कांग्रेस हाइकमान की स्थिति सांप के मुंह में छछुंदर जैसी

भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। मुख्यमंत्री मनोहर लाल यह कहते नहीं थकते कि किसान आंदोलन किसानों का नहीं अपितु विपक्षी पार्टियों का है लेकिन हरियाणा में स्थिति ऐसी है कि विपक्ष अपने ही अंतद्र्वन्द्वों से नहीं सुलझ पा रहा।

वर्तमान में भूपेंद्र हुड्डा ने आर-पार की लड़ाई लडऩे का मन बना लिया लगता है। उनके समर्थन में 17 विधायक दिल्ली डेरा डाले हुए हैं। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने का समय मांगा है। इधर दूसरी ओर शैलजा समर्थक कह रहे हैं कि कांग्रेस 36 बिरादरी की पार्टी है, एक बिरादरी की नहीं। भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपना एकछत्र राज चलाना चाहते हैं। विधानसभा के अध्यक्ष भी वही और अब पुत्र को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। पहले ही कुमारी शैलजा के स्थान पर वह उसे राज्यसभा सदस्य बनवा चुके हैं। इससे पूर्व भी दलित समाज डॉ. अशोक तंवर को पार्टी छोडऩे पर मजबूर कर चुके हैं। अर्थात स्थिति यह है कि कांग्रेस में ही आमने-सामने का युद्ध छिड़ता नजर आ रहा है।

भूपेंद्र हुड्डा भजन लाल को दरकिनार कर मुख्यमंत्री बने थे और दस साल मुख्यमंत्री रहे। अब दस साल मुख्यमंत्री रहने के बाद गुरूर आना स्वाभाविक ही है। अब वह चाहते हैं कि हरियाणा में कांग्रेस में जो कुछ भी हो, उनकी मर्जी से हो लेकिन ऐसा संभव नहीं। कांग्रेस किसी एक व्यक्ति की पार्टी तो है नहीं। कहा जाता है कि पार्टी एक विचारधारा होती है और उसमें नियम-कानून, अनुशासन सब होता है।

भूपेंद्र हुड्डा की वजह से ही कांग्रेस के अनेक दिग्गज पार्टी छोड़ चुके हैं, जिनमें चौ. वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, चौ. धर्मबीर, रमेश कौशिक, पं. विनोद शर्मा, अशोक तंवर आदि-आदि शामिल हैं। इसी प्रकार बिना पार्टी छोड़े जनाधार वाले कई नेता घुटन महसूस कर रहे हैं, जिनमें कैप्टन अजय यादव, किरण चौधरी, कुलदीप बिश्नोई आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

2019 के चुनाव से पूर्व भी ऐसी बातें उठी थीं कि चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपनी पार्टी अलग बना लेंगे। जी-23 के नेताओं में भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा का नाम आता रहा है। वर्तमान में भी उनका जनाधार सीमित क्षेत्र तक ही दिखाई देता है। दक्षिणी हरियाणा में तो कहीं उनकी उपस्थिति भी दिखाई नहीं देती। 

वर्तमान परिस्थतियों में कांग्रेस हाइकमान को सोचना होगा कि किसी तरह भूपेंद्र सिंह हुड्डा की धमकियों के आगे नतमस्तक होना है या फिर राष्ट्रीय और सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते अपने सिद्धांतों और अनुशासन को कायम रखना है। चंद शब्दों में कहें तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा की मांग माननी है या इन्हें पार्टी से निष्काषित करना है, कड़ा फैसला लेना ही होगा।

अब स्थिति यह है कि जिस प्रकार पिछले दस साल में कांग्रेस कमजोर से कमजोर होती जा रही है, उसी सिलसिले को आगे बढ़ाना है, कांग्रेस को भूपेंद्र सिंह हुड्डा की बात मान या किसी प्रकार इनके पर काटने है। फैसला आलाकमान को करना है कि वर्तमान की राजनीति करनी है या भविष्य की।

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