भूमिका बनाते कहा कि पैरोल हर कैदी का मौलिक अधिकार है और अब मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कह रहे हैं कि बाबा की पैरोल का चुनावों से कोई लेना देना नहीं और न इसे चुनावों से जोड़कर देखा जाये । वाह । याद आईं ये पंक्तियां :

इस सादगी पर कौन न मर जाते ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

साध्वियों से बलात्कार और दो दो हत्याओं के मामले में सन् 2017 से सुनारिया जेल के कैदी के मौलिक अधिकारों का इतना ख्याल और उन परिवारों की कोई चिंता नहीं जो इनके जुल्मों के शिकार हुए ? यह कोई साधारण कैदी नहीं , यह सरकार भी जानती है और पत्रकार छत्रपति का बेटा अंशुल भी बार बार पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में कह रहा है । फिर भी सरकार ने बड़ी दरियादिली से इक्कीस दिन की पैरोल देने में देरी नहीं की ।

राजनीति में डेरे का दखल जगजाहिर है । पंजाब के मालवा क्षेत्र में डेरे का असर माना और देखा जाता है और यही कारण है कि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह व प्रकाश सिंह बादल माथा टेकने आ चुके हैं । अभी और नेता भी आ सकते हैं और आते रहते हैं । आपको याद दिला दूं कि जब प्रो रामबिलास शर्मा पिछली सरकार में मंत्री थे तब इस डेरे में आए थे और पच्चीस लाख रुपये कोष से देने की घोषणा कर गये थे । यह अलग बात है कि कुछ समय बाद ही बाबा के खिलाफ फैसला आ गया और पता नहीं वह रकम भेजी गयी या नहीं ।

देश धर्मनिरपेक्ष है और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जाती है लेकिन धर्म का इस्तेमाल वोट के लिए अप्रत्यक्ष रूप से होता आ रहा है । चाहे यह नारा राम मंदिर वहीं बनायेंगे ही क्यों न हो । अब तो सचमुच वह सपना भी पूरा हो रहा है । पर लाल कृष्ण आडवाणी जो रथ लेकर निकले थे , वे घर बैठे हैं । उन पर कृपा नहीं बरसी । न प्रधानमंत्री बन पाये और न ही राष्ट्रपति । अब तो मार्गदर्शक ही रह गये । फिर भी कहा जा रहा है भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कि सपा को कृष्ण याद आये ।

बाबा की पैरोल एक रौल के सिवाय कुछ भी नहीं । सोशल मीडिया पर भी जम कर सरकार के इस फैसले की आलोचना हो रही है और एक अखबार का शीर्षक है : सच्चा चुनावी सौदा । अब आप जानते हैं कि इसी अखबार पर उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे कोरोना काल में शवों पर की गयी रिपोर्टिंग के कारण छापे मारे गये थे । अब इस हैडिंग के लिए फिर से ईडी को न्यौता दिया जा सकता है ।

अंशुल पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट को शरण में जा सकता है और सरकार आलोचना के घेरे में है । सबसे सही सबक तो पंजाब की जनता को सिखाना है कि इस तरह के रौल को वे स्वीकार नहीं करेंगे । फिर यह रौल सदा के लिए खत्म हो सकता है ।
बड़ी बात कि सरकार न्याय का पक्ष लेते दिखनी भी चाहिए । सिर्फ संयोग कह भर देने से कुछ नहीं होता ।
-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।

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