पान , मदान और गोदान -कमलेश भारतीय पंजाब विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डाॅ इंद्रनाथ मदान को इसी टैग लाइन के साथ याद किया जाता है -पान , मदान और गोदान । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को जो ऊंचाई दी उसके बल पर देश भर में विभाग का डंका बजता आ रहा है । डाॅ मदान के साथ बहुत सारी मुलाकातें और यादें हैं । व्यंग्य का लहजा आम बातचीत में भी रहता था जैसा उनके व्यंग्य लेखों में । मैं बहुत छोटे से शहर नवांशहर से चंडीगढ़ आता था । पहले पहल फूलचंद मानव के पास , फिर रमेश बतरा और बाद में डाॅ वीरेंद्र मेंहंदीरत्ता के पास । वैसे उन दिनों डाॅ इंदु बाली, राकेश वत्स से भी चंडीगढ़ में ही मुलाकातें होती रहीं । अनेक समारोहों में मिलते रहे । रमेश बतरा तो शामलाल मेंहदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर के संपादन के लिए चर्चित हो रहा था जिसका लघुकथा विशेषांक खूब रहा । डाॅ अतुलवीर अरोड़ा डाॅ मदान के प्रतिभाशाली शिष्यों में से एक थे । संभवतः पान, मदान और गोदान की यह टैग लाइन फूलचंद मानव के मुंह से ही शुरू में सुनी । वे ही पहली बार मुझे डाॅ मदान से मिलाने ले गये थे । डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुंशी प्रेमचंद और गोदान पर लिखा । एक मुलाकात में पूछा था मैंने कि क्या आप मुंशी प्रेमचंद से कभी मिले थे ? तब उन्होंने बताया था कि मिला था लेकिन यह ऐसा चित्र है कि उनके जूतों के तस्मे तक ढंग से बंधे नहीं थे । इतने लापरवाह किस्म के आदमी थे लेकिन लेखन में पूरे चाक चौबंद । यह गोदान पढ़ने के बाद समझ लोगे । उनकी कोठी बस स्टैंड के निकट सेक्टर अठारह में थी और हमारे क्षेत्र के विधायक दिलबाग सिंह भी वहीं निकट ही रहते थे । इसलिए जब कभी किसी काम से चंडीगढ़ अपने विधायक के यहां जाना हुआ तो डाॅ मदान की कोठी में भी झांक आता था । बहुत प्यारी सी याद आ रही हैं । दिल्ली से डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार चंडीगढ़ आए तब मुझे भी सूचित किया । मैं चंडीगढ़ खासतौर पर गया । डाॅ कोहली के साथ मैं और रमेश बतरा पिंजौर भी गये । बाद में डाॅ मदान की कोठी पहुंचे । उनके लाॅन में गोष्ठी चल रही थी । अचानक मुझे उल्टियां लग गयीं माइग्रेन की वजह से । मैं दो तीन बार लाॅन से उठ कर बाथरूम में गया । डाॅ मदान को पता चला तो रमेश से बोले -क्या यार । कमलेश को फ्रिज में से शराब निकाल कर दो पैग पिला दो । ठीक हो जायेगा । सब तरफ ठहाके और मेरा माइग्रेन काफूर । ऐसे थे डाॅ मदान । हर नया रचनाकार चाहता था कि डाॅ मदान उसके बारे में , लेखन पर दो पंक्तिया लिख दें । डाॅ नामवर सिंह की तरह डाॅ मदान का सिक्का चलता था । रवींद्र कालिया हों या निर्मल वर्मा या फिर राजी सेठ । सबको उन्होंने रेखांकित किया , उल्लेखित किया और चर्चित किया । जब वे जीवन की सांध्य बेला में थे तब मेरा प्रथम कथा संग्रह महक से ऊपर आया था । मैंने उन्हें भेंट किया और कुछ दिन बाद जब दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू करने गया तब उन्होंने कहा कि तुमने अपना कथा संग्रह तब दिया जब मैं कुछ भी लिख नहीं पा रहा । पर मैंने सारा पढ़ लिया है और निशान भी लगाये हैं । बहुत संभावनाएं हैं तुम्हारे कथाकार में । ये वे दिन थे जब