15 मई को महेंद्र सिंह टिकैत की पुण्यतिथि पर विशेष

-अमित नेहरा -(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

“हाँ, वो हमारे साथ हैं। मैं किसान नेताओं और यहाँ उपस्थित सभी लोगों का शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से हमारा सहयोग करने पर आभार प्रकट करता हूँ। अब हम उनको बिजनौर न्यायालय में लेकर जायेंगें।”

उत्तरप्रदेश के गाँव सिसौली में लाखों किसानों और हजारों पुलिसकर्मियों के जमावड़े के बीच यूपी के आईजी (रेलवे) गुरदर्शन सिंह 2 अप्रैल 2008 की सुबह पत्रकारों को यह जानकारी दे रहे थे।

इसके बाद सिसौली से पुलिस की सैंकड़ों गाड़ियों का काफिला 73 वर्षीय उस किसान को लेकर रवाना हो गया। लेकिन उसी दिन कुछ ही समय बाद वह किसान अपने साथियों के बीच वापस अपने घर सिसौली लौट आया। इसके साथ ही उत्तरप्रदेश में लगातार तीन दिनों से छाई तनातनी, राजनीतिक और सामाजिक संकट व किसानों की घेराबंदी खत्म हो गई।

आखिर यह 73 वर्षीय किसान कौन था और क्या वजह थी जिसने पूरे उत्तरप्रदेश की राजनीति और अफसरशाही को पूरे तीन दिन तक उलझाए रखा था ?

ये कोई मामूली किसान नहीं था, ये थे महेंद्र सिंह टिकैत जो पश्चिम उत्तरप्रदेश के अपने समय के बड़े धाकड़ किसान नेता थे।

एक समय था जब महेंद्र सिंह टिकैत का जलवा इतना जबरदस्त था कि उनको मनाने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह खुद उनके पास दौड़े चले आये थे लेकिन बेहद अपमानित होकर वापस गए थे। अपमान इतना कि मुख्यमंत्री के पानी मांगने पर किसानों ने हकीकत में उन्हें चुल्लू में भरकर पानी पिला दिया था। ये बात 1987 की थी लेकिन 1987 से लेकर 2008 तक बहुत कुछ बदल चुका था। प्रदेश की राजनीति भी और महेंद्र सिंह टिकैत का जलवा भी। वर्ष 2008 में उनकी भिड़ंत उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से हो रही थी जिसमें टिकैत को मायावती के प्रति अपने एक भाषण में कथित जातिसूचक शब्द कहने पर आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस प्रकरण के बाद महेंद्र सिंह टिकैत, किसान आंदोलन को दोबारा धार नहीं दे पाए। हालांकि उस समय उनको हड्डियों का कैंसर भी हो चुका था अतः खराब स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र भी उनके अस्त होने के बड़े कारक थे।

तारीखों के हिसाब से महेंद्र सिंह टिकैत का जन्म मुजफ्फरनगर के गाँव सिसौली में 6 अक्टूबर 1935 में हुआ। उनके पिता चौहल सिंह टिकैत सुप्रसिद्ध बाल्यान खाप के चौधरी थे। चौहल सिंह टिकैत का निधन अल्पायु में ही हो गया था, अतः परम्परा के अनुसार उनके पुत्र महेंद्र सिंह को मात्र आठ वर्ष की आयु में बाल्यान खाप का चौधरी बनाया गया। ऐसे में सर्वखाप पंचायत के मंत्री चौधरी कबूल सिंह के सहयोग से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारियां सीखीं, समझीं और उनको अमलीजामा पहनाया।

लेकिन अहम मोड़ आया 1986 में।

सिसौली में 17 अक्टूबर 1986 को एक बहुत बड़ी महापंचायत हुई, जिसमें सभी जाति, धर्म, सभी खापों के चौधरियों व किसानों ने बड़ी भारी संख्या में हिस्सा लिया और चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को सर्वसम्मति से भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत कर दिया।
कोई भी पद प्राप्त करना महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण होता है उस पद को जिम्मेदारीपूर्वक सुशोभित करना।

महज सातवीं पास महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही साबित कर दिया कि चयनकर्ताओं ने वाकई सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को इस पद के लिए चुना है। अध्यक्ष बनते ही उन्होंने किसानों के हित में एक से बढ़कर एक आंदोलन किये, सफलता पाई और 1988 के आते-आते राज्य सरकार को तो छोड़िए, केंद्र सरकार तक उनसे खौफ खाने लगी।

सबसे पहला अवसर आया 27 जनवरी 1987 को, उत्तरप्रदेश के करमूखेड़ा बिजलीघर पर बिजली के स्थानीय मुद्दे पर आंदोलन शुरू हुआ। यहाँ पुलिस गोलीकांड में जयपाल और अकबर नामक दो नौजवान शहीद हो गए। इस कांड से व्यथित और क्रोधित महेंद्र सिंह टिकैत ने मेरठ की कमिश्नरी का 24 दिनों तक घेराव किये रखा। इस ऐतिहासिक आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान महेंद्र सिंह टिकैत की तरफ खींचा।

