भारतीय समाज-संस्कृति का आधार है परिवार

-डॉ. मारकन्डे आहूजा………कुलपति, गुरुग्राम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम    

पिछले दिनों भारतीय मीडिया में एक समाचार ने बहुत सुर्खियां बटोरी, उस समाचार पर अनेक प्रकार के वाद-विवाद और बहस भी टेलीविजन से लेकर इंटरनेट मीडिया पर होती रही। देखने वालों और दिखाने वालों ने विभिन्न दृष्टिकोण से इस समाचार को देखा और दिखाया। मेरी दृष्टि में यह समाचार भारत के प्रत्येक उन माता-पिता के लिए चिंता और चिंतन का विषय है जो अपने किशोर एवं युवा होते बच्चों के बढ़ते जीवन-क्रम के साझीदार हैं।

एक सफल फिल्मी सितारे के तमाम सुविधाओं से संपन्न घर में जीवन-यात्रा को आगे बढा रहे युवा पुत्र का नशे की लत का शिकार होना बहुत लोगों के लिए महज एक चटखारे लेने वाली, निंदा रस में सुख पाने वाली या सहानुभूति का अवसर देने वाली खबर हो सकती है, किंतु सच में तो यह वर्तमान समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। यह एक सूचना और इसके जैसी अनेक सूचनाएं जो हमें भले ही मिलें या ना मिलें, भारतीय समाज के भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी हैं। विश्व में सबसे युवा जनसंख्या होने की शक्ति के साथ विकास एवं वैश्विक भूमिका के अप्रतिम मानदंड प्राप्त करने की कोशिश में जुटे राष्ट्र के लिए यह महत्वपूर्ण मुद्दा है जो उसकी इच्छित सफलता की राह में बाधा बन सकता है। यह इसी प्रकार की चिंता है जैसे बड़े-बड़े आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न शहर बसाए जा रहे हैं लेकिन धरती की कोख में पीने का पानी समाप्त हो रहा है । हम अपने बच्चों के लिए, उनके सुनहरे भविष्य के लिए निरंतर एक भौतिक प्रगति की ओर दौड़ रहे हैं, किंतु उन बच्चों के भीतर जीवन की नदी सूख रही है, संवेदना और संस्कार का पानी मर रहा है, हम यह देख नहीं पा रहे हैं या शायद देखकर भी नजरअंदाज कर रहे हैं। अपने वक्त में पीछे पलटकर देखने पर समस्या और समाधान की तस्वीर काफी स्पष्ट होने लगती है। ऐसा नहीं है कि बच्चों की परवरिश से जुड़ी चुनौतियां उस समय में नहीं थी या नशा, निराशा, अपेक्षाओं के बोझ जैसे कारण पहले नहीं रहे हैं।

यह सब कारक हमेशा से मनुष्यों के जीवन में रहे हैं जिसके दुष्प्रभाव समाज को चिंतित करते रहे हैं। दरअसल समस्याएं तो कमोबेश आज भी वही हैं किंतु समाधान की राह बाधित हो गई है यह चिंता का असली कारण है और यह समाधान की राह है भारतीय परिवार परंपरा। ऐसा नहीं है कि एक फिल्मी सितारे या उसकी कामकाजी पत्नी को ही बच्चों की परवरिश या उनसे संवाद के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता। हमारे समय में साधारण नौकरी करने वाले पिता और घर को संभालने वाली मां के पास भी पर्याप्त समय नहीं होता था। इसमें इतना अंतर अवश्य आया है कि उनका घर में बीतने वाला समय वर्तमान का अपेक्षा अधिक था, किंतु बच्चों के साथ उनका भी सीमित संवाद ही हो पाता था। भारतीय परिवार से हम परिचित हैं इसलिए यह समझना कठिन नहीं कि इस व्यवस्था में बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व माता-पिता पर सबसे कम आता है अपितु यह सहज रूप से परिवार के अनेक सदस्यों के माध्यम से होता है। मैं अपने छह दशकों के जीवन के अनुभव से यह कह सकता हूं कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की इससे कारगर कोई पाठशाला नहीं हो सकती।

इस व्यवस्था में एक बच्चा अपने बड़े भाई-बहन, चाचा-बुआ, मामा-मौसी से सहज ही बड़ों के प्रति सम्मान, पढाई या खेल की मेहनत और सामाजिक व्यवहार सीखता है, माता-पिता से संबंधों की गरिमा, प्रेम का वास्तविक अथज़् जानता है और दादा-दादी,नाना-नानी से प्यार, वात्सल्य, दुलार का उदात्त स्वरूप तथा संसार की उलझनों को हंसते-खेलते सुलझाना सीखता है। कठिनाइयों में एक दूसरे के साथ खड़े होने का, संबल बनने का, समर्पण का संस्कार पाता है। सबसे बांट कर छोटी-छोटी खुशियों को कई गुना कर देने का हुनर सीखता है। अभावों को भूल जाने और सामथ्र्य को बढाने के सबक सीखता है, खुद के हिस्से में से भी दूसरों को देने का सुख जान पाता है। इस भारतीय परिवार परंपरा से ही हमें हाथ से हाथ मिलाकर नैय्या पार करने का हौसला मिलता है, मिलकर हंसने और मिलकर रोने का जीवट मिलता है। यहां कोई दुख अपना नहीं होता और कोई सुख पराया नहीं होता, सब साझा होता है। इसी साझेदारी के विस्तार से समाज निर्मित होता है, मित्र के, सहपाठी के, भाई-बहन, रिश्तेदार सब अपने होते हैं। सारा गांव, सारा कस्बा, सारा शहर, सारा प्रदेश और फिर समस्त भारत अपना होता है। इस परिवार संस्कृति में बच्चा तो क्या पशु भी सारे समाज का दायित्व हो जाता है। फलां चाचा की गाय है, फलां ताऊ की बकरी है, उन बुआ का कुत्ता है उनके घर पहुंचा दो, ऐसा कहते हुए हमने अपने दादा-दादी, चाचा-ताऊ, भाई-बहन और माता-पिता को सुना ही है। इतना ही नहीं जिस स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं, उनके शिक्षक-कर्मचारी भी उस विस्तारित परिवार का ही हिस्सा होते हैं इसलिए वे कक्षा या परीक्षा का नहीं, बल्कि जीवन की सफलता का दायित्व निभाते हैं ।    

