● असली राष्ट्रवादी और स्पष्टवादी नेता
● जाति-पाति और मजहब की दीवारें तोड़ने वाला जननेता
●कृषकों का असली एडवोकेट
●उसूलों की खातिर पदों को तिलांजलि देने वाला एक राजनीतिक संत

-अमित नेहरा

दिसम्बर 1984 का महीना
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद देश में लोकसभा चुनाव हो रहे थे। हरियाणा में कांग्रेस (आई) के खिलाफ दलित मजदूर किसान पार्टी (दमकिपा) और जगजीवन राम की कांग्रेस (बी) साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। इसके चलते रोहतक लोकसभा क्षेत्र से दमकिपा और कांग्रेस (बी) के सांझा उम्मीदवार डॉ. स्वरूप सिंह मैदान में थे। स्वरूप सिंह के पक्ष में प्रचार करने के लिए दमकिपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और भारत के प्रधानमंत्री रह चुके चौधरी चरणसिंह रोहतक आ गए। वहाँ एक रैली के बाद चौधरी चरणसिंह ने पत्रकार वार्ता में एक सवाल के जवाब में कह दिया कि जिन राजनीतिक पार्टियों का गठन धर्म के आधार पर हुआ है, उन पर बैन होना चाहिए। महत्वपूर्ण बात यह थी कि उस समय दमकिपा और अकाली दल में समझौता था। अकाली दल की तो पहचान ही एक धर्म विशेष पार्टी की थी। ऐसे में पत्रकारों ने चरणसिंह से पूछ लिया कि इस विषय में अकाली दल के बारे में आपका क्या कहना है ? तो चौधरी चरणसिंह ने कहा “इन्क्लूडिंग अकाली दल” यानी अकाली दल के प्रति भी मेरी यही राय है। उनका यह बयान सभी प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। इस बयान से हरियाणा की राजनीति खासकर दमकिपा की प्रदेश इकाई में हड़कंप मच गया। क्योंकि अकाली दल का अम्बाला, कुरुक्षेत्र, करनाल और सिरसा लोकसभा क्षेत्रों में काफी प्रभाव था। ऐसे में चौधरी चरणसिंह का यह बयान आत्मघाती साबित हो सकता था। यह खबर छपते ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और दमकिपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चौधरी देवीलाल तुरंत रोहतक पहुँचे और चुनाव लड़ रहे डॉ. स्वरूप सिंह को एक कमेटी के साथ चौधरी चरणसिंह के पास भेज दिया। इस कमेटी को कहा गया कि किसी भी तरह चौधरी चरणसिंह को समझा-बुझा कर इस बयान को वापिस करवाओ या इसका खण्डन करवाओ।

यह कमेटी चौधरी चरणसिंह से मिली, उन्हें इस बयान की घातकता के बारे में समझाया और कहा कि इसके चलते हम हरियाणा में लोकसभा की कई सीटें हार सकते हैं। कमेटी की सारी बातें सुनकर चौधरी चरणसिंह ने कहा “तुम चाहे सारी सीटें हार जाओ, मेरे लिए देश बड़ा है तुम्हारी सीटें नहीं!”

ये होता है असली राष्ट्रवाद!

चौधरी चरणसिंह की यह सोच और खूबी ही उन्हें बाकी राजनेताओं से अलग करती है। वर्तमान में जिस तरह देश में छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीति हो रही है। ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना तो हमारे संविधान निर्माताओं ने तो नहीं की थी। केवल झंडा लहराना और देशभक्ति के नारे लगाना ही राष्ट्रवाद नहीं होता उसके लिए मनसा-वाचा-कर्मणा तीनों आवश्यक हैं।

