व्यापारिक हित के लिए भ्रम फैलाना उचित नही।
मेडिकल विज्ञान और आयुर्वेद के ज्ञान को मिलाकर एक नई पद्दति को जन्म दे जिसमे न महंगी दवा हो न उसके असर । 

अशोक कुमार कौशिक

 ये लोग बांटने और तोड़ने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। सत्ता के लिए हिंदू बनाम मुस्लिम करते हैं और दुकान चलाने के लिए आयुर्वेद  बनाम एलोपैथी। 

लेकिन ये जर्मन नाज़ी गधे इस देश की आत्मा को नहीं पहचानते। ये भूल जाते हैं कि हम भारतीय किसी भी सिंगल चीज़ में विश्वास नहीं रखते। हम वो लोग हैं, जो एलोपैथिक इंजेक्शन लगवाने के बाद आयुर्वेद का रसायन भी खाते हैं,और होम्योपैथी की गोली भी। और इसके बाद किसी अच्छे हकीम की तलाश भी करते हैं।

हमारे यहां न तो कोई एक उपचार पद्धति चल सकती है, और न ही कोई एक रिलीजन। जब एलोपैथी काम ही नहीं करती। तो ये भोंदू अस्पताल अपने बाल रंगवाने गया था?

एलोपैथी v/s  आयुर्वेद और अन्य ।

तीन चार दिन से देख रहा हु आयुर्वेद और एलोपैथी में अहंकार की जंग छिड़ी है । रामदेव आप वही हो न जो लगभग 15-16 साल पहले लोगों के उंगलियों के नाख़ून आपस मे रगड़वा के गंजेपन का इलाज करते थे?  हर टीवी प्रोग्राम में ये योग बताया करते थे आप।  जब लोग करते हुए थक गए तो वो योग बताना छोड़ दिया आपने। मेरे एक मित्र दिन भर उंगली के नाखून रगड़ते रहते थे। वैसे रामदेव सिर्फ योगगुरू है उन्का आयुर्वेद से दूर दूर का कोई रिश्ता नही है फिर ये जंग क्यो ? 

मेरा मानना है कि जैसे भारत मे अनेको धर्म वास् करते है और सब अनेको भिन्नता जे बाद भी एक सूत्र में बंधे है तो फिर ये सेवा के कार्य मे अहम का टकराव क्यो ? 

आयुर्वेद का अपना इतिहास है हम तो धन्वन्तरी की पूजा भी धन तेरस को करते ही है और 90 के दशक तक तो दादी माँ के नुस्खे और निरोगधाम जैसी पत्रिकाओं को पढकर ही हम जीवन सुख से गुजारे है । जिसे ओपीडी कहते है वो तो हमारे बड़े बुज़ुर्ग घर मे ही ठीक कर देते थे , ये मेरा और आपका भी अनुभव रहा होगा ।

असल मे एलोपैथी बुरी नही है बुरी है उसकी व्यवसायिकता पहले एलोपेथी के डॉक्टर एक कम्पाउंडर रखते थे जो व्यक्ति को देखकर उसके हिसाब से कम्पाउंड बना कर दवा देता था जो की 90%वायरल और छोटी बीमारियो में मरीज को नाम मात्र पैसे में तुरन्त स्वस्थ कर देता था ।

जब से कम्पाउंडर की पोस्ट खत्म हुई और ये काम पैकेज्ड दवा कम्पनी ने ले लिया। तब से बीमारियां भी बड़ी और इम्युनिटी भी खत्म हुई , इस विनाश का कारण आज नही है इसकी नींव 3 दशक पहले रखी जा चुकी थी जब शुगर और रक्तचाप की बीमारी को आंकड़ो से नापा जाने लगा। बस व्यवसायीकरण तभी से शुरू हुआ और आज आप स्वयम देखे की पिछले 40 वर्षों में आपके शहर की जनसख्या कितनी बढ़ी और उस अनुपात में अस्पताल, दवा की दुकान कितनी बढ़ी ये सब इन पेकेजड दवा का प्रताप है ।

मेरा मानना है कि एलोपैथी में डायगोनेसिस अच्छा होता है और अधिकांश मामलों में आयुर्वेद की दवा सही रहती है , वैसे आपको बता दु की आयुर्वेद हो या एलोपैथी या होम्योपैथी तीनो में दवा के रूप में प्लांट का ही उपयोग होता है बस कोई फूल पत्ती का कोई जड़ो का और कोई तनों का इस्तेमाल करता है ।

जब हमारी दवा हर पद्धति में एक जैसे प्लांट से ही आती है तो क्यो न हम मेडिकल विज्ञान और आयुर्वेद के ज्ञान को मिलाकर एक नई पद्दति को जन्म दे जिसमे न महंगी दवा ही न उसके असर। देखा ये जा रहा है कि लोग एलोपैथी में भी लाखों खर्च कर बच नही पाते क्यो? कोई भी उन पर कोई  भी सवाल नही उठा  रहा कि इतने महंगे इंजेक्शन के बाद भी बीमारी कंट्रोल क्यो नही हुई ? 