इस व्यवस्था में अपेक्षाओं के, भावनाओं के, परिस्थितियों के, प्रतिक्रियाओं के दबाव से मुक्त होने के अनेक रिक्त स्थान हैं। माता-पिता की डांट, उनके व्यवहार के प्रति शिकायत जताने के लिए दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-तायी के प्रेम और अधिकार से भरे संबंध हैं। सफलता-असफलता, मन की इच्छाओं-भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सगे, चचेरे-ममेरे भाई-बहनों का आसरा है। छोटी-छोटी गलतियों, विचलन, भटकाव पर वात्सल्य भरी निगाह रखने के लिए चाचा-चाची, मामा-मामी जैसे सहज रिश्ते हैं। स्वाभाविक विरोध-विद्रोह को स्नेह भरी छांव देने वाले परिवार के बुजुर्ग हैं। जीवन की छोटी-बड़ी उलझनों को सुलझाने वाले विस्तारित परिवार के दोस्त और उनके अपने हैं। इस परिवार का परंपरा का चित्र एक हवादार घर की भांति है जिसमें ना जाने कितने दरवाजे, खिड़कियां और रोशनदान हैं जो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में ताजा हवा से सम्पकज़् करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका सहज ही निभाते हैं। रिश्तों के वटवृक्ष में एक डाल पर किसी मौसम में कांटे हों तो फूलों से भरी दूसरी डाल स्वागत करती दिखाई देती है। प्रकृति के समान इस वातावरण में कहीं भी सिर्फ समस्या, कुंठा या निराशा ही नहीं है, बल्कि आशा भी है, खुशी भी है, हौसला भी है, साथ भी है, प्रेम भी है और समाधान भी है।  

पाश्चात्य विचार की छाया में घिरे आज के अति-आधुनिक समाज के लिए ये बातें कहने – सुनने में अच्छी लगती हैं किंतु व्यवहारिक नहीं हैं। यहां परिवार का अर्थ माता-पिता और संतान है जो सभी भौतिक प्रगति के किसी इच्छित लक्ष्य की ओर दौड़ लगा रहे हैं तथा एक-दूसरे पर अपेक्षाओं का बोझ भी लाद रहे हैं। यहां कई दरवाजों, खिड़कियों और रोशनदान वाला घर नहीं है बल्कि बच्चों का जीवन एक प्रेशर कुकर है जिसको कथित परवरिश के ताप पर चढ़ा दिया गया है और समस्याओं के निस्तारण के लिए सिर्फ एक सीटी है। समय पर यह सीटी यदि सुनी नहीं जाती या अटक जाती है, फंस जाती है तो जीवन रूपी कूकर फट जाता है और हादसा हो जाता है। परिवार के नाम पर यह जो एक आधुनिक समझौता है वह इसी तरह के हादसों के लिए अभिशप्त है। माता-पिता के (जो कि स्वयं पूर्ण रूप से सही या गलत मनुष्य नहीं हैं) किसी भी व्यवहार के बारे में संवाद के लिए बच्चे के पास वे दोनों ही एक सहारा हैं। इसमें भी यदि वे भी समाधान के स्थान पर स्त्री-पुरुष बनकर समस्या का ही एक पक्ष बन जाएं तो स्थिति अत्यंत विकट हो जाती है। हम निरंतर तथाकथित प्रगति की दौड़ में भौतिक सुख सुविधाओं का अंबार लगाते हुए कब एक स्वाथीज़्, संवेदनहीन, मशीनी मानव हो जाते हैं हमें स्वयं भी अहसास नहीं होता। इसीलिए साल 2017 में मुंबई के ओशिविरा इलाके में अमेरिका से लौटे एक बेटे को मां का कंकाल मिलता है जिनकी मौत चार महीने पहले हो गई थी और ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं समाज में घटित हो रही हैं। परिवार नाम की भारतीय सामाजिक व्यवस्था के क्षीण होते जाने के ही कारण किसी अत्यंत सफल सितारे, व्यापारी, प्रोफेशनल या कोई भी आम शहरी मध्यवर्गीय माता-पिता की वास्तविक संपत्ति यानि उनका बच्चा नशे का, निराशा का, अवसाद का शिकार होकर स्वयं का जीवन नष्ट कर लेता है।

मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि जैसे आज समस्त विश्व को प्रकृति की ओर लौटने की, भारतीय आध्यात्म के अनुसार संतुलित, संयमित, सात्विक जीवन की ओर लौटने की आवश्यकता महसूस हो रही है वैसे हमें भी अपनी जड़ों की ओर अपने हवादार घर की ओर, अपने परिवार रूप वटवृक्ष की ओर लौटने की आवश्यकता है। यही परिवार भारतीय समाज-संस्कृति और राष्ट्र का आधार है, इसी सहज जीवन-दर्शन के अनुकरण से भारत मनुष्यता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर पाएगा ।    

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