आज उस महान राष्ट्रवादी नेता चौधरी चरणसिंह की पुण्यतिथि है। चौधरी चरणसिंह का पूरा राजनीतिक जीवन इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है जिसमें उन्होंने जाति-पाति और धर्मांधता को ठोकर मारकर अपना राजनीतिक नुकसान तो मंजूर कर लिया पर समाज में कभी जहर नहीं फैलाया। अगर चौधरी चरणसिंह को पता लग जाता कि उनकी पार्टी के किसी नेता या कार्यकर्ता ने जाति-पाति या धर्मान्धता करने का दुस्साहस किया है तो वे उसे बाहर निकालने में क्षण भर की भी देरी नहीं करते थे। इसके चलते उन्हें हर जाति और हर मजहब के लोगों का अथाह प्यार और समर्थन मिला। यही वजह रही कि वे 1971 के मुज्जफरनगर लोकसभा चुनाव को छोड़कर 1936 के अपने पहले चुनाव से लेकर पूरी उम्र कोई चुनाव नहीं हारे। चौधरी चरणसिंह भारत के निर्विवाद रूप से बहुत बड़े नेता थे।

अगर एक लाइन में पूछा जाए कि चौधरी चरणसिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है तो इसका जवाब है ‘पूरे किसान-कमेरे वर्ग में सामाजिक और राजनीतिक चेतना जाग्रत करना।’ यह उपलब्धि उनके प्रधानमंत्री बनने से भी बड़ी है। उन्होंने किसानों के छोटे-मोटे या तात्कालिक फायदे करने की बजाए उनके दीर्घकालिक फायदों के लिए जी-तोड़ मेहनत की। वे अक्सर किसानों को कहते थे कि तुम्हारी एक आँख हल की मूठ पर और दूसरी नजर दिल्ली पर होनी चाहिए। यहाँ दिल्ली का अर्थ है केन्द्र सरकार में किसानों का समुचित प्रतिनिधित्व होना। यानी किसान अपने बीच में से किसी किसान को संसद में भेजे हीं साथ ही उन्हें यह पता भी होना चाहिए कि केन्द्र सरकार उनके भले के लिए क्या सोच रही है और क्या कर रही है।

चौधरी चरणसिंह का जन्म उत्तरप्रदेश के मेरठ जिले के नूरपुर में मीरसिंह और नेत्रकौर के किसान परिवार में 23 दिसम्बर 1902 को हुआ था। चौधरी चरणसिंह अत्यंत मेधावी थे अतः उन्होंने बीएससी, एमए और एलएलबी करके 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरू कर दी। चरणसिंह किसानों की बेहद बुरी दशा को देखकर उनका जीवनस्तर ऊँचा उठाने के मकसद से राजनीति में कूद पड़े और कांग्रेस में शामिल हो गए। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि वे छपरौली (बागपत) विधानसभा क्षेत्र से वर्ष 1936, 1946, 1952, 1957, 1962, 1967, 1969 और 1974 तक लगातार 40 साल तक विधायक चुने गये। इसके बाद उन्होंने 1977 में बागपत लोकसभा क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत का ऐसा सिलसिला जारी हुआ कि वे अपने अन्तिम समय तक इसी क्षेत्र से सांसद चुने जाते रहे।

चौधरी चरणसिंह आर्यसमाजी थे और जीवन के शुरुआती दिनों में ही महात्मा गांधी के सम्पर्क में आ गए थे। वर्ष 1930 में नमक सत्याग्रह में उनको 6 महीने की जेल हुई। चौधरी चरणसिंह ने जेल में रहते हुए ‘मंडी बिल’ व ‘कर्जा कानून’ पुस्तकें लिखीं। बाहर आकर ‘भारत की गरीबी व उसका निराकरण’ नामक पुस्तक लिखी जो बहुत चर्चित हुई उनके इन्ही प्रयासों के चलते जमींदारी नाशन कानून बने। चरणसिंह तत्कालीन पंजाब के राजस्व व कृषि मन्त्री चौधरी सर छोटूराम के समकालीन थे, दोनों ने मिलकर अनेक महत्वपूर्ण कृषक हितैषी कानून बनवाने में सहयोग किया। इसी दौरान अक्तूबर 1940 में सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने पर चौधरी चरणसिंह को गिरफ्तार करके डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा और जुर्माना किया गया। उनका जेल जाने का सिलसिला थमा नहीं शीघ्र ही 8 अगस्त 1942 को अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें 2 वर्ष की सजा मिली। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

