अशोक कुमार कौशिक मोदी अगर सरदार पटेल को अपना नेता मानते हैं तो फिर उन्हें पटेल की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता पर अमल करते हुए हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने का आह्वान करने वाले सिरफिरे पर कार्रवाई करनी चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात में देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को बेचारा बताकर वोट मांग रहे थे, तब मैं इतिहास की किताबें खंगाल रहा था कि क्या सच में सरदार पटेल की हालत वैसी ही थी जैसी वे बता रहे हैं? क्या वास्तव में सरदार पटेल उपेक्षित थे और उनके साथ बहुत अन्याय हुआ? दुनिया जानती है कि सरदार पटेल आजीवन कांग्रेसी रहे, न सिर्फ आजाद भारत की पहली सरकार में गृहमंत्री रहे, बल्कि राष्ट्र के निर्माताओं में शीर्ष पर विराजमान हैं. पटेल को देश की करीब 500 रियासतों को मिलाकर आधुनिक हिंदुस्तान के शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है. फिर क्या कारण है कि नेहरू, कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता, संसदीय लोकतंत्र, तिरंगा झंडा और संविधान के शासन का विरोध करने वाले लोग सरदार पटेल को अपना नेता कहना चाहते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वामपंथी इतिहासकारों का एक धड़ा सरदार पटेल को कांग्रेस में मौजूद दक्षिणपंथी नेता बताता रहा? आज सुभाषचंद्र बोस द्वारा राष्ट्रपिता की उपाधि हासिल करने वाले महात्मा गांधी के राष्ट्रपिता होने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. आज जवाहरलाल नेहरू को देशविरोधी हितों का हिमायती बताया जा रहा है. लेकिन उसी समय गांधी नेहरू के अनन्य सहयोगी सरदार वल्लभभाई पटेल को नेहरू से अलग करके उन्हें हिंदुत्व की राजनीति का नायक बताया जा रहा है. ऐसे में सरदार पटेल पर विस्तार से चर्चा जरूरी है । एक तरफ कट्टर हिंदूवादी तत्व गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाने की बात करते हैं, दूसरी तरफ हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग उन सरदार पटेल को अपना कहते घूम रहे हैं जिन्होंने गांधी की हत्या के बाद संघ परिवार पर प्रतिबंध लगाया था. क्या वास्तव में सरदार पटेल आरएसएस और राजनीतिक हिंदुत्व के नायक हैं? क्या आरएसएस की हिंदू धर्म के नाम पर विभाजन की राजनीति और हिंदूराष्ट्र के सपने से पटेल का कोई तालमेल है? क्या संघ और भाजपा ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत के नाम पर उनके पास कुछ नहीं है और जब ज्यादा चर्चा होने लगती है तो इतिहास के पन्नों से वीर कहे जाने वाले वीडी सावरकर का माफीनामा निकलता है. ऐसा लगता है कि भाजपा और संघ के लोग आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की शर्म से बचने के लिए सरदार पटेल पर दावा ठोंक रहे हैं. जिस समय नेहरू सांप्रदायिकता से लड़ते हुए लिख रहे थे कि ‘यदि इसे खुलकर खेलने दिया गया, तो सांप्रदायिकता भारत को तोड़ डालेगी.’ उसी समय सरदार पटेल 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में घोषणा कर रहे थे ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) जब नेहरू बार-बार दोहरा रहे थे कि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई राज्य सभ्य नहीं हो सकता’ तब पटेल न सिर्फ नेहरू के साथ खड़े थे बल्कि इसी विचार को दोहरा भी रहे थे. जब नेहरू कह रहे थे, ‘यदि कोई भी व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी अन्य व्यक्ति पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाने की कोशिश भी करेगा, तो मैं उससे अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक सरकार के प्रमुख और उससे बाहर दोनों ही हैसियतों से लडूंगा’ तब सांप्रदायिकता के विरुद्ध इस संघर्ष में नेहरू को पटेल, सी राजगोपालाचारी जैसे दोस्तों से संपूर्ण सहयोग प्राप्त था. सरदार पटेल ने ‘फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया. और 1950 में उन्होंने अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है. यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) महात्मा गांधी अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर सबसे ज्यादा सांप्रदायिकता से दुखी थे. जब महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में आए तो एक सनातन और सार्वभौम मानवतावाद के साथ आए और देश को नेतृत्व प्रदान किया. लेकिन जब देश आजादी की आधी रात का जश्न मना रहा था तब महात्मा गांधी नितांत अकेले इस सांप्रदायिकता की आग में जल रहे बिहार और बंगाल में इस पर पानी डाल रहे थे. बिपन चंद्र के मुताबिक, 1947 में अपने जन्मदिन पर एक शुभकामना संदेश के जवाब में महात्मा गांधी ने कहा कि ‘अब वे और जीने के इच्छुक नहीं हैं और वे उस सर्वशक्तिमान की मदद मागेंगे कि उन्हें जंगली बन गए इंसानों द्वारा, चाहे वे अपने को मुसलमान कहने की जुर्रत करें या हिंदू या कुछ और, कत्लेआम किए जाने का असहाय दर्शक बनाने के बजाए आंसू के इस दरिया से उठा ले जाए.’उन्हें परमात्मा ने तो नहीं उठाया, लेकिन एक ‘जंगली बन गए इंसान’ नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी. देश भर में दंगों की स्थिति देखकर जब पटेल और नेहरू भी विभाजन के बारे में सोचने को विवश हो गए थे, तब एक आदमी ऐसा था जिसने नोआखली, बिहार, कलकत्ता और दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में ‘अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था कि अहिंसा और हृदय परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को उन्होंने जीवन भर माना है, वे झूठे नहीं हैं.’ (आधुनिक भारत, सुमित सरकार) उन्होंने नोआखली, बेलियाघाट, दिल्ली और पंजाब में अनशन करके हिंसा रोकने में सफलता हासिल की. जब यह सबसे आसान था कि गांधी सत्ता हथिया लेते, उसके प्रति तिरस्कार भाव से वे देश भर में संप्रदायवाद से लड़ रहे थे. ‘गांधी की हत्या पूना के ब्राह्मणों के एक गुट द्वारा रचे गए षडयंत्र का चरमोत्कर्ष था, जिसकी मूल प्रेरणा उन्हें वीडी सावरकर से मिली थी.’ (आधुनिक भारत, सुमित सरकार) ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिकता और हिंसात्मक विचारधारा को साफ-साफ देखते हुए और जिस प्रकार की नफरत यह गांधीजी और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध फैला रहा था, उसे देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि यही वे असली शक्तियां हैं जिन्होंने गांधी की हत्या की है. आरएसएस ने लोगों ने कई जगहों पर खुशियां मनाईं थीं. यह सब देखते हुए सरकार ने तुरंत ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) गांधी की हत्या के बाद गृह मंत्री सरदार पटेल को सूचना मिली कि ‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’ 4 फरवरी को एक पत्राचार में भारत सरकार, जिसके गृह मंत्री पटेल थे, ने स्पष्टीकरण दिया था: ‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है. वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का स्पष्टीकरण देते हुए गोलवलकर को सितंबर में एक पत्र लिखा: ‘आरएसएस के भाषण सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’इसके अलावा 18 जुलाई, 1948 को पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक पत्र लिखा, ‘जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं का, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका. मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का एक अतिवादी भाग षडयंत्र में शामिल था. आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य व्यवस्था के अस्तित्व के लिए खतरा थीं. हमें मिली रिपोर्ट बताती है कि प्रतिबंध के बावजूद गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं. दरअसल समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही है.’ नेहरू आरएसएस को एक फासीवादी संगठन मानते थे. दिसंबर, 1947 में उन्होंने लिखा, ‘हमारे पास बहुत सारे साक्ष्य मौजूद हैं जिनसे दिखाया जा सकता है कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जिसका चरित्र निजी सेना की तरह है और जो निश्चित रूप से नाजी आधारों पर आगे बढ़ रही है, यहां तक कि उसके संगठन की तकनीकों का पालन भी कर रही है.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) इस सबके बावजूद सरकार नागरिक स्वतंत्रता जैसे विचार को कमजोर नहीं करना चाहती थी. गांधी की हत्या के बावजूद सरकार दमनकारी नहीं होना चाहती थी. 29 जून, 1949 को नेहरू ने पटेल को लिखा था, ‘मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे प्रतिबंध और गिरफ्तारियां जितनी कम हों उतना ही अच्छा है.’ आरएसएस ने सरदार पटेल की शर्तों को स्वीकार कर लिया तो जुलाई, 1949 में इस पर प्रतिबंध हटा लिया गया. ये शर्तें थीं: आरएसएस एक लिखित और प्रकाशित संविधान स्वीकार करेगा. अपने को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा. राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं देगा. हिंसा और गोपनीयता का त्याग करेगा. भारतीय झंडा और संविधान के प्रति आस्था प्रकट करेगा और अपने को जनवादी आधारों पर संगठित करेगा. (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) जब प्रधानमंत्री सरदार पटेल का नारा लगा रहे हों और उनकी पार्टी के लोग ‘अखंड हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने’ की घोषणा कर रहे हों, तब यह याद रखना जरूरी हो जाता है कि सभी कांग्रेसी नेताओं की निगाह में स्वतंत्र भारत की तस्वीर एक समान थी. ‘वे सभी तीव्र सामाजिक और आर्थिक रूपांतरण तथा समाज और राजनीति के जनवादीकरण के प्रति पूर्णत: समर्पित थे. राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा दिए गए आधारभूत मूल्यों के प्रति उनकी एक मौलिक सहमति थी जिसके आधार पर स्वतंत्र भारत का निर्माण किया जाना था. नेहरू के साथ-साथ सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और सी राजगोपालाचारी भी जनवाद, नागरिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्र आर्थिक विकास, साम्राज्यवाद विरोध, सामाजिक सुधार और गरीबी उन्मूलन की नीतियों के प्रति उतने ही समर्पित थे. नेहरू का इन नेताओं के साथ असली मतभेद समाजवाद और समाज के वर्गीय विश्लेषण को लेकर था.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र) इतिहासकार बिपन चंद्र का निष्कर्ष है कि ‘इस संदर्भ और अतीत को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रशंसकों और आलोचकों दोनों द्वारा पटेल को गलत समझा गया और गलत प्रस्तुत किया गया है. जहां दक्षिणपंथियों ने उनका इस्तेमाल नेहरू के दृष्टिकोणों और नीतियों पर आक्रमण करने लिए किया है, वहीं वामपंथियों ने उन्हें एकदम खलनायक की तरह चरम दक्षिणपंथी के सांचे में दिखाया है. हालांकि, ये दोनों गलत हैं. महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू और अन्य नेता इस बात पर एकमत थे कि देश के विकास के लिए राष्ट्रीय आम सहमति का निर्माण आवश्यक था.’ क्या ऐसे सरदार पटेल को संघ और भाजपा के लोग अपना नायक बनाकर इस बात को पचा सकते हैं? क्या नरेंद्र मोदी सरदार पटेल को अपना नेता मानते हैं? यदि हां, तो फिर उन्हें पटेल की ‘धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता’ के प्रति निष्ठा दिखाते हुए कानून पर अमल करते हुए हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने का आह्वान करने वाले अपने सिरफिरे विधायक पर कार्रवाई करनी चाहिए. साथ ही देश का प्रमुख होने के नाते नरेंद्र मोदी को यह आश्वासन देना चाहिए कि नेहरू और पटेल की जोड़ी ने हमें जो लोकतांत्रिक भारत अता किया है, हम और हमारी पार्टी उसका गला नहीं घोंटेंगे. पिछले साल राजस्थान में एक क्रूरतम हत्या के आरोपी के पक्ष में कट्टर हिंदुओं का कोर्ट पर धावा बोलना यह संकेत है कि भारत का लोकतंत्र और इसकी लोकतांत्रिक विरासत खतरे में है। Post navigation आखिर किसने भेजा पुलिस विभाग की जमीन की पैमाइश बाबत बिना पदनाम और बिना मोहर वाला नोटिस क्या भाजपा में बेबस ‘राव राजा’ की हालत ‘कैद में बुलबुल’ जैसी ?