जब अंग्रेजों ने दिलीप कुमार साहब को जेल में डाल दिया।

महान हस्तियां यदा कदा ही जन्म लेती हैं।
 तेरा वजूद है, अब सिर्फ दास्ताँ के लिए।

अशोक कुमार कौशिक 

आज हिंदी फिल्मों की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति का अंतिम सितारा ( दिलीप -देवानंद -राजकपूर) भी अस्त हो गया l

दिलीप कुमार पिछले कुछ सालों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनकी याददाश्त भी चली गई थी। आपके जाने के साथ हिंदी सिनेमा के स्वर्णकाल  की आखिरी कड़ी भी अब स्मृति शेष रह जायेगी l

 दिलीप कुमार महज एक अभिनेता नहीं थे, वे अभिनय की वह परम्परा थे, जिसका अक्स मनोज कुमार से लेकर अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान  के अभिनय में दिखाई देता है l कई अभिनेताओं  ने संवाद अदायगी के लिए दिलीप साहब की नकल की l 

वे ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने  बताया कि किया कि बगैर सिर्फ चेहरे की भंगिमाओं, आंखों और कभी कभी  ख़ामोशी से भी अभिनय किया जा सकता है, जिसे सत्यजीत राय ने ‘द अल्टीमेट मेथड एक्टर’ की संज्ञा दी थी। 

जब तक हिंदी सिनेमा जिंदा है, प्रेम में वियोग की तड़पन  जिंदा है, आँखों में नयी दुनिया के सपने जिंदा हैं, दिलीप कुमार जिंदा रहेंगे। हकीकत में न सही, दास्ताँ ही सही.. और कुछ दास्ताँ हकीकत भी तो बनी रहती हैं । हमेशा के लिए।

दिलीप कुमार साहब इस फ़ानी दुनिया को रुखसत कह गए। उनकी अदाकारी का कोई सानी नहीं। उसकी तारीफ के लिए अल्फ़ाज़ कम पड़ जाएंगे। लाजवाब शख्सियत के मालिक दिलीप साहब के फिल्मी किस्सों को आपने बहुत सुना होगा लेकिन ये किस्सा शायद ही आपने सुना हो।

दिलीप साहब को अभिनय का बड़ा शौक था। बस मौके की तलाश थी। इस बीच एक बार उनका अपने पिता से झगड़ा हो गया। यह वह दौर था जब देश पर ब्रिटिश हुकूमत का राज था। साल 1940 में वह घर छोड़ बॉम्बे से पुणे आ गए। 

यहां एक कैफे के मालिक ने उनकी मदद की। उसने उन्हें कैंटीन के कॉन्ट्रेक्टर से मिलवाया। वह दिलीप साहब की फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने का कायल हो गया। उसने उन्हें आर्मी क्लब में एक स्टाल दे दिया। वे वहां सैंडविच बेचने लगे। इस दौरान देश में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी। दिलीप साहब ने भी एक दिन पुणे में भाषण दे दिया।

“आजादी के लिए भारत की लड़ाई एकदम जायज है और ब्रिटेनी शासक गलत हैं”। इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी किताब ‘दिलीप कुमार – द सब्सटांस एंड द शैडो’ में भी किया है।

अंग्रेजों के खिलाफ भाषण देने के लिए उन्हें येरवाड़ा जेल भेज दिया गया। जहां कई आंदोलनकारी बंद थे। वे बताते हैं कि तब सत्याग्रहियों को गांधीवाले कहा जाता था। दूसरे कैदियों के समर्थन में मैं भी भूख हड़ताल पर बैठ गया। 

खैर दूसरे दिन की सुबह उनके पहचान के एक मेजर ने उन्हें जेल से रिहा करवाने में मदद की। दिलीप साहब कहते हैं तब  ‘मैं भी गांधीवाला बन गया था’। इसके कुछ दिन के बाद ही दिलीप साहब का कैंटीन का कॉनट्रैक्ट खत्म हो गया। वे उस कैंटीन से 5000 कमा चुके थे। फिर वो वापस अपने घर बॉम्बे आ गए।

दिलीप कुमार साहब( मुहम्मद यूसुफ खान) भी इन्हीं लीजेंड्स में एक थे। आज 98 वर्ष की आयु में उनके निधन ने सारे सिनेमा के शौकीन लोगों को सदमे में डाल दिया है। हालांकि मैंने उनकी चंद फिल्में ही देखी हैं पर उन सभी में उनका अभिनय देख के उनके अभिनय की कायल हो गया।