आजादी के बाद चौधरी चरणसिंह उत्तरप्रदेश सरकार में 1951 में सूचना तथा न्याय मन्त्री, 1952 में कृषि एवं राजस्व मन्त्री, 1959 में राजस्व एवं परिवहन मंत्री, 1960 में गृह तथा कृषि मंत्री, 1962 में कृषि तथा वन मन्त्री व 1966 में स्थानीय निकाय प्रभारी रहे।

इसके बाद चौधरी चरणसिंह का कांग्रेस की किसान विरोधी नीतियों और गतिविधियों के कारण कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने 1967 में कांग्रेस छोड़ दी। चौधरी चरणसिंह पहली बार 3 अप्रैल 1967 को उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री बने लेकिन राजनीतिक खींचातानी से परेशान और स्वाभिमानी होने कारण 17 फरवरी 1968 को इस्तीफा देकर उन्होंने प्रदेश में चुनावों की सिफारिश कर दी। मध्यावधि चुनाव के बाद 1970 में वे कांग्रेस पार्टी के समर्थन से उत्तरप्रदेश के दोबारा मुख्यमंत्री बने। लेकिन इस दौरान कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति द्वारा कथित तौर पर 12 वर्षीया एक नाबालिग हरिजन कन्या के साथ बलात्कार और कत्ल के केस को दबाने के लिए चौधरी चरणसिंह पर दबाव डाला गया। इस वीभत्स कांड ने चौधरी चरणसिंह को अंदर तक हिला डाला। दलित बच्ची के साथ हुई हैवानियत को दबाने की जगह उन्होंने मुख्यमंत्री पद को छोड़ना बेहतर समझा। ऐसे में अगस्त 1970 में चौधरी चरणसिंह ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री का पद एक बार फिर छोड़ दिया।

जून 1975 में लगे आपातकाल के दौरान अन्य विपक्षी नेताओं की तरह चौधरी चरणसिंह को भी जेल भेजा गया।

इसके बाद मार्च 1977 में देश में आम चुनाव हुए। इसमें जनता पार्टी को बहुमत मिला अतः चौधरी चरणसिंह 1977 से 1978 तक केन्द्र सरकार में गृहमंत्री, वित्तमंत्री और उपप्रधानमंत्री रहे। चौधरी चरणसिंह का राजनीतिक उत्कर्ष 28 जुलाई 1979 को आया इस दिन उन्होंने भारत के पांचवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन पूर्व की भांति वे अपने सिद्धांतों से फिर समझौता नहीं कर सके और राजनीतिक तिकड़मों को तिलांजलि देते हुए उन्होंने 20 अगस्त 1979 को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही संसद भंग होकर देश में मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो गई। इस दौरान चौधरी चरणसिंह 4 जनवरी 1980 को हुए लोकसभा चुनाव तक कार्यकारी प्रधानमन्त्री रहे।
चौधरी चरणसिंह एक कुशल राजनेता ही नहीं एक कुशल संगठनकर्ता भी थे। वर्ष 1967 में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर चौधरी चरणसिंह ने अपनी अलग राह पकड़ ली और जन कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली। अगले ही साल 1969 में उन्होंने जन कांग्रेस को भारतीय क्रांति दल में परिवर्तित कर दिया। इसके बाद 29 अगस्त 1974 को चौधरी चरणसिंह ने भारतीय क्रांति दल का नाम रखा लोकदल। आपातकाल के बाद समय की नजाकत के चलते सभी विपक्षी दलों को साथ लेकर चौधरी चरणसिंह ने 1977 में जनता पार्टी के गठन में मुख्य भूमिका निभाई। बाकी विपक्ष की तरह उन्होंने अपने लोकदल का विलय जनता पार्टी में कर दिया। जनता पार्टी में लोकदल का प्रभाव इससे समझा जा सकता है कि जनता पार्टी ने लोकदल के चुनाव चिन्ह को ही अपना चुनाव चिन्ह बनाया। वर्ष 1980 में फिर से लोकदल की स्थापना की गई। इसके बाद 1984 में चौधरी चरणसिंह ने लोकदल का नाम दलित मजदूर किसान पार्टी रख लिया लेकिन 1985 में दलित मजदूर किसान पार्टी का नाम फिर से लोकदल कर दिया गया।

