राजनीति का धर्म हो लेकिन धर्म की राजनीति न हो ।
यह लोगों के राजनीतिक जागरूकता से ही संभव है ।

अशोक कुमार कौशिक 

जब देश में संकट हो। आम अवाम चौतरफा परेशान हो । चारो तरफ हाहाकार मचा हो। और संवैधानिक राष्ट्र प्रमुख चुप्पी साधे रहे तो ऐसे राष्ट्रप्रमुख होने के मायने क्या हैं ? जब बोलने तक का अधिकार नहीं है तो आखिर वह किसलिए हैं ? उनकी भूमिका क्या है ? ऐसे पद की सार्थकता क्या है ?

देश में सालों भर किसी न किसी गलत कानून को लेकर जनता सड़कों पर मर रही हो और सत्ता साजिशन आपराधिक अवहेलना करती रहे तो तथाकथित संविधान संरक्षक सुप्रीम कोर्ट का मतलब क्या है ? क्या स्वतः संज्ञान की शक्ति जजों का मनमानापन है या इसके कुछ नीति सिद्धांत भी हैं ? जब संविधान की आत्मा को छिन्न भिन्न किया जा रहा है तो तथाकथित संविधान संरक्षक कर क्या रहा है ?

प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री इत्यादि अपने सरकारी सुविधा और संसाधनों से लैश होकर महीनों पार्टी स्तर पर चुनाव प्रचार में व्यस्त हों तो ऐसे में चुनाव आयोग का महत्व ही क्या है ? क्या संवैधानिक पद पर रहते सरकारी संसाधनों और सुरक्षा व्यवस्था का उपयोग करते हुये पार्टी स्तर पर चुनाव प्रचार करना भ्रष्ट आचरण नहीं है ? यह सब चुनाव आयोग क्यों नहीं दिखता है ? आखिर सालों भर लोकतांत्रिक सुचिता और जागरूकता के लिए चुनाव आयोग करता क्या है ? स्वस्थ लोकतांत्रिक जागरूकता किसकी जिम्मेदारी है ?

ऐसे में राजनीति के पतन और भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा को देखते हुये नई तरह की राजनीति के लिए मेरा सुझाव है कि देश में सभी बड़े फैसलों के लिए जनमत संग्रह और जनसर्वेक्षण को अनिवार्य किया जाये । इसके लिए एक स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं ईमानदार व्यवस्था बने जिसमें सभी प्रमुख लोकतांत्रिक अंगों को शामिल किया जाये ।

इसके अलावे प्रत्येक सत्ता का दस वर्षों तक सत्ता के समीक्षा का नियम बने और यदि सत्ताधारी दलों के फैसलों से देश का नुकसान हुआ हो तो उसकी क्षतिपूर्ति उन्हीं दलों से वसूल किया जाये । साथ में यह भी नियम बने कि जिस स्थिति से सत्ता परिवर्तित हो, उस स्थिति से देश की साख या व्यवस्था का ह्रास हो तो सत्ताधारी को सूद समेत मुआवजा देना होगा । 

लोग उत्तरप्रदेश में ही नही, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड में भी मर रहे है। और हम बायस्ड लोग वहां के मुख्यमंत्री को कुछ नही बोलते। मैं बताता हूँ क्यों नही बोलते.. 

आयात निर्यात की नीति, केंद्र बनाता है। राज्य नही। दवा , वैक्सीन का कृत्रिम अभाव, निर्यातलिप्सा की वजह से बना है। (अदार पूनावाला ने लन्दन में प्रोपर्टी खरीद ली। क्यों, इसलिए कि विदेश का पैसा विदेश में ठिकाने लगाना था। निर्यात की अनुमति न मिलती तब??? तब पूनावाला इलेक्टरल बांड नही खरीद पाते।) 

इसी वैक्सीन माफिया के फायदे के लिए ये कोविशील्ड की अनुमति लटकाए हुए थे। मगर पिछली बार जब मामले बढ़े, तो मजबूरी में उसे अनुमति दी। कम्पटीशन खड़ा हो गया। अब तीसरा कॉम्पटीशन नही चाहिए था। इसलिए विदेश में धड़ल्ले से बन बिक यूज हो रही स्पुतनिक वगेरह को लोकल ट्रायल की शर्त रख दी। याने छह आठ महीने लटकाने का प्लान था। राहुल के पत्र के बाद इसे भी मजबूरी में अनुमत करना पड़ा। याने पूरे वक्त ये दवाओं का कृत्रिम अभाव पैदा करते रहे।

पीएम केयर के नाम पर हर कम्पनी का सीएसआर का पैसा अपने पास खींच लिया। क्या किया उसका? ठेके दिये अनाम-गैर अनुभवी कम्पनी को। वक्त पर सप्लाई नही मिली। हस्पताल दवाओं, इक्विपमेंट की कमी से जूझ रहे हैं। 

दवा नही, तो मरीज का जल्दी सुधार नही। दो दिन की जगह पांच दिन बेड ऑक्युपाई कर रहा है। जाहिर है जगह की कमी होगी। अब आप दीजिये स्टेट को दोष। क्योकि हेल्थ तो स्टेट का मसला है। 

और ये महानखोर आ जाते है हमे बताने की हम बायस्ड हैं। कांग्रेसी दल्ले है, पक्षपात करते हैं। इन दो रुपये वाले ट्रोल बने महानखोरों के हिस्से में भी आपके घर परिवार की लाशें है। खोजिये और सीधे जूता निकालिये। मृतक की आत्मा की शांति तर्पण से नही, इनके सर पड़े जूतों से ही होगी। समझ लीजिए।

वर्तमान परिवेश को देखते हुये देशहित में नई तरह की राजनीति की परम आवश्यकता है । अब देश के भविष्य को मात्र कुछ राजनीतिक दल और नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है । लगभग सारे दल और नेता आजमाये जा चुके हैं । ऐसे में नई तरह की राजनीति ही उम्मीद हो सकती है । ऐसी राजनीति जिसका जनसरोकार ही धर्म हो । अब तो यह कहा जा सकता है कि राजनीति का धर्म हो लेकिन धर्म की राजनीति न हो और यह आम लोगों के राजनीतिक जागरूकता से ही संभव है ।

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