●एक जैसे मामले में अलग-अलग रुख अपनाने ●वाला अनोखा प्रधानमंत्री
●अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों की नींव रखने वाला प्रधानमंत्री
बड़े-बड़े बांध और बड़े उद्योगों का निर्माता

अमित नेहरा

बुधवार 26 मई 2021 की सुबह एक खबर आई कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर में चल रहे आंदोलन के छह महीने पूरे होने के अवसर पर काला दिवस मनाने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने एक किसान प्रेम मलिक को हिरासत में लिया है। प्रेम मलिक ने सरकार के सांकेतिक विरोध के लिए अपनी गाड़ी पर काला झंडा लगाया हुआ था।

इस घटना से मुझे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से जुड़ी एक घटना याद आ गई।

दरअसल, 1949 में बम्बई में मजदूरों की हड़ताल के दौरान मशहूर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने मंच से यह कविता पढ़ दी थी :

मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा।
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए।
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए।
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए।

उस समय देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे जो समाजवाद के समर्थक माने जाते थे। लेकिन नेहरू को मजरूह सुल्तानपुरी की यह गुस्ताखी बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। इसके चलते गीतकार मजरूह को अभिनेता बलराज साहनी और अन्य लोगों के साथ ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया गया। मजरूह को अपनी कविता के लिए माफ़ी मांगने को कहा गया और उसके एवज में जेल से रिहाई का प्रस्ताव दिया गया। पर मजरूह अपनी कलम के कद को नेहरू से बड़ा मानते थे अतः उन्होंने माफी मांगने से इनकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि उनको दो साल जेल में काटने पड़े।

27 मई को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है। हालांकि उन्हें काफी हद तक लिबरल और आजाद माहौल का समर्थक माना जाता है, पर मजरूह सुल्तानपुरी प्रकरण उनके एक अनछुए पहलु को उजागर करता है।

वर्ष 2021 में भी किसान प्रेम मलिक द्वारा सरकार की नीतियों का लोकतांत्रिक रूप से विरोध करने पर हिरासत में लिया जाना यह दर्शाता है कि शासक कोई भी हो उसे अपना विरोध कतई बर्दाश्त नहीं होता। सत्ता प्राप्त करते ही नेताओं का जनता के प्रति रवैया बदल जाता है और वे जनता को अपना गुलाम समझने लगते हैं। बहुमत से चुनकर सत्ता में आये नेताओं में तो यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। लगता है भविष्य में भी लोकतांत्रिक तरीकों से सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने वालों की राह आसान होने वाली नहीं है।

खैर, आज जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है अतः चर्चा को उन पर ही केंद्रित रखेंगे। एक बेहद धनी परिवार में 14 नवम्बर 1889 को जन्में जवाहरलाल नेहरू जीवन के शुरुआती दिनों से ही देश की आजादी के आंदोलन से जुड़ गए थे। इसके चलते उन्होंने 3259 दिन यानी लगभग नौ साल भारत की विभिन्न जेलों में काटे। भारत की आजादी को लेकर अंग्रेज वायसराय की अध्यक्षता में ब्रिटिश सरकार ने 1946 में कैबिनेट मिशन प्लान के तहत एक्जिक्यूटिव काउंसिल (अंतरिम सरकार) का गठन किया। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को इस काउंसिल का उपाध्यक्ष बनना था। आजादी के बाद इसी उपाध्यक्ष का देश का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था। वर्ष 1940 से मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने हुए थे, महात्मा गांधी के प्रेशर के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा। नए अध्यक्ष के लिए कांग्रेस की 15 में से 12 प्रांतीय समितियों ने सरदार पटेल के नाम का समर्थन किया और खास बात यह रही कि जवाहरलाल नेहरू का समर्थन किसी भी प्रांतीय समिति ने नहीं किया। फिर भी महात्मा गांधी ने सभी समितियों की पसन्द को दरकिनार करके नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष व कैबिनेट काउंसिल का उपाध्यक्ष बनवा दिया। अब जवाहरलाल नेहरू का आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया था। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना, इस बारे में गांधी ने एक साल बाद अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा कि नेहरू, कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अंग्रेज सरकार से बेहतर तरीके से समझौता वार्ता कर सकते थे और वे अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व सरदार पटेल से बेहतर कर सकते थे। नेहरू आधुनिकता पसन्द नेता थे और इससे गांधी को लगता थे कि नेहरू देश को उदार विचारों की ओर ले जाएंगे। महात्मा गांधी मानते थे कि बेशक कांग्रेस पार्टी में सरदार पटेल की पकड़ मजबूत हो मगर देश में पटेल की बजाए नेहरू की लोकप्रियता कहीं ज्यादा है।