और आयुर्वेद को बिना अपनाए उसे क्यो कमतर बताया जा रहा है ये सब एक व्यापार के तरीके है । सरकार को चाहिए कि तीनों पद्धति के विशेषज्ञों को बिठाकर एक नई पद्धति का निर्माण करे जिससे हम आने वाले सालो में एक नए स्वास्थ्य प्रणाली पर काम कर सके और विश्व को एक नई राह दे सके ।

 भारत के रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय के ताजा डेटा के मुताबिक 2014-18 में भारत के लोगों की औसत आयु 69.4 वर्ष हो गई है। जबकि 1970-75 के दौरान भारत के लोगों की औसत आयु महज 49.7 वर्ष ही थी जब कि आजादी के समय 1947 मे औसत आयु लगभग 35 वर्ष ही थी। निश्चित ही बेहतर  स्वास्थ्य सुविधाओं और टीकाकरण का इसने योगदान है।

एक बार टी वी पे बहस में रामदेव अपने बड़बोलेपन में कह रहे थे की आप तो कैंसर एड्स के भी इलाज कर चुके हो। जिस पे दूसरे पैनलिस्ट (शायद सीताराम येचुरी) ने कहा कि अच्छा हम एक ठो कैंसर का मरीज भेजेगा ये बताओ कितने टाइम में आप ठीक करेगा? जवाब में आप इधर उधर घूमाने लगे।

 आपको शर्म आनी चाहिये जो लोगों में भ्रांति फैला रहे हो। आयुर्वेद की भी अपनी उपयोगिता है लेकिन आप केवल अपने व्यापारिक हित के लिए जो भ्रम फैला रहे हो वो उचित नही है। एलोपैथी वैज्ञानिक पद्यति तथा प्रमाणिकता पे आधारित है। इसमें कहीं फ़र्ज़ी दावे नही किये जाते। सरकार को और प्रबुद्ध वर्ग को आगे आ के वैज्ञानिक सोच के साथ इस दुष्प्रचार का विरोध करना चाहिए और कानूनी कार्यवाही करनी चाहिये।

खुद से सवाल पूछ कर देख लो

यदि बुखार आये तो चिरायता का काढ़ा पियोगे या पैरासिटामोल लोगे ? ब्लड प्रेशर बढ़ जाने पर एलोपैथ की दवाइयाँ लोगे या आयुर्वेदिक गोलियां खाओगे ? हड्डी टूट जाने पर प्लास्टर करवाओगे या जड़ी बूटियों का लेप लगाओगे ? हार्ट अटैक आये, या ऐसी बीमारियां हों तो अस्पताल जाओगे या जंगल से जड़ी बूटी लेकर कूट कर खाओगे ? 

जवाब सबका एक ही होगा कि पहले एलोपथी उपचार करना होगा इसके बाद ही किसी दूसरे पद्धति से उपचार का सोचना होगा। आयुर्वेद, यूनानी या होमियोपैथी की दवाइयां लेकर भी लोग ठीक और स्वस्थ होने का दावा करते हैं लेकिन वे भी सबसे पहले एलोपैथ की तरफ ही भागते हैं। 

आयुर्वेद से विरोध नही है, आयुर्वेद का विरोध करना सही नही है।

अगर सर दर्द होगा तो आप पहले बाम ही लगाएंगे लेकिन राहत नही मिलने पर डिस्प्रिन लेंगे। अगर पेट मे गैस हो रही हो तो आप पहले काला नमक और अजवाइन का चूर्ण ही लेंगे लेकिन राहत नही मिलने पर एसिडिटी की टेबलेट या सिरप लेंगे।

यदि पैर में मोच आ गयी तो हम पहले झंडू बाम या मंकी बाम ही लगाएंगे लेकिन राहत न मिलने पर ही मूव लगाएंगे। यदि उलटी हो रही हो तब तुलसी का रस या इलायची पहले खाएंगे लेकिन राहत न हो तब वोमिट 4mg या अन्य टेबलेट लेंगे…

यदि नाक से खून ( नकसीर ) बार बार आ रहा हो तो पहले हम प्याज ही सूंघेंगे पर राहत नही मील रही हो तभी नासाल स्प्रे का उपयोग करेंगे। यदि शिशु का पेट दर्द कर रहा हो तो उसकी नाभी पर पहले हींग का पानी ही लगाएंगे लेकिन राहत नही मिल रही हो तभी हम उसे ग्राइप वाटर देंगे। यदि दांत में दर्द हो राह हो तो हम पहले लौंग ही खाएंगे लेकिन राहत नही मिले तब डेंटिस्ट के पास ही जाएंगे।

