आने वाले दिनों में देश में कई सियासी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। 
एलजेपी में बड़ी फूट पांच सांसदों ने चिराग के चाचा पशुपति पारस माना नेता, जेडीयू ज्वॉइन कर सकते हैं।
बिहार एनडीए टूट रहा है, नॉट ऐट ऑल।
पंजाब में अकाली हो ने थामा मायावती का साथ।
महाराष्ट्र में ममता का संदेश लेकर शरद पवार से मिले प्रशांत किशोर, भावी राजनीति की धुरी बनेगी ममता।
सचिन पायलट को यूपी में भुनाने की कांग्रेस की तैयारी।
संघ की लाख कोशिशों के बावजूद प्रधानमंत्री की कुनीतियों को ध्यान में रखकर भी जनता वोट करेगी।

अशोक कुमार कौशिक

 देश की राजनीति में धीमे धीमे उथल फुथल हो रही है। नए सियासी समीकरण बन रहे है। सबसे पहले बात की शुरुआत बिहार से करते है। लोक जनशक्ति पार्टी के पांच सांसदों ने पार्टी प्रमुख और सांसद चिराग पासवान के नेतृत्व से अलग होने का फैसला कर लिया है। यह एलजेपी में बड़ी फूट की तरफ अंदेशा लगाया जा रहा है।सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार, रामविलास पासवान के भाई और चिराग के चाचा पशुपति पारस लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय दल के नेता बनाए गए हैं। लोक सभा के स्पीकर ओम बिड़ला को पत्र लिखकर इसके बारे में सभी पांच सासंदों ने इसकी सूचना दी है। 

सूत्र बताते हैं कि इन पांच सांसदों ने लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला से मांग की है कि उन्हें एलजेपी से अलग मान्यता दी जाए। अगर ऐसा होता है तो इनका ये कदम चिराग के लिए बिहार की राजनीति में मुश्किल खड़ी करने वाला होगा। सूत्रों के मुताबिक, ये पांचों सांसद जेडीयू ज्वॉइन कर सकते हैं। बताया गया है कि ये सभी सांसद बिहार विधानसभा चुनाव के समय से चिराग पासवान से नाराज चल रहे थे। ऐसे में एलजेपी में इस फूट की अटकलें तो पहले से लगाई जा रही थीं, इंतजार तो बस उस वक्त का था जब ये सांसद ये बड़ा कदम उठाते, अब वो कदम उठा लिया गया है और एलजेपी के सामने बड़ा सियासी संकट खड़ा हो गया है।

बिहार एनडीए टूट रहा है, नॉट ऐट ऑल 

मुकेश साहनी के पास चार विधायक है, लेकिन केवल गिनती के है, उनपर किसी का मालिकाना हक नहीं, साहनी का भी नहीं। क्यों? गणित समझिए। विधानसभा चुनाव में भजापा ने साहनी की वीआईपी को ग्यारह सीटें दी, सात सीटों पर खुद के उम्मीदवार उतार दिए, उनमें से चार जीत कर गए, चार पर कैडर के उम्मीदवार लड़े, चारों हार गए, मुकेश साहनी भी हारे, रिचार्ज कूपन की तरह इस्तेमाल किए गए।

मांझी का अलग मांजरा है, जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री थे, अपने छोटे से कार्यकाल में कई बड़े फैसले लिए, बड़ी लकीर खींचने का प्रयास किया, शोषितों का दिल जीता, एक फैसले ने सभी लड़कियों को एमए तक मुफ्त शिक्षा का अधिकार दे दिया, इतिहास उन्हें याद करेगा लेकिन ये भी सर्वविदित है कि उन्हें मुखिया किसने बनाया और इसका अंदाजा मांझी को भी है।

अब बगावत की सुगबुगाहट पर आइए। मांझी अपनी ही गठबंधन की सरकार के खिलाफ बोल रहे है लेकिन नीतीश के खिलाफ नहीं, केवल भाजपा के खिलाफ बोल रहे है। दरअसल भाजपा के खिलाफ लड़ाई में नीतीश का सबसे बड़ा हथियार मांझी है, क्योंकि सारी हवाबाजी के पीछे केवल नीतीश कुमार है।

बगावत की वजह नॉर्मल है, विधासनभा में जदयू के पास आंकड़े कम थे, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल के चापलूस विधायक और सांसद लगातर उनके खिलाफ माहौल बनाते रहे, केंद्र सरकार में हिस्सेदारी नहीं दी गई, सुशील मोदी को हटा दिया गया। मजबूरन उन्हें उपेन्द्र कुशवाहा को जोड़ना पड़ा, समीकरण मजबूत हुआ तो मांझी के हांथ में तीर थमा दी गई, अंतरी के दांत से चिराग को भी काट दिया गया।