उन्हें पीजीआई से कैंसर के कारण अंतिम दिन भी बता दिए गये थे और वे मेरे जैसे नये कथाकार को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे । मैंने कहा कि आप न भी लिख पाएं पर आपका आशीष मुझे मिल गया । मेरे लिए यही बड़ी बात है । अब उनके अंतिम इंटरव्यूज के बारे में बताता हूं । यह सन् 1984 के दिनों की बात है जब खटकड़ कलां में मेरे छोटे भाई तरसेम की प्रिंसिपल से ऐसी कहा सुनी हुई कि उसकी नौकरी खतरे में पड़ गयी । मैं उसकी नौकरी बचाने भागा डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर आकर रुका । रात खाना खाने लगे तो उन्होंने मुझे उदास देख सारा माजरा पूछा और कौन बाॅस है के बारे में जानकारी ली । जब मैंने अपने वाइस चेयरमैन प्रो प्रेम सागर शास्त्री का नाम लिया तो मेंहदीरत्ता जी बोले कि चुपचाप खाना खा लो । तुम्हारा काम हो गया समझो । असल में प्रेम सागर जी उनके सहयोगी रह चुके थे और परम मित्र थे । वह काम हो भी गया । फिर मैं अपने विधायक के पास दूसरे दिन जाने लगा तब डाॅ मेंहदीरत्ता ने कहा कि हो सके तो डाॅ मदान की खबर सार लेने जाना । वे पीजीआई से घर आ चुके हैं और अकेला महसूस करते हैं । तुम जाओगे तो खुश हो जायेंगे । मैंने वादा किया कि जरूर जाऊंगा क्योंकि आपको याद दिला दूं कि हमारे विधायक की कोठी बिल्कुल पास थी । डाॅ मेंहदीरत्ता ने बताया कि बेशक डाॅ मदान हमारे चेयरमैन थे लेकिन कभी किसी को अपने ऑफिस में नहीं बुलाते थे । जब कोई बात करनी होती तो हमारे ही पास कमरे में आ जाते । कभी अध्यक्ष होने का रौब गालिब नहीं किया । वही किया मैंने जो कहा था डाॅ मेंहदीरत्ता को । विधायक से थोड़ी सी मुलाकात कर मैं डाॅ मदान की कोठी की ओर चल दिया । वे छड़ी पकड़े बाहर ही दिल बहलाने के लिए चक्कर काट रहे थे । मुझे देखकर अंदर चल दिए । हम आमने सामने बैठ गये । मुझे यह आइडिया तक नहीं था कि आज मैं डाॅ मदान की इंटरव्यू करने वाला हूं । वे बहुत खूबसूरत सी यादों में बह गये और बहते चले गये । सचमुच डाॅ मेंहदीरत्ता ठीक कह रहे थे कि उदास रहते हैं । कुछ बात हो जाए और ज्यादा देर बैठ सको तो अच्छा रहेगा । वही हुआ । वे यादों में बहते गये और मैं डायरी निकाल नोट्स लेता गया । कुछ कुछ पूछ भी लिये सवाल । काफी देर तक चला यह सिलसिला । ऐसे लगा मानो वे लेखकों पर छड़ी बरसा रहे थे । आखिर मैंने विदा ली । तब तक मैं अपने छोटे से कस्बे नवांशहर से दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर भी बन चुका था सन् 1978 दिसम्बर से । इसलिए चंडीगढ़ जाने पर मेरा आकर्षण दैनिक ट्रिब्यून का कार्यालय भी बन चुका था । वहां से निकल कर मैंने सीधी सेक्टर 29 की लोकल बस पकड़ी और दैनिक ट्रिब्यून में पहुंच गया । विजय सहगल सहायक संपादक थे और राधेश्याम शर्मा संपादक । विजय सहगल से मैं काफी घुला मिला था सो पहले उनके पास पहुंचा । उन्होंने पूछा कि कहां से आ रही है मेरी सरकार ? जब मैंने बताया कि डाॅ मदान से मिल कर तब अगली बात पूछी कि कोई बात हुई उनसे ? मैंने बताया कि कोई क्यों ? बहुत सारी बातें । तो चलो पहले पंडित जी के पास । पंडित जी यानी संपादक राधेश्याम शर्मा जी । वे जोश में मुझे धकेलते हुए उनके कमरे में दाखिल हुए । बताया कि पंडित जी कमलेश डाॅ मदान से मिलकर आ रहा है । बस । वे तो मानो इसी