कहने का तातपर्य यह है कि कोई भी पद्दति चाहे आयुर्वेद हो या एलोपैथी बुरी नही होती बल्कि यह बीमारी की गम्भीरता और मरीज को मिलने वाली राहत पर निर्भर करता है की उसे क्या सूट करेगा , जैसे अगर किसी का हड्डी टूट जाये तो वह लेप नही लगाएगा बल्कि डॉक्टर के पास जा कर प्लास्टर ही करवाएगा , पर साथ में वह हड़जुड औषधी भी अवश्य लेगा ताकि हड्डी जल्दी जुड़ जाए। आज भी गांवों में लोग हड़जुड़ का दूध के साथ इस्तेमाल करते है।

वैसे ही हल्का पेट दर्द होने पर वो सीधे टेबलेट नही लेगा बल्कि हल्का फुल्का घरेलू उपचार कर लेगा और हो सकता है इसी से वो ठीक भी हो जाएं।

भारत के घर घर मे एक आयुर्वेद का डॉक्टर मौजूद है जिसे आप दादी या मां के रूप में देखेंगे ।

प्रसव के बाद महिलाएं जब अपनी सासु माँ द्वारा बनाये गए लड्डू खाती हैं वो होता है आयुर्वेद। छोटे बच्चों का पेटदर्द होने पर जब माँ उनकी नाभि पर हींग लगाती है वो होता है आयूर्वेद। सर्दी जुकाम होने पर माँ द्वारा पिलाया गया काढ़ा होता है आयुर्वेद। अदरक वाली चाय होती है आयुर्वेद। हल्दी वाला दूध होता है आयूर्वेद। लू से बचने के लिए जेब मे रखी गई प्याज होता है आयुर्वेद। 

घर मे यदि किसी को बुखार होता है तो दादी उसके सर पर ठंडे पानी की पट्टी रखवा देती है , यदि किसी को सर्दी हो तो दादी उसके लिए काली मिर्च का काढ़ा बना देती है यह सब दादी मां के नुस्खे है जो आयुर्वेद से ही आते है । क्या यह सब उन्हें बाबा रामदेव ने सिखाये थे ? बिंलकुल नही यह हमारे पूर्वजों की देन है जो हमे विरासत में मिली है और यह विरासत घर की स्त्रियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जिम्मेदारी के साथ अग्रेषित कर रही है।

आज जो बवाल बाबा रामदेव को लेकर हो रहा है उसमें विरोध आयुर्वेद का कहीं से कहीं तक नही है बल्कि बाबा के दिए बयान का है। एक चतुर व्यापारी अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए हमेशा दूसरे व्यापारी के प्रोडक्ट की बुराई जरूर करता है और यहाँ यही हो रहा है वैक्सीन के बदले कोरोनिल का प्रचार । देश मे पातंजलि के अलावा डाबर , बैद्यनाथ , हमदर्द , झंडू , हिमालया वेलनेस , विको , चरक जैसी कम्पनियां भी मौजूद है जो सालो से भारत मे आयुर्वेदिक प्रोडक्ट बेच रही है लेकिंन क्या इन्होंने अपनी बिक्री बढाने के लिए कभी बड़बोलापन दिखाया ?

आज देश भर में बाम को पहचान देने वाली कंपनी पातंजलि नही झंडु आयुर्वेद है , देश को च्यवनप्राश की पहचान देने वाली कंपनी पातंजलि नही बैद्यनाथ है , देश को कब्ज से राहत देने वाले  कायम चूर्ण क्या पातंजलि ने बनाया था ? क्या हाजमा दुरुस्त करने के लिए खाई जाने वाली गोली हवा बांड हरड़े पातंजलि ने बनाई ? क्या सालो से दांतों के लिए उपयोगी आयुर्वेदिक मंजन वज्रदंती को पतंजलि ने बनाया ? नही बिंलकुल नही जिन्हें लगता है आयुर्वेद का विकास केवल पातंजलि के आने के बाद हुआ है उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि आयुर्वेद इस देश मे सदियों से था है और रहेगा । आयुर्वेद ने रामदेव को बनाया है रामदेव ने आयुर्वेद को नही। मिलावटी शहद बेचने वाला,सलवार पहनकर भागने वाला, ढोंगी बाबा आयुर्वेद नही है।

योग तो भारत की पहचान है ही लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय पटल पर और मजबूत करने का श्रेय भी बाबा को ही जाता है । बस बाबा से यही निवेदन है कि वे इस कठिन समय मे देश के डॉक्टर्स का हौंसला बढ़ाये ना कि ऊलजलूल बयानों से कम करे।

चिकित्सा पद्धतियों के बीच रंजिश नहीं है, यह उनके व्यापारियों के बीच खड़ा किया बेवजह का विवाद है जिसका एकमात्र उद्द्येश्य व्यापार बढ़ाना है और अपनी मूर्खता को प्रचारित करना है। 

इसलिए सभी चिकित्सा पद्धति अपनी अपनी जगह उपयोगी हो सकते हैं लेकिन किसी एक को नीचा दिखाकर नहीं।

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