●क्या था ओझा और पटेल का विवाद
●गुजरात का भजनलाल किसे कहा जाता है
●मेस के खाने ने सरकार को कैसे झुकाया
●क्यों बनी नव निर्माण युवक समिति
●जेपी नारायण का गुजरात कनेक्शन

अमित नेहरा

भारत में इमरजेंसी 25 जून 1975 की रात को घोषित की गई थी। देश को अगले दिन यानी 26 जून को इसका पता चला था। उसी दिन को ध्यान में रखकर तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के बॉर्डरों पर धरनारत किसानों ने 26 जून को काला दिवस मनाने की घोषणा की है।

हालांकि 25-26 जून 1975 की रात को इमरजेंसी अचानक घोषित कर दी गई लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसको लगाने के लिए परिस्थितियां उसी समय ही बनी हों। धारणा यह है कि इमरजेंसी इलाहाबाद हाईकोर्ट के 12 जून 1975 के उस फैसले का परिणाम थी जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया था। यह भी माना जाता है कि बिहार में जेपी नारायण के आंदोलन से इंदिरा गांधी घबरा गई थी और इसी दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण उन्हें इमरजेंसी लगाने का दमनात्मक कदम उठाना पड़ा।

लेकिन सच्चाई कुछ और ही है, इमरजेंसी लगाने का मूल कारण में गुजरात था और इसमें सबसे बड़ी कारक खुद इंदिरा गांधी ही थी। यह बिल्कुल वैसे ही था जिस तरह पंजाब में आतंकवाद की समस्या पैदा हुई थी। खैर, चर्चा का विषय इमरजेंसी का मूल कारण है अतः हम चर्चा को आतंकवाद की जगह इमरजेंसी के मूल कारण पर केंद्रित रखेंगे।

दरअसल, 12 नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को अनुशासनहीनता के आरोप में कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। इंदिरा गांधी ने बदले में प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस संगठन बनाया कांग्रेस (आर) रिक्विजिशनिस्ट और विरोधियों की कांग्रेस का नाम पड़ा कांग्रेस (ओ) यानि ऑर्गनाइजेशन। इसके बाद बदली परिस्थितियों में 1971 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) रिक्विजिशनिस्ट पार्टी के बैनर तले लोकसभा के आम चुनाव लड़े। इन चुनावों में इंदिरा गांधी की पार्टी को कुल 518 में से 352 सीटों पर जीत मिली।

इस चुनाव में गुजरात के मशहूर नेता मीनू मसानी स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर राजकोट से चुनाव लड़ रहे थे उन्हें कांग्रेस (आर) के घनश्यामभाई ओझा ने बुरी तरह से धूल चटा दी। इंदिरा ने ओझा के कद देखते हुए उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उद्योग राज्यमंत्री बना दिया।

उधर, अगर गुजरात प्रदेश की बात की जाए तो वहाँ 1 अक्टूबर 1965 से 13 मई 1971 तक हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री रहे। फिर 13 मई 1971 से 17 अगस्त 1972 तक यहाँ राष्ट्रपति शासन लागू रहा। उसके बाद 1972 में चौथी विधानसभा के चुनाव हुए। कुल 168 सीटों में से कांग्रेस (आर) को 140, कांग्रेस (एस) को 16, जनसंघ को 3, साम्यवादी को 1 व अन्य को 8 सीटें मिलीं।

जाहिर है कि इंदिरा कांग्रेस को बम्पर जीत तो मिल गई लेकिन मुख्यमंत्री कौन बने इस पर पेंच फँस गया। आखिरकार 17 अगस्त 1972 को इंदिरा गांधी ने तमाम विरोधों को दरकिनार करके घनश्यामभाई ओझा को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया। बताया जाता है कि उस समय वहाँ मुख्यमंत्री पद के चार मुख्य दावेदार थे। ओझा मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन उनकी प्रदेश की राजनीति पर पकड़ बहुत ज्यादा नहीं थी। उन्हें एक तरह से पैराशूट से उतारा गया मुख्यमंत्री समझा गया। गुजरात में 21 दिसम्बर 1972 को प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ इसमें जिनाभाई दरजी को अध्यक्ष चुना गया। इस चुनाव के कारण यहाँ कांग्रेस में दो खेमे बन गए। जिसमें एक तरफ मुख्यमंत्री घनश्यामभाई ओझा थे तो दूसरी तरफ प्रदेश के उद्योग मंत्री चिमनभाई पटेल। चिमनभाई पटेल को एक तरह से गुजरात का भजनलाल कहा जा सकता है क्योंकि ये दोनों जोड़-तोड़ की राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते थे।

हालातों से तंग आकर घनश्यामभाई ओझा ने चिमनभाई पटेल को मंत्रिमंडल से निकाल दिया। लेकिन उनसे ये भारी चूक हो गई क्योंकि पटेल कांग्रेस के विधायकों पर अपनी मजबूत पकड़ बना चुके थे। इसके चलते 27 जून 1973 को 168 सीटों वाली विधानसभा में 69 विधायकों ने घनश्यामभाई ओझा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए। अल्पमत में आने के कारण ओझा को इस्तीफा देना पड़ा और 20 जुलाई 1973 को गुजरात के नए मुख्यमंत्री बने चिमनभाई पटेल। जाहिर है कि चिमनभाई पटेल, इंदिरा गांधी की पसन्द नहीं थे और उन्होंने इंदिरा द्वारा थोपे गए घनश्यामभाई ओझा को हटा दिया था। इस प्रकरण से इंदिरा गांधी, चिमनभाई पटेल से नाखुश थी।

