अरविंद सैनी
लेखक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश मीडिया सह प्रमुख है।

नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में हरियाणा ने भी बड़ी आहुति है। आज जब आजादी के 75वें वर्ष को अमृत महोत्सव के रूप में मनाते हुए भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ ने पूरे हरियाणा को सुभाषमयी बना दिया है, ऐसे में उन वीरों को याद करने की जिम्मेदारी इस लेख के माध्यम से मैंने भी की है।

आज़ाद हिन्द फौज में हरियाणा के लगभग 2,715 सैनिक शामिल थे, जिनमें 398 अफसर और 2,317 जवान थे। तत्कालीन रोहतक जिले (रोहतक, सोनीपत तथा झज्जर) से सर्वाधिक 149 अफसर तथा 724 सैनिकोंसहित 873 योद्धा इस सेना में शामिल हुए। गुड़गाँव जिले से (गुड़गाँव, फरीदाबाद, पलवल, मेवात, रेवाड़ी, महेन्द्रगढ़) 106 अफसर तथा 580 जवानों सहित कुल 686 सैनिक इस मुक्ति सेना का हिस्सा बने। इन वीरों ने ‘मित्र राष्ट्रों की सेनाओं से जमकर लोहा लिया। जनवरी 1944 में आज़ाद हिन्द फौज की सुभाष ब्रिगेड को प्रमुख सेनानी शाहनवाज खां के नेतृत्व में अंग्रेज़ों से सशस्त्र युद्ध करने का अवसर प्राप्त हुआ।

इस बिग्रेड की दूसरी बटालियन (कुल 3 बटालियन) का नेतृत्व झज्जर जिले में जन्मे ले. कर्नल रणसिंह ने किया। इस ब्रिगेड की प्रथम बटालियन में भी हरियाणा से मेजर सूरजमल ने कलादान घाटी से अंग्रेज़ों को खदेड़ा। इस बटालियन ने मोदोक पर अधिकार कर लिया। जींद के 96 और कैथल के 50 सेनानी आजाद हिंद फौज में शामिल होकर देश के लिए लडे़। ऐसे हरियाणा के लगभग हर कौने से सैकड़ों लोग नेताजी की फौज से जुड़े और स्वतंत्रता के लिए लडे़।

आज़ाद हिन्द फौज द्वारा मई 1944 में मुक्त कराया गया मोदोक का क्षेत्र भारत का प्रथम क्षेत्र था जो इस मुक्ति सेना द्वारा छुड़वाया गया था। मेजर सूरजमल ने सितंबर 1944 तक मोदोक में अंग्रेजों को फटकने नहीं दिया। इससे प्रसन्न होकर नेताजी सुभाष ने मेजर सूरजमल को ‘सरदार-ए-जंग’ के तमगेसे सम्मानित किया। इनके अलावा गुप्तचर विभाग के इंचार्ज रहे हरियाणा निवासी कर्नल रामस्वरूप को भी सरदार-ए-जंग के तमगे से सम्मानित किया गया था। तीसरी बटालियन की प्रथम कंपनी के कप्तान कंवल सिंह ने लेगी के युद्ध में तथा मेजर चन्द्रभान यादव ने पागन के युद्ध में अपने जौहर दिखाए। ले. कर्नल दिलसुख मान ने डिप्टी क्वार्टर मास्टर के रूप में अपनी सेवाएँ दी तथा नायक मौलड़सिंह ने मातृभूमि को मुक्त कराने के इस यज्ञ में अपनी शहादत दी। नेताजी ने इस वीर नायक को ‘शहीद-ए-भारत’ के तमगे
से विभूषित किया। कप्तान हरीराम को उनकी असाधारण वीरता के लिए नेताजी ने तमगा-ए-बहादुरी’ से सम्मानित किया था। आज़ाद हिन्द फौज की ओर से लड़ते हुए इस पवित्र युद्ध में हरियाणा के कुल 22 वीर अफसर तथा 324 बहादुर जवान वीरगति को प्राप्त हुए। शेष बचे हुए सैनिकों पर अंग्रेजी सरकार मकदमे लगाकर कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही की तैयारी कर रखी थी। परन्तु व्यापक जन-विरोध के
कारण अंग्रेजी सरकार द्वारा इनको मुक्त करना पड़ा।

आज भी है आजाद हिंद फौज के 8 सैनिक
आजाद हिंद फौज के आठ सैनिक आज भी जिंदा है। जबकि 321 सैनिकों की विरांगनाएं आजाद हिंद फौज में सैनिक रहे अपने वीर पतियों की शौर्य गाथा सुनाने के लिए जिंदा है।

आज़ाद हिन्द फौज : एक पराक्रमिक परिचय
आजाद हिन्द फौज का गठन पहली बार राजा महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में हुआ था।
मूल रूप से उस वक्त यह आज़ाद हिन्द सरकार की सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेज़ों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज अथवा इण्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का गठन किया।

दक्षिण-पूर्वी एशिया में जापान के सहयोग द्वारा नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने करीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू किया और उसे भी आज़ाद हिन्द फौज नाम दिया तो उन्हें आज़ाद हिन्द फौज का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी गई।

आरम्भ में इस फौज में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये।

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया।

जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग द्वारा भारत की ओर बढ़ते हुए 18 मार्च 1944 को कोहिमा और इम्फाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुंच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। नेताजी ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया।

21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुयायी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।

अपनी इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष –तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला।

इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलिपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया।

30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फौज का मुख्यालय बनाया।

4 फरवरी 1944 को आज़ाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेज़ों से मुक्त करा लिया।

21 मार्च 1944 को ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।

22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा-

“हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।
यह स्वतंत्रता की देवी की माँग है।”
दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्वयुद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया, किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेजों ने सन् 1945 में गिरफ्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेजी सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल दिल्ली व जर शाहनवाज खाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया।

इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सपू. जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन तीनों को फाँसी की सजा सुनाई गयी। इस निर्णय के खिलाफ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। आम जनमानस भड़क उठा और अपने दिल में जल रही मशालों को हाथों में थामकर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे लगाये गये लाल किले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फौज को छोड़ दो। विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सजा को माफ करा दिया।

आजाद हिन्द फौज के सेनानियों की संख्या के बारे में थोड़े-बहुत मतभेद रहे हैं, परन्तु ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इस सेना में लगभग चालीस हजार सेनानी थे। इस संख्या का अनुमोदन ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जी डी एण्डरसन ने भी किया है। जब जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा किया था, तो लगभग 45 हजार भारतीय सेनानियों को पकड़ा गया था। इनमें एक महिला यूनिट भी थी, जिसकी कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन थीं।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि आज़ाद हिन्द फौज में 85 हजार सैनिक थे।

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