आजाद भारत के विकास के लिए जवाहरलाल नेहरू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की। उस समय देश बेहद गरीबी में था अतः उन्होंने बड़े-बड़े बांध, नहरें और बड़े-बड़े कारखाने स्थापित करवाये। जवाहरलाल नेहरू इनको आधुनिक भारत के मंदिर कहते थे। इन परियोजनाओं के चलते देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू वैज्ञानिक प्रगति के प्रेरणा स्रोत थे अतः उन्होंने शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाने के लिए देश में आईआईटी, आईआईएम और विश्वविद्यालयों की स्थापना की। अंतरिक्ष में प्रभुत्व के लिए इसरो की स्थापना भी जवाहरलाल नेहरू की वैज्ञानिक दूरदर्शिता का नतीजा थी। उन्होंने देश में परमाणु प्रौद्योगिकी को भी बढ़ावा दिया। खेलों को भी बढ़ावा देने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में नई दिल्ली में पहले एशियन गेम्स आयोजित करवाये।

राजनीतिक रूप से भी जवाहरलाल नेहरू काफी परिपक्व थे। देश के बंटवारे के लिए हुए समझौते में भी जवाहलाल नेहरू ने भारत के पक्ष को बड़ी मजबूती से रखा और अपनी सूझबूझ और राजनीतिक चतुराई का परिचय दिया। उन्होंने आजादी के बाद देश में लोकतंत्र को भी मजबूत किया। उन्होंने 1963 में अपनी पार्टी के सदस्यों के विरोध के बावजूद भी अपनी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराई। इसी वर्ष 5 अक्टूबर को देश की एकता और अखंडता को और भी मजबूत करने के लिए संविधान में 16वां संशोधन करके तीसरी अनुसूची में शपथ ग्रहण के अंतर्गत ‘मैं भारत की स्वतंत्रता एवं अखंडता को बनाए रखूंगा’ की लाइन जोड़ी गई।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई। नेहरू ने टीटो और नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुट निरपेक्ष मोर्चा बनाया। जवाहरलाल नेहरू कोरियाई युद्ध के अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। इससे भारत को वैश्विक स्तर पर व्यापक पहचान मिली।

ऐसा नहीं है कि जवाहरलाल नेहरू के सभी फैसले सही ही रहे हों उनके कुछ फैसले ऐसे रहे जिनके लिए उनकी आलोचना होती है।
मसलन, पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला कर दिया था, भारत ने कश्मीर की मदद के लिए सेना भेजी और भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को बैकफुट पर ला दिया मगर आरोप है कि नेहरू ने पूरा मसला सुलझाए बगैर युद्धविराम कर दिया। वे कश्मीर के मुद्धे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए और भारतीय संविधान में धारा 370 को जुड़वा दिया, जिसके तहत जम्मू कश्मीर के लिए अलग संविधान की व्यवस्था थी। इससे कश्मीर का मामला उलझ गया।

नेहरू की चीन के साथ विदेश नीति भी फ्लॉप रही। उन्होंने चीन पर आवश्यकता से ज्यादा विश्वास कर लिया लेकिन चीन ने 1962 में विश्वासघात करके भारत के साथ युद्ध छेड़ दिया। इसमें भारत को हार का सामना करना पड़ा। इससे जवाहरलाल नेहरू की काफी आलोचना हुई।

अंत में

1955 में बिहार में प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी थी, इसके कुछ समय बाद जब जवाहरलाल नेहरू, पटना एयरपोर्ट पर पहुँचे तो उनके खिलाफ एक नौजवान सैय्यद शहाबुद्दीन ने 20 हज़ार छात्रों के साथ प्रदर्शन किया और काले झंडे दिखाए। दो साल बाद 1957 में वही नौजवान सिविल सेवा की परीक्षा में सफल हो गया। लेकिन सीआईडी ने पटना एयरपोर्ट के विरोध प्रदर्शन का हवाला देते हुए उसे वामपंथी करार दिया अतः उसकी नियुक्ति पर रोक लग गई।

जब यह फाइल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने फाइल पर लिख दिया “उस विरोध प्रदर्शन का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और ये नौजवानी के उल्लास (एक्सप्रेशन ऑफ़ यूथफुल एक्जूबिरेंस) में किया गया काम था।” नेहरू की इस टिप्पणी से फाइल क्लियर हो गई और सैय्यद शहाबुद्दीन विदेश सेवा के लिए चुन लिए गए। बाद में जनता पार्टी के शासनकाल में शहाबुद्दीन नौकरी से इस्तीफ़ा देकर राजनीति में आ गए। कालांतर में यही शहाबुद्दीन, बाबरी मस्जिद और शाहबानो मामले को बड़ा मुद्दा बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े नेता बनकर उभरे।

लेख की शुरुआत में जिस नेहरू ने कविता पढ़ने के आरोप में एक कवि को दो साल जेल में डाल दिया था उसी नेहरू ने काले झंडे दिखाने वाले छात्र को माफ करके उसे देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में चयन करवा दिया। इससे पता चलता है कि वे कई बार अपने विरोधी के लिए सख्त और नरम रुख अपना लेते थे।

नेहरू का यही रंग उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग कर देता है। आधुनिक भारत के इस निर्माता का देहांत 27 मई 1964 हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

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