मार्कण्डेय आहूजाकुलपति, गुरुग्राम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम दुनिया की अधिकांश महान प्रतिभाएं अपने आलोक से लोक को प्रकाशित भी करती हैं और चकित भी। चाहे देश को नवजागरण और पुनर्जागरण की राह पर ले जाने वाले जगद्गुरू आदि शंकराचार्य हों, सन्त ज्ञानेश्वर हों, स्वामी विवेकानन्द हों, महान आचार्य रामानुज हों, चैतन्य महाप्रभु हों या देश को पराधीनता की बेडिय़ों से मुक्त करवाने वाले स्वाधीनता के नायक चापेकर सराबा, बन्धु, खुदी राम बोस, मदनलाल धींगड़ा, करतार सिंह चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खां, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, उधम सिंह सरीखे अनेकों जाबांज सपूत या अकबर इलाहाबादी की पंक्तियों, खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो को चरितार्थ करने वाले गणेश शंकर विद्याथी या क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार और पत्रकार जिन्हें 23 नवम्बर (पुण्यतिथि) पर कृतज्ञ राष्ट्र नमन करता है। सखाराम भारतीय जनजागरण के एसेे विचारक और स्वाधीनता सेनानी पत्रकार थे जिनके चिन्तन और लेखन में स्थानीयता और अखिल भारतीयता का अद्भुत, अनूठा एवं अद्वितीय संगम था। वे महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच सेतु के समान थे। अरविन्द घोष ने लिखा है कि स्वराज्य शब्द के पहले प्रयोग का श्रेय सखाराम देउस्कर को ही जाता है। पत्रकार के तौर पर जीवन की शुरुआत करने वाले देउस्कर की इतिहास, साहित्य और राजनीति में विशेष रूप से रुचि थी। उन्होंने बांग्ला की अधिकांश क्रांतिकारी पत्रिकाओं में सतत लेखन किया। देउस्कर की जिस एक रचना ने नवजागरण काल के प्रबुद्धवर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया, वह थी 1904 में प्रकाशित कृति देशेर कथा। इसका हिंदी अनुवाद देश की बात (1910) नाम से हुआ। विलियम डिग्बी, दादाभाई नौरोजी और रमेश चंद्र दत्त ने भारतीय अर्थव्यवस्था के जिस विदेशी शोषण के बारे में लिखा था, सखाराम देउस्कर ने मुख्यत: उसी आधार पर इस ऐतिहासिक कृति की रचना की। हिंदुस्तान के उद्योग-धंधों की बर्बादी का चित्रण करती देउस्कर की यह कृति ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जंजीरों में जकड़ी और शोषण के तले जीती-मरती भारतीय जनता के रुदन का दस्तावेज है। मात्र पांच वर्षों में इसके पांच संस्करण की तेरह हजार प्रतियों के प्रकाशन की सूचना से भयभीत अंग्रेजों ने सन् 1910 में इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी। भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए यहां की कृषि व्यवस्था कारीगरी और उद्योग-धध्ंाों को तहस-नहस करने और भारतीय की घटनाओं का प्रमाणिक चित्र नागरिक के संबंध में अवमानना भरे वाक्यों यहां उपस्थित है। इस पुस्तक का हिन्दी का व्यवहार करने अनुवाद देश की बात नाम से बाबूराव विष्णु देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर पराड़कर ने लगभग शताब्दीभर पूवज़् किया। 1869 को देवघर के पास करौ नामक गांव सखाराम गणेश में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। मराठी मूल के देउस्कर के पूर्वज महाराष्ट्र के रायगड जिले में छत्रपति शिवाजी महाराज के अलिबाग नामक किले के निकट देउस गांव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय उनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर करौं में बस गए थे। पांच साल की अवस्था में मां का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण उनकी विद्यानुरागिनी बुआ के पास हुआ जो मराठी साहित्य से भली-भांति परिचित थीं। उनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में वेदों के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने बंगाली भाषा भी सीखी। इतिहास उनका प्रिय विषय था। सखाराम गणेश दउेस्कर बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् 1891 में दवे घर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1893 से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक का विकास करते रहे। दूसरी ओर उसकी अभिव्यक्ति के लिए बांग्ला की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे। सन् 1894 में देवघर में हार्ड नाम का एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउस्कर ने उसके विरुद्ध कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले हितवादी नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउस्कर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउस्कर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता जाकर हितवादी अखबार में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे हितवादी के संपादक बना दिए गए। लेकिन सन् 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में जब कांग्रेस का गरम दल और नरम दल में विभाजन हुआ तो हितवादी के मालिक ने देउस्कर से गरम दल और तिलक के विरुद्ध हितवादी में संपादकीय लेख लिखने के लिए कहा। सखाराम तिलक के राजनीतिक विचारों से एकता अनुभव करते थे, इसलिए उन्होंने तिलक के विरुद्ध संपादकीय लेख लिखने से मना कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें हितवादी के संपादक पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद वे कलकत्ता के ही राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के विद्यालय में बांग्ला भाषा तथा भारतीय इतिहास के शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। लेकिन सन् 1910 में जब राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के प्रबंधकगण उन्हें सशंकित दृष्टि से देखने लगे। ऐसी स्थिति में सखाराम ने शिक्षक पद से भी त्यागपत्र दे दिया। बाद में हितवादी के प्रबंधकों ने उनसे पुन: संपादक बनने का अनुरोध किया तो देउस्कर ने उसे स्वीकार कर लिया। कुछ लोगों के लिए त्याग और संघर्ष जीवन के आदर्श होते हैं, लेकिन सखाराम गणेश देउस्कर की पूरी जिंदगी त्याग और संघर्ष के ताने-बाने से बनी हुई थी। स्वराज्य और स्वतंत्रता का यह योद्धा जीवन भर अपने विचारों के लिए कठिन संघर्ष करता दिखाई देता है। उनका पारिवारिक जीवन भी निरंतर संकटों और संघर्षों के बीच बीता। जब वे पांच वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया, इसलिए उनका पालन-पोषण उनकी विधवा बुआ के हाथों हुआ जिन्होंने सखाराम को मराठी साहित्य की शिक्षा दी। जब देशेर कथा को लोकप्रियता के कारण देउस्कर ख्याति के शिखर पर थे, तभी एक ओर उनकी दो पुस्तकों पर सरकारी प्रतिबंध लगा तो दूसरी ओर उनकी पत्नी और एकमात्र पुत्र का निधन हुआ। सन् 1910 के अंतिम दिनों में इन सब आघातों से आहत होकर सखाराम गणेश देउस्कर अपने गांव करौं लौट आए और वहीं रहने लगे। उनको कुल 43 वर्ष का ही जीवन मिला था। 23 नवम्बर 1912 को यह प्रकाशपुंज सदा के लिए बुझ गया। स्वतंत्रता के 75वें अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में इस महान चित्रक, चिंतक की चैतन्यता को सच्ची श्रदांजलि यही होगी कि आज का पत्रकार स्वहित से ऊपर उठकर स्वराज हित की बात करे! 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