लेकिन इसके कुछ दिन बाद गुजरात में ऐसी घटना हुई जो पूरे देश के हालात बदलने वाली थी। इस घटना ने ही देश में इमरजेंसी का मार्ग प्रशस्त किया।

हुआ यूँ कि 1973 के दिसम्बर महीने में अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई इंजीनियरिंग कॉलेज की हॉस्टल मेस में खाने के दाम 20 प्रतिशत बढ़ा दिए गए। खाना अचानक महंगा होने की वजह से छात्रों में गुस्सा भड़क गया और इसके खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। जल्दी ही गुजरात यूनिवर्सिटी में भी प्रदर्शन शुरू हो गए और वहाँ पुलिस और छात्रों के बीच झड़प हो गई। इस आंदोलन को धार देने के लिए 7 जनवरी 1974 को गुजरात के अनेक शिक्षण संस्थानों में छात्र आमरण अनशन पर बैठ गए। जल्द ही इस आंदोलन ने बहुत बड़ा रूप ले लिया। इसमें छात्र, वकील और मजदूर भी शामिल हो गए और एक संगठन बनाया गया जिसका नाम रखा गया ‘नव निर्माण युवक समिति’। अब आंदोलन की चपेट में पूरा गुजरात आ गया। गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले यानी 25 जनवरी 1974 को गुजरात के 33 शहरों में पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच खूब झड़पें हुईं। दोनों तरफ से पत्थरबाजी-लाठीचार्ज हुआ, पुलिस ने अश्रुगैस के गोले दागे। इन झड़पों में हजारों छात्र और सैकड़ों पुलिसवाले घायल हो गए। इसके चलते गुजरात के 44 शहरों में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया गया। अहमदाबाद में तो हालात इतने बिगड़ गए कि 28 जनवरी 1974 को वहां सेना बुलानी पड़ी। राज्य में चल रहे विरोध प्रदर्शनों को समर्थन देने के लिए विधायकों ने भी अपने इस्तीफे देने शुरू कर दिए। भारत में पहली बार ऐसा हुआ कि विपक्षी विधायकों के साथ-साथ सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों ने भी विधानसभा से इस्तीफे दे दिए। अंततः हालत बेकाबू होते देख तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल से 9 फरवरी 1974 को इस्तीफा ले लिया और गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। ये पूरा प्रकरण नव निर्माण युवक समिति संगठन की एक बड़ी जीत थी। इस पूरे घटनाक्रम की देशी और विदेशी मीडिया ने प्रमुखता से कवरेज की।

विधानसभा को निलंबित करने के बाद भी विधायकों का विरोध जारी रहा। कांग्रेस (ओ) के 15 और जनसंघ के तीन विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। आंदोलन के समर्थन में कुल 95 विधायक इस्तीफा दे चुके थे। इस आंदोलन का जनसंघ और मोरारजी देसाई खुलकर साथ दे रहे थे।

देश में सबसे बड़े सर्वोदयी नेता जय प्रकाश नारायण उर्फ जेपी ने भी इस आंदोलन को अपना समर्थन दे रखा था।

आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव आया 11 फरवरी 1974 को, इस दिन जेपी नारायण इस आंदोलन के चलते पहली बार गुजरात आए। गौरतलब है कि दिसंबर 1973 में जेपी ने यूथ फ़ॉर डेमोक्रेसी नामक एक संगठन बना लिया था और देशभर के युवाओं से अपील की थी कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएँ। जेपी गुजरात आकर छात्र नेताओं और विपक्षी दलों से मिले और यहाँ पूरे देश में सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की रूपरेखा तैयार की। उन्होंने गुजरात के नेताओं और जनता से मिलकर पता किया गया कि लोग असल में किन-किन समस्याओं से त्रस्त हैं और वो किन मुद्दों पर और कितना समर्थन दे सकते हैं।

गुजरात में पूरा होमवर्क करके जेपी ने 18 मार्च 1974 को पटना में छात्रों के विशाल आंदोलन का नेतृत्व किया। उस दिन बिहार विधानमंडल के सत्र की शुरुआत होने वाली थी। छात्रों ने राज्यपाल आर डी भंडारे की गाड़ी को विधानमंडल के रास्ते में रोक लिया। ऐसे में पुलिस ने छात्रों पर निर्ममतापूर्वक लाठियां बरसाईं मगर स्थिति काबू में नहीं आई, नतीजतन आंसूगैस और फायरिंग की गई और इस घटना में कई छात्र मारे गए।

जयप्रकाश नारायण ने 8 अप्रैल 1974 को इस घटना के विरोध में जुलूस निकाला, जिसमें सत्ता के खिलाफ आक्रोशित लाखों लोगों ने भाग लिया। जल्द ही जयप्रकाश नारायण का यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया और इससे इंदिरा गांधी को विरोध का इतना सामना करना पड़ा कि उन्हें हाथ से सत्ता फिसलती दिखाई देने लगी नतीजतन सालभर बाद ही देश को इमरजेंसी का सामना करना पड़ा। कहा जा सकता है कि ये आंदोलन शुरू तो हुआ गुजरात में लेकिन बाद में बिहार में फैला।

जाहिर है कि देश में इमरजेंसी लगवाने के श्रेय का अगर कोई असल हकदार है तो वह है गुजरात। वहाँ के छात्र आंदोलन और खासकर नव निर्माण युवक समिति ने जो माहौल तैयार किया उसकी चपेट में पूरा देश आ गया!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

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