अब सरकार में नीतीश फिर से हावी है, सबकुछ उनकी मर्जी से चलता रहा तो गठबंधन नहीं टूटेगा, तभी टूटेगा जब उनको दिक्कत दी जाएगी। दिक्कत होगी तो बगावत भी तेज़ होगा। 

बीते नतीजों को देखते हुए नीतीश डायरेक्ट राजद के पास नहीं जाएंगे, चले भी जाएं तो तेजस्वी को अपना उत्तराधिकारी नहीं बना सकते और तेजस्वी का रवैया बताता है, वो नीतीश के नाम पर दोबारा संतोष नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति में सत्ता के नए प्रयोग के लिए तैयार रहिए, सबकुछ ठीक नहीं रहा तो जीतन राम मांझी नीतीश और तेजस्वी के समर्थन से दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकते है।

महाराष्ट्र में गठबंधन बदल सकता है शिवसेना-भाजपा की गलबहियों की खबर है। पीएम मोदी से उद्धव ठाकरे की मुलाकात के बाद शिवसेना और एनसीपी के सुर बदल गये हैं। वैसे भी शिवसेना का मूल चरित्र हिंदुत्व और क्षेत्रीय अस्मिता पर आधारित है। जो इस गठबंधन में भ्रम की स्थिति में है यह भविष्य के चुनाव में उसे नुकसान कर सकता है। इस घटनाक्रम के बाद बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विशेष संदेशवाहक प्रशांत किशोर महाराष्ट्र की राजनीति के छात्र एवं देश की राजनीति के धुरंधर शरद पवार से शनिवार को मिले। शरद पवार ठाकरे आपस में रिश्तेदार हैं। 

यूपी में भी कुछ बडा़ हो सकता है  वहां मंत्री परिषद में विस्तार और सोशल इंजीनियरिंग का खाका तैयार किया गया है। यूपी में अब सब कुछ केंद्र के ईशारे पर होगा। योगी के एकल असीमित ताकत के पर कतरे जायेंगे। जितिन प्रसाद के रूप में ब्राह्मण चेहरा शामिल कराया गया है तो वही केंद्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार में अनुप्रिया पटेल को शामिल किया जायगा। जिससे रूठे पिछडे़ वर्ग को मनाया जा सके। 

कांग्रेस नित पंजाब सरकार की ओवरहालिंग की जायगी वहां भी मंत्रीमंडल में बडे़ बदलाव के संकेत हैं। सिद्धू, सुनील जाखड़ और सीएम अमरिंदर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरा मामला हाईकमान के पास जा चुका है। पंजाब में एक दूसरा सियासी समीकरण बना है अकाली दल ने अब मायावती का दामन थाम कर गठबंधन कर लिया है यानी अकाली दल भाजपा से अब दूर हो गया।

राजस्थान सरकार में जेनरेशन गैप हावी है, अशोक गहलोत और सचिन पायलट गुट फिर आमने सामने हैं उनका कहना है सचिन से किये गये वायदे पूरे होने चाहिए। भाजपा वहां थोड़ी सी चूक होने पर मौके की तलाश में है। 

राजनीति संभावना का खेल है ऐसे में जितिन प्रसाद के जाने और सचिन पायलट को हाईकमान द्वारा दिल्ली बुलाए जाने पर कांग्रेस के राजनीतिक हलकों में भारीउथल पुथल है। ऐसे में कुछ नई संभावना जन्म ले रही हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया पहले यूपी के प्रभारी बनाए गए थे। प्रियंका के साथ परंतु मध्य प्रदेश की राजनीति का मोह वो नहीं छोड़ पाए और उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरणों में भी अनफिट रहे। ऐसे में ऐसे में लगता हैसचिन पायलट को भी बड़ी जिम्मेवारी दी जा सकती है।

और जहां तक यूपी का सवाल है सचिन मूलत यूपी के हैं और उनकी गुर्जर बिरादरी ओबीसी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है गुर्जर और जाटों में एक जातिगत सामान जस भी है। यही कारण था कि उनके पिता राजेश पायलट दोसा और भरतपुर जैसी गुर्जर और जाट बाहुल्य सीटों से चुनाव जीते। यही नहीं सचिन ने भी जब अजमेर में चुनाव लड़ा तो वहां भी गुर्जर व जाट बाहुल्य था। सचिन की पत्नी सारा पायलट है जो कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की बेटी ऐसे में मुसलमान वोटरों से मैं भी उनके प्रति एक लगाव है।