उनकी सबसे खास बात उनका डायलॉग बोलने का एकदम नेचुरल अंदाज़ था। कोई ड्रामेबाजी नहीं,कोई चीखना चिल्लाना नहीं। सब कुछ बहुत स्वाभाविक उनके इसी नेचुरल डायलॉग बोलने और अभिनय करने के स्टाइल को अमिताभ बच्चन जी ने और फिर शाहरूख खान ने अपनाया,यह बात दोनों अपने इंटरव्यू में स्वीकार कर चुके हैं।

अभिनेताओं के प्रेरणास्रोत और जीवंत पाठशाला, सत्यजीत रे के शब्दों में ‘द अल्टीमेट मेथड एक्टर’, अभिनय के लिये सबसे ज्यादा आठ बार ‘फ़िल्मफ़ेअर अवार्डी, पद्मश्री, पद्म विभूषण दिलीप कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे। अभिनय के पर्याय दिलीप कुमार साहब को जन्मभूमि होने के कारण पाकिस्तान जब सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ दे सकती है, तो हिंदुस्तान में कला जगत में अपने कर्मों से अर्जित अभूतपूर्व ख्याति के लिये भारत सरकार ‘भारत रत्न’ क्यों नहीं दे सकती? 

98 साल के दिलीप कुमार को सांस लेने में दिक्कत के चलते 29 जून, 2021 को मुम्बई के हिंदुजा अस्पताल में भर्ती कराया गया था। आज सुबह 7.30 बजे उन्होंने आखिरी सांस ली। दिलीप कुमार के पारिवारिक मित्र फैजल फारुखी ने आज एक्टर के ट्विटर से उनके निधन की जानकारी दी। उन्होंने लिखा- ‘बहुत भारी दिल से ये कहना पड़ रहा है कि अब दिलीप साब हमारे बीच नहीं रहे।’

दिलीप कुमार का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान) में 11 दिसम्बर, 1922 को हुआ था। उनका नाम मुहम्मद युसुफ़ खान है। उनके पिता मुंबई आ बसे थे, जहाँ उन्होने हिन्दी फ़िल्मों में काम करना शुरू किया। उन्होने अपना नाम बदल कर दिलीप कुमार कर दिया ताकि उन्हे हिन्दी फ़िल्मो में ज्यादा पहचान और सफलता मिले। उनकी पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ थी, जो 1944 में आई। 1949 में बनी फ़िल्म ‘अंदाज़’ की सफलता ने उन्हे प्रसिद्धी दिलाई, इस फ़िल्म में उन्होने राज कपूर के साथ काम किया। ‘दिदार’ (1951) और ‘देवदास’ (1955) जैसी फ़िल्मो में दुखद भूमिकाओं के मशहूर होने के कारण उन्हे ट्रेजिडी किंग कहा गया। मुगले-ए-आज़म (1960) में उन्होने मुग़ल राजकुमार ‘जहांगीर’ की भूमिका निभाई। उन्होने 1961 में ‘गंगा जमुना’ फ़िल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। इसके बाद 1970, 1980 और 1990 के दशक में उन्होने कम फ़िल्मो में काम किया। इस समय की उनकी प्रमुख फ़िल्मे ‘विधाता’ (1982), ‘दुनिया’ (1984), ‘कर्मा’ (1986), ‘इज्जतदार’ (1990) और ‘सौदागर’ (1991). 1998 में बनी फ़िल्म ‘किला’ उनकी आखरी फ़िल्म थी। अपने अभिनय कैरियर में करीब 65 फिल्मों में उन्होंने काम किया। 

1954 में ‘दाग’, 1956 में ‘आज़ाद’, 1957 में ‘देवदास’, 1958 में ‘नया दौर’, 1961 में ‘कोहिनूर’, 1965 में ‘लीडर’, 1968 में ‘राम और श्याम’ और 1983 में ‘शक्ति’ के लिये ‘फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ का पुरस्कार उन्हें मिला। दिलीप कुमार को आठ फिल्मफेयर अर्वाड मिले। दिलीप कुमार को साल 1991 में ‘पद्म भूषण’ और 2015 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया। 1994 तें दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया। 2000 से 2006 तक वह राज्य सभा के सदस्य भी रहे। 1998 में वह पाकिस्तान के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से भी सम्मानित किए गए। 1980 में उन्हें सम्मानित करने के लिए ‘मुंबई का शेरिफ’ घोषित किया गया। 2014 में अभिनय के क्षेत्र में योगदान के लिये ”किशोर कुमार सम्मान’ उन्हें प्रदान किया गया। सत्यजीत रे दिलीप कुमार को ‘द अल्टीमेट मेथड एक्टर’ कहते थे। सबसे ज्यादा अवॉर्ड जीतने के लिए दिलीप कुमार का नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। इस महान अभिनय सम्राट को श्रद्धांजलि।

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