इंतजार में थे कि कोई आए और डाॅ मदान का इंटरव्यू लिख कर दे दे । सो एकदम आदेश हुआ कि अभी मेरे ऑफिस में सामने मेज़ पर बैठो । पैड उठाओ और इंटरव्यू लिखकर दो । मैं हैरान । क्या इस तरह भी लिखना पड़ेगा ? किसी समाचारपत्र के कार्यालय में संपादक के सामने बैठ कर इंटरव्यू लिखना परीक्षा देने जैसा लगा । जैसे तपते बुखार में मैंने परीक्षा की तरह लिखा । राधेश्याम जी को सौपा तो उन्होंने कहा कि इसे मूल्यांकन के लिए विजय सहगल को न देकर रमेश नैयर से करवाते हैं क्योंकि विजय तो आपके दोस्त हैं । उन्होंने रमेश नैयर को वे पन्ने भेज दिए । कुछ समय बाद रमेश नैयर मेरा लिखा इंटरव्यू लेकर आए और बोले कि यह इंटरव्यू मेरे आजतक पढ़े श्रेष्ठ इंटरव्यूज में से एक है । बस । उसी रविवार इसे प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया । एक सवाल था कि सरकारी अकादमियां क्या कर पाती हैं ? डाॅ मदान का जवाब था कि भाषा को संवारने और साहित्य को बढ़ाने का काम सरकारी तौर पर नहीं हो सकता । जब पंजाब का भाषा विभाग बना था तो शुरू में कुछ गंभीरता से काम हुआ था लेकिन बाद में रूटीन बन गया और खाना पीना होने लगा । इतने स्पष्ट जवाब डाॅ मदान ही दे सकते थे । रवींद्र कालिया पर भी टिप्पणी थी कि पहले बहुत बढ़िया लिखा लेकिन अब घास काट रहा है । यानी किसी का लिहाज नहीं । निर्मल वर्मा का उपन्यास पाठ्यक्रम में न लगवा पाने का भी उन्हें दुख साल रहा था । यह बहुत बड़ी बात भी कही कि यदि गद्य लेखन में यानी कहानी उपन्यास में पंजाब के लेखकों के योगदान की बात करनी है तो इन्हें यदि निकाल दिया जाए तो आधा लेखन रह जाए । इतना योगदान है । मैंने कहा कि आप इन दिनों कुछ लिख रहे हैं तो उनका कहना था कि लिखना चाहता हूं लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा । मैंनै सुझाव दिया कि किसी को डिक्टेशन दे दीजिए । आप कहो तो मैं आ जाया करूंगा नवांशहर से । कहने लगे कि जब तक अपने हाथ के अंगूठे के नीचे कलम न दबा लूं तब तक लिखने का मज़ा कहां ? फिर व्यंग्य के मूड में आए कि बताओ आजकल लोग हालचाल पूछने तो आते नहीं । मेरे बाद बड़े बड़े आंसू बहायेंगे और अखबार में शोक संदेश देंगे जैसे मेरे बिना मरे जा रहे हों । प्रकाशकों के बारे में पूछे जाने पर कहा कि जब हिंदी विभाग का अध्यक्ष था तब पीछे पीछे चक्कर काटते थे कि आपकी नयी किताब हम छापेंगे और अब कोई किताब कहूंगा छापने को तो कहेंगे कि हमारे पास आलोचनात्मक पुस्तक के लिए बजट नहीं । सीधी बात यह कि उसी बेरी को पत्थर मारते हैं जिस पर बार लगे हों । अब मैं किसी पद पर नहीं यानी मेरे कोई बेर नहीं लगा तो क्यों आएंगे ? इस पहली इंटरव्यू का इतना चर्चा हुआ कि राधेश्याम जी ने मुझे नवांशहर से बुलाया और दूसरा इंटरव्यू करने के लिए कुछ प्रश्न दिए और मेरे साथ फोटोग्राफर योग जाॅय को लेकर चले । वहां मुलाकात की । डाॅ मदान कम कहां थे -बोले कि कमलेश को नवांशहर से बुलाकर कुछ दोगे भी या रूखा सूखा इंटरव्यू करवाओगे ? इस हंसी मज़ाक के बीच फिर सवाल जवाब हुए और योग जाॅय का फोटो सैशन भी । सबसे मुश्किल सवाल मुझे दिया था कि पूछ लूं कि अंतिम समय क्या चाहते हैं ? इसका जवाब था कि अंतिम समय में मेरी अस्थियों को गंगा में विसर्जित न किया जाए बल्कि सतलुज में विसर्जित की जाएं क्योंकि मैंने