इन सभी हलचलों के बाद दिसम्बर 1985 में चौधरी चरणसिंह पक्षाघात के शिकार हो गए। डॉक्टरों के काफी प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका और अंततः 29 मई 1987 को उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई और अंतिम संस्कार में जो जनसैलाब उमड़ा वो अभूतपूर्व था। करोड़ों लोगों ने अपना मसीहा खो दिया था। किसानों के प्रति उनके योगदान को देखते हुए नई दिल्ली में उनके समाधि स्थल को किसान घाट का नाम दिया गया।

अब चर्चा करते हैं कि चौधरी चरणसिंह की सबसे बड़ी उपलब्धियां क्या रहीं जिनके कारण वे भारतीयों के दिलों में गहरे रच-बस गए। सबसे पहले हमें समझना होगा कि चौधरी चरणसिंह एक अत्यंत मेधावी और बौद्धिक रूप से सम्पन्न राजनेता थे। वास्तव में वे किसानों के असली एडवोकेट थे यानी उन्होंने सरकार में रहकर किसानों के हित में ऐसे कानून बनवाये जिनके दीर्घकालिक परिणाम सामने आए। जिनसे किसानों की दशा और दिशा कुछ बेहतर हुई। आजादी से पहले संयुक्त पंजाब में सर छोटूराम ने भी बिल्कुल इसी तरह का काम किया था।

चौधरी चरणसिंह ने उत्तरप्रदेश में चकबंदी कराई और भूमिहीन काश्तकारों को जमीन का मालिकाना हक दिलाया। सोवियत मॉडल पर बड़े-बड़े खेत बनाकर खेती करने की जवाहरलाल नेहरू की योजना का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। इसके चलते नेहरू को यह विचार त्यागना पड़ा।

जाति-पाति की कुप्रथा को दूर करने के लिए चौधरी चरणसिंह ने जवाहरलाल नेहरू को सुझाव दिया था कि सरकारी नौकरियों केवल उन्हीं को दी जाएं जिन्होंने इंटरकास्ट मैरिज की हो। लेकिन नेहरू ने उनका यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। अगर उनकी यह बात मान ली गई होती तो अब तक देश में जाति-पाति खत्म हो चुकी होती। चौधरी चरणसिंह ने किसानों में जबरदस्त राजनीतिक जागृति पैदा की और वोटरों को अपने हकों के लिए बहुत जागरूक किया।

चौधरी चरणसिंह की एक और बड़ी खूबी थी कि वे व्यक्तिगत जीवन और राजनीतिक आचरण को अलग-अलग नहीं मानते थे। वे नैतिकता और शुचिता की प्रतिमूर्ति थे।

कांग्रेस से कैरियर शुरू करने के बाद वर्ष 1967 में चौधरी चरणसिंह ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया था। उनके राजनीतिक विरोधी कहते हैं कि कांग्रेस से अलग होकर भी उनका कांग्रेस से मोहभंग नहीं हुआ और उन्होंने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस पार्टी का समर्थन लिया। यह बात काफी हद तक तो ठीक है लेकिन चौधरी चरणसिंह ने अपनी शर्तों पर ही कांग्रेस का समर्थन लिया था। जब वो प्रधानमंत्री बने तो आपातकाल के दौरान हुए जुल्मों के चलते कांग्रेस सुप्रीमो इंदिरा गांधी पर अनेक मुकदमे चल रहे थे। इसके अलावा शाह कमीशन की भी इन्क्वायरी प्रगति पर थी। कांग्रेस ने समर्थन के बदले इन्हें रुकवाना चाहा लेकिन चौधरी चरणसिंह ने इसे मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। जब उन पर ज्यादा दबाव बनाने की कोशिश की गई तो उन्होंने प्रधानमंत्री की गद्दी को ही ठोकर मार दी। वे अगर चाहते तो कांग्रेस की मदद से प्रधानमंत्री के रूप में एक लंबा समय निकाल सकते थे मगर उन्होंने अपने उसूलों से जरा भी समझौता नहीं किया और पलक झपकते ही देश की सर्वोच्च सत्ता को तिलांजलि दे दी। काश इस नैतिकता का थोड़ा अंश भी हमारे वर्तमान राजनेताओं में होता!

चौधरी चरणसिंह वाकई एक राजनीतिक संत थे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं

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