 उत्तर प्रदेश में इस समय कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है वहां एक ऐसे नेता की आवश्यकता है जो यूपी के बिखरते कांग्रेसी परिवेश को एक नेतृत्व दे सके जिसके पास एक चमकदार व्यक्तित्व हो और ज युवाओं को आकर्षित भी कर सकें सचिन इन मापदंडों में भी खरा उतरते हैं साथ ही सचिन को चेहरा बनाने से भाजपा का परंपरागत गुर्जर वोट कांग्रेस की तरफ मुड़ सकता है। सहारनपुर नोएडा और कई क्षेत्रों में इसका असर भी है। साथ ही यादव के अलावा अन्य ओबीसी के लिए भी सचिन पायलट प्रयोग के तौर पर एक नई कवायद हो सकते हैं। 

कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में भी राजस्थान में अशोक गहलोत की स्वीकार्यता व संगठन शक्ति सचिन के ऊपर प्राथमिकता रखती है ऐसे में राजस्थान में चल रही महत्वाकांक्षा की लड़ाई भी समाप्त हो सकती है और सचिन को संगठन में एक बड़ी पोस्ट से नवाज कर उत्तर प्रदेश की जिम्मेवारी दी जा सकती है और यूपी में सचिन को एक नए प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर प्रियंका गांधी अपने ऊपर लगे वंशवादी राजनीति के आरोपों को भी खारिज कर सकती है। यो भी सचिन के प्रति राहुल व प्रियंका का एक सॉफ्ट कॉर्नर है। ऐसे में सचिन के साथ प्रियंका का सामंजस्य मिल सकता है। सचिन को संगठन व सत्ता का दोनों का अनुभव है। वह एक चुनौती के रूप में यदि उत्तर प्रदेश में जमीन तैयार कर पाए तो न सिर्फ यह उन के लिए राहत का सबब होगा वरन सचिन के लिए भी एक उम्दा अवसर स्वयम को साबित करने का। सचिन एक शानदार  वक्ता भी है व चुनावी चौसर मे पारंगत भी।

कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार अपनी आत्मनिर्भरता खो रही है। सीएम येदुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर इस्तीफा देने की भी बात कही है। विधायकों की बड़ी नाराजगी सीएम के खिलाफ खड़ी हुई है। किसी सीडी का मामला भी सिर चढ़ कर बोल रहा है।

यूपी के साथ साथ मध्य प्रदेश में भी सियासी बवाल है पर वो यूपी जैसा गरम नहीं है। मोदी-शाह खुद के लिए भविष्य में मिलने वाली किसी भी चुनौती को स्थिर नहीं रखना चाहते। शिवराज सिंह चौहान लम्बे समय से मुख्यमंत्री हैं और खासे लोकप्रिय भी हैं। वो भविष्य में दिल्ली की गद्दी के लिए भी जोर आजमाइश कर सकते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अपने नये सियासी कद से संतुष्ट नहीं हैं। 

मोदी-शाह की सभी रणनीतियां केवल एक राज्य बंगाल में चारो खाने चित्त हो गयी है। वहां उनका कोई भी दांव काम नहीं कर रहा है। अच्छे प्रदर्शन के बावजूद वो बैकफुट पर है और अपनी ताकत को बचाये रखने की जद्दोजहद में हैं। ममता बनर्जी ने उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब दे कर इस सियासी लडा़ई को बेहद रोचक बना दिया है।

उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के लिए इस बार भी भाजपा में अजीब सी बेचैनी है।दिल्ली से लेकर लखनऊ तक और संघ से लेकर केंद्रीय नेतृत्व तक अब आत्ममंथन के मूड में दिख रहा है। सभी भयभीत हैं कि कहीं वे इस महत्वपूर्ण चुनाव को हार न जाएं। 2024 के लोकसभा चुनाव की भी चिंता अभी से शुरू हो गई है। जिसके तहत संघ यह सुझाव दे रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के चेहरे का इस्तेमाल नहीं किया जाए या कम सामने लाया जाए। इस तरह का फ़ैसला पश्चिम बंगाल में हए  विधानसभा के चुनाव को ध्यान में रखकर तो किया ही गया है। उत्तर प्रदेश में हार की संभावना के पूर्वाभास की वजह से भी किया गया है। गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात के बाद सबकुछ पटरी पर दिख तो रहा है लेकिन मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर अभी तक कोई स्पष्टता नज़र नहीं आ रही है।
यह सबको पता है कि किसान आन्दोलन,बेरोज़गारी और कोविड कुप्रबंधन का असर चुनाव पर रहेगा इसीलिए यह आशंका और बढ़ गई है कि भाजपा सांप्रदायिकता का खेल न खेले। वैसे नई जानकारी बताती है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के टुकड़े करने का मन बना लिया है पूर्वांचल, हरित प्रदेश, अवध प्रदेश के बनाने की चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया है। 