इसी का पानी पिया है और अन्न खाया है । यही नहीं चूंकि वे आजीवन अविवाहित रहे थे और अंतिम समय में एक लड़की को गोद ले लिया था तो कोठी और पुस्तकों के भंडार का क्या किया जाए ? डाॅ मदान की इच्छा थी कि इसे शोधछात्रों को अर्पित किया जाए और यह एक केंद्र बने लेकिन ऐसा नहीं हुआ । गोद ली हुई बेटी ने यह इच्छा पूरी नहीं की । वे विदेश चली गयीं । गोद ली हुई बेटी का नाम सरिता है जिसने हिंदी विभाग से एम ए की । बाद में डाॅ मदान ने उस मुंहफोली बेटी सलिता की विनोद से शादी कर दी और वह फ्रांस चली गयी । आजकल डाॅ मदान की कोठी सरिता ने अपनी बहन को दे रखी है । इस तरह डाॅ मदान की इच्छा अधूरी ही रही । डाॅ मदान और पंजाब विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग जैसे एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे । व्य॔ग्य में एक बड़ा नाम । उन्होंने मुझे अपना व्यंग्य संग्रह भेंट किया जो एक मधुर याद की तरह मेरे पास सुरक्षित है । व्यंग्य को लेकर वे कहते थे कि दूसरों पर व्यंग्य करने की बजाय अपने पर करो । यह शेर भी सुनाया करते थे : नशा पिला के गिराना तो सबको आता है साकीमज़ा तो तब है जो गिरतों को थाम ले साकी डाॅ मदान ही नहीं , रमेश बतरा की याद और वो लाॅन पर गोष्ठी और यह कहना कि कमलेश को दो पैग लगवा दे । आज तक हंसी ला देता है मेरे होंठों पर । रमेश बतरा से अनजाने ही दो बातें सीखीं । पहला संपादन । दूसरा संगठन चलाने के लिए गुण । संपादन तो वह दिल्ली की लोकल बस में सफर करते भी करता जाता था । नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करना भी उसी से सीखा । चंडीगढ़ में हर वीकएंड रमेश के साथ बिताता रहा । और उसका आदेश कि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना -बड़ा काम आया । मैं निरंतर कहानी , सारिका , धर्मयुग और नया प्रतीक में प्रकाशित हुआ । संभवतः डाॅ इंद्रनाथ मदान के तीन तीन इंटरव्यूज ही मेरे दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बनने का मार्ग प्रशस्त कर गये और उनका यह कहना कि राधेश्याम, कमलेश को कुछ दोगे भी ? यह उपसंपादक बनना शायद उनकी ही दिखाई हुई राह थी । फिर तो इंटरव्यू दर इंटरव्यू किए और बनी यादों की धरोहर जिसमें संभवतः सबसे लम्बा इंटरव्यू डाॅ मदान का ही है । उनका इंटरव्यू न केवल दैनिक ट्रिब्यून बल्कि राजी सेठ के संपादन में युगसाक्षी पत्रिका में भी आया और पंजाब की पत्रिका जागृति में भी । आह । इतना सच और खरा खरा बोलने वाला आलोचक नहीं मिला फिर और उनका यह मंत्र कि कृति की राह से गुजर कर । यानी जो कृति में है उसी की चर्चा करो । जो नहीं है उसको खोजना या चर्चा करना बंद करो । यह मंत्र बहुत कम आलोचकों ने स्वीकार किया पर यह लक्ष्मण रेखा जरूरी है । डाॅ मेंहदीरत्ता लगातार मांग करते रहे कि मदान विशेषांक निकाला जाए पर वह भी नहीं हो पाया किसी से । सबसे मीठा उलाहना डाॅ अतुलवीर अरोड़ा से बरसों बाद सुनने को मिला कि वे डाॅ मदान के प्रिय और प्रतिभाशाली छात्र जरूर रहे । शोध भी उनके निर्देशन में किया पर उनके भाग्य में डाॅ मदान का साथ और सहयोग कम रहा कि उन्होंने नियुक्ति में तटस्थता अपनाए रखी । खैर ,,अफसोस । Post navigation पत्रकारिता अब मिशन नहीं रही – चंद्रशेखर धरणी होना उन्मुक्त युवा क्रिकेटर का