विभिन्न विधाओं में हिंदी तथा हरियाणवी की सोलह पुस्तकें प्रकाशित,चार हरियाणवी फिल्मों में गीत एवं संवाद लेखन, केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए आज़ादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत हरियाणा के आजादी गीत के रचनाकार -प्रियंका सौरभरिसर्च स्कॉलर, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, हरियाणा साहित्य अकादमी के वर्ष 2020 की जनकवि मेहर सिंह सम्मान हेतु चयनित रचनाकार सत्यवीर नाहड़िया का जन्म रेवाड़ी जिले के नाहड़ गांव में किसानी संस्कृति के एक सैनिक परिवार में हुआ। इनके पिता श्री होशियार सिंह यादव भूतपूर्व सैनिक तथा माता श्रीमती चांँदकौर गृहिणी रहीं हैं। तीन भाइयों में सबसे छोटे सत्यवीर के दोनों अग्रज भारतीय वायु सेना में सेवारत रहे। फिलहाल रेवाड़ी के सेक्टर-1 के निवासी हैं तथा रेवाड़ी जिले के गांव खोरी स्थित राजकीय आदर्श वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक के तौर पर सेवारत हैं। इनकी युवावस्था का दौर बदलाव का संक्रमण काल कहा जा सकता है, जिसमें ने तो पुराने मूल्यों को पूरी तरह अपनाया जा रहा था तथा न हु नए दौर को अपना पाए थे। वस्तुत: एक वैचारिक द्वंद निरंतर जारी रहता था, जिसने इनको लिखने के लिए प्रेरित किया। उन दिनों न तो डिजिटल क्रांति ने पदार्पण किया था,न ही मोबाइल संस्कृति प्रारंभ हुई थी, हां पत्राचार खूब होता था। इसीलिए सभी रचनाएं डाक के माध्यम से भेजी जाती थीं तथा पत्र-पत्रिकाएं भी इसी माध्यम से प्राप्त होते थे। हिंदू कॉलेज सोनीपत की विज्ञान संकाय के अध्ययन तथा वहां के छात्रावासीय जीवन से इनको बहुत कुछ सीखने को मिला। छात्रावास में हरियाणा के हर जिले का प्रतिनिधित्व होने से इस अनूठे प्रदेश की विविधता में एकता के साक्षात दर्शन हुए। यहीं पर रहते हुए खादर, बांगर, बागड़ मेवात, अहीरवाल, ब्रज आदि क्षेत्रों की बोलियां को सीखने समझने का अवसर भी इनको मिला। हर किसी के जीवन पर परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है, इन्हे सैनिक परिवार से राष्ट्रीयता व अनुशासन के संस्कार मिले तथा सामाजिक परिस्थितियों से लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन लेखन तथा विश्लेषण की दृष्टि मिली। ग्रामीण संस्कृति से तेजी से विलुप्त होती लोक संपदा के संरक्षण की टीस इनके लेखन में भी प्रमुखता से उभर कर आई। लोक जीवन के बहुआयामी पक्षों का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण इनके लेखन में देखा जा सकता है। लोकजीवन, किसानी संस्कृति तथा सैन्य परंपरा इन्हे सामाजिक परिवेश से विरासत में मिली, जिससे मौलिकता से साहित्य की विभिन्न विधाओं में अभिव्यक्त करने की आसानी रही। अध्ययन,लेखन, गायन, छायांकन, संयोजन, संचालन आदि इनकी प्रिय रुचि- अभिरुचि में शामिल हैं। । लोक गायन विशेषकर रागिनी इनको भाती रहीं हैं। लोक कलाकारों तथा लोक कलाओं के प्रति विशेष रुचि एवं आदर भाव रहा है। छात्र जीवन से ही साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन,लेखन, संचालन व संयोजन के प्रति रुचि रही है। छात्र जीवन से ही स्वाध्याय की प्रवृत्ति रही, जो समय के साथ परिष्कृत होती गई तथा आज भी जारी है। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में संस्कृति लेख, कविताएंँ, फिशर तथा आलेख आदि प्रमुखता से प्रकाशित होते रहे। अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लेखक के रूप में भी निरंतर लिख रहें है । अनेक राष्ट्रीय पत्रिकाओं का अतिथि संपादन भी संपादन मंडल ने करवाया। ये हरियाणवी तथा हिंदी दोनों में लिख रहें है , जिसका प्रमुख कारण ही है कि हरियाणवी का ये अपनी मांँ- बोली तथा हिंदी राष्ट्रभाषा मानते है। दूसरा हरियाणवी तो हिंदी की भी मांँ है, इसलिए माँ तथा नानी दोनों से स्वाभाविक आत्मीय लगाव है। लोक जीवन तथा लोक संस्कृति इनके प्रिय विषय रहे हैं जिनके साथ हरियाणवी लेखन ज्यादा न्याय कर सकता है। इनके लेखन के अंतर्गत जहां गद्य सृजन के लिए इन्होने हिंदी माध्यम को अपनाया गया है, वहीं अधिकांश काव्य पक्ष हरियाणवी में अभिव्यक्त हुआ है। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा पर्यावरणीय मुद्दों के अलावा राष्ट्रीयता तथा सामाजिक विसंगतियों पर आधारित बहुआयामी विषयों पर केंद्रित इनकी रचनाधर्मिता रही है। विलुप्त होती लोकसंपदा तथा लोककलाओं के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु निरंतर लेखन किया है। गद्य में जहां हिंदी पत्रकारिता के मसीहा तथा हिंदी गद्य के जनक यशस्वी साहित्यकार एवं मूर्धन्य पत्रकार स्व. बाबू बालमुकुंद गुप्त जी के बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अलावा सांस्कृतिक साहित्यिक एवं सामाजिक विषयों पर निबंध, शोध आलेख तथा लेख शामिल हैं। फीचर लेखन तथा समीक्षा इनकी प्रिय विधाएंँ रही हैं। देश और दुनिया में अपने स्वर्णिम सैनिक संस्कृति तथा अनूठी लोक संस्कृति के लिए विख्यात रहे हरियाणा प्रदेश का अनूठा लोकजीवन इनके लेखन की प्रेरणा रही है। प्रदेश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को कलम के माध्यम से सहेजना तथा सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति समाज को जागरूक करना इनके लेखन का मूल उद्देश्य रहा है। सामाजिक,सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पहलुओं पर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना भी इन उद्देश्यों का हिस्सा रहा है। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता अपितु उसे उचित दिशा भी प्रदान करता है, इस जिम्मेवारी को लेकर निरंतर सृजनशीलता जारी रही है। इनका गद्य लेखन हिंदी में है, वहीं पद्य लेखन हरियाणवी में है। हिंदी में संत शिरोमणि बाबा रामस्वरूप दास जी : व्यक्तित्व कृतित्व, बोल कबीरा बोल,हरियाणवी लोक संस्कृति के आयाम तथा हिंदी पत्रकारिता के मसीहा बाबू बालमुकुंद गुप्त पर केंद्रित कृतियों के अलावा बाल साहित्य की तीन कृतियां पंचतत्त्व की पीर, रचा नया इतिहास, दिवस खास त्योहार शामिल हैं। हरियाणवी में,लोक राग,गाऊं गोविंद गीत, ज़रा याद करो कुर्बानी, एक बखत था, बखत बखत की बात,ग्यान-बिग्यान की कुंडलियां, नाहड़िया की कुंडलियां, दिवाली बासठ की, लोक राग, चालती चाक्की, बोल फकीरा बोल आदि कृतियां शामिल हैं। इनके अलावा महाशय भीम सिंह ग्रंथावली तथा अहीरवाटी के लोकगीत नामक कृतियां शीघ्र प्रकाश्य हैं। इनके अलावा राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में मेरी तीन हजार से ज्यादा रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं, जिनमें फीचर, लेख, आलेख, समीक्षा, शोधपत्र तथा अन्य काव्य रचनाएं शामिल हैं। प्रमुख लेखन विधाओं में दोहा, कुंडलिया, रागनी आल्हा, मुक्तक, निबंध, फीचर, संस्मरण,लेख आलेख तथा समीक्षा शामिल है। लेखन विधा भविष्य काव्य विधाएं जहां सनातनी छंदों पर आधारित हैं, वहीं गद्य लेखन भी बेहद प्राचीन विधाओं पर केंद्रित रहा है, वस्तुतः इनका भविष्य बेहद उज्ज्वल