विधानसभा चुनाव से पहले जैसे सरेआम अलग-अलग जातियों को साधने की कोशिश की जा रही है उससे तो यही लग रहा है कि भाजपा का हिंदुत्व फेल हो चुका है।पंचायत चुनावों के परिणाम इस ओर साफ़तौर पर संकेत दे चुके हैं कि भाजपा ने जो गैर यादव और गैर जाटव का कुनबा जोड़ा था वह बिखर गया है।

पिछड़ी जातियों को और गैर ठाकुर सवर्णों को ख़ासकर ब्राह्मणों को उत्तर प्रदेश में नज़रंदाज़ किया गया जिसकी वज़ह से तमाम विधायक असंतुष्ट थे। फेक एनकाउंटर अपने आप में बुरी चीज है लेकिन इसमें भी जाति और धर्म देखकर फैसले लिए गए। बगैर प्रतिक्रिया की चिंता किए एक वर्ग इस तरह के एनकाउंटर को  एन्जॉय करता रहा जैसे हमेशा के लिए सत्ता उसके हाथ में आ गई हो। भाजपा को यह सोचने का मौका ही नहीं मिला कि इससे समाज में किस तरह का असंतोष फैलेगा।

जितिन प्रसाद का भाजपा में शामिल होना ब्राह्मणों को शांत करने के लिए जवाबी कदम के रूप में देखा जा रहा है.क्या ब्राह्मण या भूमिहार जाति इतनी भोली-भाली है कि वह पूर्व नौकरशाह एके शर्मा और पूर्व कांग्रेसी जितिन प्रसाद की वजह से संतुष्ट हो जाएगी? मेरा मत है कि अंदरखाने में बिखराव है फिर भी वोटर को दिखाने-लुभाने के लिए यह सब किया जा रहा है.इन लोगों का प्रभाव व्यापक जनता पर नहीं पड़ेगा।
आपको याद होगा कि 2017 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नोटबंदी की गई थी। जनता बैंकों के सामने लाईन में अपनी बारी का इंतजार कर रही थी और भाजपा नेताओं की गाड़ियों से 2000₹ के नये नोट के बंडल पकड़े जा रहे थे। लाइन में लगे-लगे कुछ लोग मर गए। अस्पतालों में समय से भुगतान न कर पाने की वजह से भी कुछ लोगों की जान चली गई। नोटबंदी इसलिए की गई थी ताकि विपक्ष के पैसे को पानी बनाया जा सके। लेकिन आपसे कहा गया कि काला धन आएगा।नक्सलियों की कमर टूट जाएगी।फिर डिजिटल पेमेंट की बात कर आपके गुस्से को शांत कर दिया गया। 

आज अर्थव्यवस्था की जो हालत है उसके पीछे कोविड महामारी का हाथ तो है ही नोटबंदी का सबसे बड़ा हाथ है। नोटबंदी का असर पिछले विधानसभा चुनाव पर कुछ यूँ पड़ा कि अखिलेश यादव और मायावती चुनाव से पहले ही मैदान से बाहर कर दिए गए और मोदी लहर पर सवार होकर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए, लेकिन सत्ता में आने के बाद ऐसा उन्होंने कुछ नहीं किया जिसकी सराहना की जा सके। वे सिर्फ़ मोदी की तारीफ़ को ही अपना परम कर्त्तव्य समझते रहे। काम के नाम पर केवल नाम बदला गया और धार्मिक आयोजनों में जनता के टैक्स का पैसा उड़ाया गया। राष्ट्रीय रोजगार पकौड़ा तलना तो था ही इसलिए रोजगार के लिए अलग से सोचने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गई। 

मुसलमानों और दलितों का इस सरकार में दमन बढ़ा है। मोब लिंचिंग और बलात्कार जैसी घटनाओं पर चुप्पी या मौन समर्थन से भी जनता आक्रोशित है। इस महामारी में अधिकांश लोगों को यह अहसास हुआ है कि लचर स्वास्थ्य व्यवस्था और कुप्रबंधन की वजह से ही गंगा में लाशें तैरती दिखीं और रेत में हजारों लोगों को दफनाना पड़ा। सैकड़ों शव रास्तों के किनारे पड़े रहे। उन्हें चिता के लिए जगह मिलने और अपनी बारी आने का इन्तज़ार था। गिद्ध और कुत्तों ने लाशों को नोंचा। मृत्यु के बाद भी देह का अपमान हुआ।

इस बार के चुनाव में संघ की लाख कोशिशों के बावजूद प्रधानमंत्री की कुनीतियों को ध्यान में रखकर भी जनता वोट करेगी। अगर उन्हें यह ग़लतफ़हमी है कि वे योगी आदित्यनाथ पर हार की जिम्मेदारी डालकर खुद को लोकसभा के लिए बचा लेंगे तो यह उनका भ्रम है।

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