है। यह विधाएं अपना समृद्ध प्राचीन इतिहास रखती हैं तथा इनमें भविष्य में भी बहुत कुछ नया सृजित होना है, इसलिए इनमें लेखन से सुखद अनुभूति होती है। लेखन विशेषता में स्तंभ लेखन को इनके लेखन की अतिरिक्त विशेषता कहा जा सकता है। कुछ राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के लिए जहां ये मासिक व साप्ताहिक स्तंभ लिख रहें है , वहीं चंडीगढ़ से प्रकाशित राष्ट्रीय समाचार समाचार पत्र दैनिक ट्रिब्यून हेतु गत दस वर्षों से दैनिक हरियाणवी काव्य स्तंभ लिख रहे है, जिसका प्रारंभ में नाम ‘बोल बखत के’ था तथा बाद में ‘चालती चक्की’ कर दिया गया। हरियाणवी इलेक्ट्रॉनिक्स चैनल ए-वन तहलका के लिए लिखा गया ‘रागनी के बोल’ नामक स्तंभ बेहद चर्चित रहा था। गुरुग्राम से प्रकाशित दैनिक हरियाणा प्रदीप में विगत दो वर्षों से ‘बोल कबीरा बोल’ नामक काव्य दैनिक रूप से प्रकाशित हो रहा है। महकता अहीरवाल नामक पत्रिका में कई वर्षों से मासिक स्तंभ लिख रहे है। चार हरियाणवी फिल्मों में गीत एवं संवाद लेखक के तौर पर भूमिका निभाना भी हरियाणवी के संरक्षण एवं संवर्धन में लेखकीय योगदान कहा जा सकता है। हरियाणा के इनसाइक्लोपीडिया हेतु भी लेखन किया है। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अतिथि संपादन के अलावा समीक्षक के पैनल पर दायित्व निभाया है। हरिगंधा पत्रिका के भी दो हरियाणवी विशेषांकों के अतिथि संपादन करने का सौभाग्य मिला है।हरियाणवी लोक संस्कृति के बहुआयामी पक्षों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विभिन्न विधाओं में लेखन रहा है। इनका लेखन दोनों पक्षों में शामिल रहा है, यानी वरदान भी और प्रयास से भी लिखा गया। काव्य पक्ष को वरदान तथा गद्य लेखन को प्रयास व साधना का प्रतिफल कहा जा सकता है। काव्य प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त होती है, जिसे केवल अनुभव व अभ्यास से निकाला जा सकता है। इसलिए काव्य लेखन ईश्वरीय वरदान है। गद्य लेखन वैचारिक मौलिक अभिव्यक्ति होने के कारण प्रयास व साधना का प्रतिफल जा सकता है। संतकवि कबीर, सूरदास,गिरधर,मुंशी प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, बाबू बालमुकुंद गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि इनके पसंदीदा साहित्यकारों में शामिल हैं। आज साहित्य में दोनों तरह का लेखन जारी है, स्वसुखाय भी और सर्व हिताय भी। सर्व हिताय साहित्य सृजन ही समाज में राष्ट्र को दिशा देता है। इनका अधिकांश लेखन सर्व हिताय श्रेणी में आता है तथा कुछ स्वसुखाय वर्ग में भी शामिल किया जा सकता है। इनके लेखन के विषयों के अनुसार अधिकांश लेखन सर्व हिताय रहा है, क्योंकि लोक संस्कृति, शिक्षा, समाज, राष्ट्रीयता पर्यावरण जैसे मुद्दे सभी के हित पर केंद्रित हैं। उक्त दोनों पक्षों के लेखन की सफलता का मूल्यांकन समीक्षक तथा पाठक वर्ग भी कर सकता है। सत्यवीर बताते है कि मेरे लेखन में संबंधित उद्देश्य की सफलता का मूल्यांकन आने वाला समय कर पाएगा, हां मैं अपने लेखन की दशा और दिशा से संतुष्ट हूं तथा आज भी उच्च आदर्शो के साथ साधनारत हूं। मैंने हिंदी के अलावा मांँ-बोली हरियाणवी में लोक सांस्कृतिक पक्षों को विभिन्न विधाओं में कलमबद्ध करने का प्रयास किया है तथा इस प्राचीन समृद्ध बोली को भाषा बनाने का निरंतर पक्षधर रहा हूं। Post navigation साहित्यिक समारोह और साहित्य का प्रचार प्रसार कविता एक ऐसा माध्यम है जो हमारे मन के तारों को झकझोर देता है : डा. लालचंद गुप्त