उस समय उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे वीर बहादुर सिंह। बिजली बिलों के खिलाफ चल रहे आंदोलन से परेशान होकर वीर बहादुर स‍िंंह ने महेंद्र सिंह टिकैत से बात की। उन्होंने इच्छा जाहिर की कि वे ट‍िकैत के गांव सिसौली में आयोजित होने वाली किसानों की पंचायत में आना चाहते हैं और क‍िसानों के हित में कुछ घोषणा करना चाहते हैं। महेंद्र सिंह टिकैत ने वीर बहादुर सिंह पर शर्त लगा दी कि आप आ जाइये पर आपके साथ न तो कांग्रेस का झंडा होगा और न ही कोई राजनीतिक कार्यकर्ता या पुलि‍सकर्मी आपके साथ पंचायत में आएगा।

हैरतअंगेज बात यह है कि मुख्यमंत्री ने टिकैत की यह शर्त मान ली और वे 11 अगस्त 1987 को सिसौली पहुँच गए। जब मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह का हेल‍िकॉप्‍टर सिसौली उतरा तो उनकी आगवानी के ल‍िए हेलीपैड पर कोई नहीं था। मुख्यमंत्री को हेलीपैड से मंच तक पैदल ही जाना पड़ा। मुख्यमंत्री के सभा में पहुंचने पर महेंद्र सिंह टिकैत ने अपने भाषण में वीर बहादुर सिंह को खूब खरी-खोटी सुनाई। ऐसे में जब वीर बहादुर सिंह ने मंच पर मौजूद लोगों से पीने के लिए पानी माँगा तो टिकैत के कार्यकर्ताओं ने उन्हें चुल्लू से पानी पिला दिया। ये एक मुख्यमंत्री के अपमान की पराकाष्ठा थी। टिकैत के मंच पर हुए इस अपमान से वीर बहादुर सिंह बेहद नाराज हो गए और सभा को संबोधित किये बिना ही वापस लखनऊ लौट आये। इस प्रकरण से महेंद्र सिंह टिकैत की पूरे इलाके में तूती बोलने लगी और उनकी छवि धाकड़ किसान नेता की बन गई।

जल्द ही महेंद्र सिंह टिकैत का चरमोत्कर्ष आ गया। अगले ही साल 25 अक्‍तूबर 1988 को महेंद्र स‍िंंह ट‍िकैत, क‍िसानों की माँगों को लेकर आंदोलन के लिए देश के दिल दिल्ली में आ पहुँचे। उस दिन व‍िजय चौक सेे इंड‍िया गेट तक क‍िसान ही किसान दिखाई दे रहे थे। फिर वे सभी किसान वहीं रुक गए, वे एक लंबे पड़ाव के लिए अपने साथ ट्रैक्‍टरों, बैलगाड़‍ियों और झोटाबुग्गियों के साथ-साथ खाट-पुआल तक लेकर आये थे। आधुनिक दिल्ली ने ऐसा घेरा और ऐसा आंदोलन पहली बार देखा था। किसान टिड्डी दल की तरह बढ़ते जा रहे थे। लुटियंस जोन में हर जगह किसानों और हुक्‍के की गुड़गुड़ाहट का शोर था। यहाँ तक कि इंद‍िरा गांधी की पुण्‍यत‍िथ‍ि के ल‍िए बोट क्‍लब पर जो मंच बन रहा था, उस पर भी पुण्यतिथि से एक दिन पहले यानी 30 अक्‍तूबर को किसानों ने कब्जा कर लिया। उनको हटाने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया गया मगर क‍िसान वहाँ से नहीं हटे। ऐसे में इंद‍िरा की पुण्‍यत‍िथ‍ि का कार्यक्रम चुपके से बोट क्‍लब की बजाय लालक‍िले के पीछे वाले मैदान में आयोज‍ित करना पड़ा। यह प्रकरण सरकार के हाथ-पाँव फुलाने के लिए पर्याप्त था। आखिरकार 31 अक्‍तूबर 1988 को राजीव गांधी ने क‍िसानों की सभी 35 मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्‍वासन द‍िया और महेंद्र सिंह टिकैत ने आंदोलन उठा लिया। इस आंदोलन से टिकैत ने देशी और विदेशी मीडिया में बहुत ज्यादा सुर्खियां बटोरीं। इस घटना से केंद्र सरकार इतनी बौखला गई कि वोट क्लब क्षेत्र में भविष्य में होने वाली सभी रैलियों और धरनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

महेंद्र सिंह टिकैत पूरी दुनिया में किसान आंदोलन के बड़े प्रतीक के रूप में उभर चुके थे और उनका यह जलवा कमोबेश अगले लगभग 20 साल तक कायम रहा। मुख्यमंत्रियों की तो बात छोड़िये, प्रधानमंत्रियों तक में उनकी हनक थी।

अब थोड़ा विश्लेषण करते हैं कि आखिर महेंद्र सिंह टिकैत किसानों के इतने प्रभावशाली संगठनकर्ता कैसे बने। दरअसल 1985-86 में पश्चिमी उत्तरप्रदेश के सबसे लोकप्रिय किसान नेता चौधरी चरण सिंह का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और वे पक्षाघात के कारण बिस्तर पर आ गए। हालांकि तब तक उनके पुत्र चौधरी अजित सिंह अमेरिका से अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़कर भारत में आकर राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। लेकिन अजित सिंह को जमीनी स्तर पर अपनी पकड़ बनाने के लिए थोड़ा समय लगना था।

अतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश की किसान राजनीति में एक बहुत बड़ा वैक्यूम पैदा हो गया था। इस मौके को हाथोंहाथ लपका महेंद्र सिंह टिकैत ने। चूँकि परिवार के पास बाल्यान खाप की चौधर चली आ रही थी अतः उन्हें सामाजिकता की घुट्टी विरासत में मिली थी। चौधरी चरण सिंह के 29 मई 1987 में हुए निधन के पश्चात महेंद्र सिंह टिकैत उत्तरप्रदेश में किसानों के नेता के रूप में छाने शुरू हो गए। टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन को बिल्कुल अराजनीतिक रखा। वे अपने ही प्रोग्रामों के मंच पर केवल भाषण देने ही ऊपर जाते थे, भाषण देते ही मंच के नीचे किसानों के बीच में बैठ जाते थे। उन्हीं के बीच खाना खाते और उन्हीं की तरह बेहद सामान्य कपड़े पहनते। इससे किसानों के बीच उनकी इज्जत और क्रेज खूब बढ़ा। एक बात यह भी याद रखनी चाहिए कि महेंद्र सिंह टिकैत पर कभी किसी घोटाले का आरोप नहीं लगा। उन्होंने कभी किसान राजनीति से पैसा नहीं कमाया।

यह बताना भी जरूरी है कि महेंद्र सिंह टिकैत उत्तर भारत के एकमात्र ऐसे बड़े किसान नेता थे जो नेता के रूप में स्थापित होने के बाद भी खुद भी किसानी करते रहे। वे अक्सर अपने खेतों में गन्ना काटते या निराई-गुड़ाई करते दिखाई दिया करते थे। उत्तर भारत की किसान राजनीति में सर छोटूराम, चौधरी चरणसिंह और चौधरी देवीलाल का बड़ा नाम रहा है लेकिन यह भी सच है कि इन तीनों ने किसान राजनीति तो की मगर खुद खेत में किसानी नहीं की। हाँ, इन तीनों के पूर्वज किसान जरूर थे। लेकिन खुद खेती करने वाला किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत को ही माना जा सकता है।

अब चर्चा करते हैं कि महेंद्र सिंह टिकैत किसान नेता के रूप में कितने सफल रहे और उनका किसानों की भलाई के लिए रोडमैप और विजन क्या था ?

सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह दोनों किसान नेता अपने जमाने के बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नेता थे अतः वे दोनों विजनरी थे। उन दोनों नेताओं की नीतियां, किसानों के हित में कानून बनवाकर दीर्घकालिक परिणाम देने वाली रहीं। सर छोटूराम और चौधरी चरणसिंह का जोर किसान हितैषी ड्राफ्ट बनवाकर उसे कानून बनवाने में रहता था। सर छोटूराम और चौधरी चरणसिंह वास्तव में किसान कौम के एडवोकेट थे बिल्कुल उसी तरह भीमराव आंबेडकर दलित और पिछड़ों के एडवोकेट थे।

दूसरी तरफ महेंद्र सिंह टिकैत ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं अतः वे किसान आंदोलनों से सरकारी नीतियों में बदलाव करवाकर उनसे दीर्घकालिक परिणाम पाने में सफल नहीं हो पाए। उनका फोकस तुरंत परिणाम प्राप्त करने पर होता था। मसलन उनके आंदोलन का मकसद होता था बिजली बिलों की वसूली को माफ करवाना या उन्हें कुछ समय के लिए स्थगित करवाना। इससे किसानों को फौरी राहत तो मिल जाती थी लेकिन कमरतोड़ बिलों से स्थाई राहत दिलवाने में उन्होंने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसी तरह गन्ना मिलों पर किसानों की बकाया पेमेंट के लिए आंदोलन करके दबाव डालकर पेमेंट रिलीज करवाने से पुरानी पेमेंट तो निकल जाती थी। लेकिन गन्ने की रकम को मिल प्रबंधन द्वारा बिना वजह रोकने पर आपराधिक मामले दर्ज कराने का कानून पास करवाने की तरफ उनका ध्यान नहीं गया। नतीजा, लगभग हर साल किसानों को अपने ही पैसों को लेने के लिए आंदोलन करने पड़ते थे।

ऐसे में जहाँ, कानून बनने के बाद उनके सकारात्मक परिणाम लम्बे समय बाद दिखाई देते हैं, वहीं छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर होने वाले आंदोलनों से सरकार और प्रशासन उस समस्या का समाधान तो तुरंत कर देता है, पर मूल समस्या ज्यों की त्यों खड़ी रहती है। समस्या का तुरंत हल कराने का लोगों पर जादुई असर होता है और वे ऐसे नेताओं के साथ चुम्बकीय तरीके से जुड़ जाते हैं। लेकिन ये नेता ऐसी समस्याओं के स्थाई समाधान पर ध्यान नहीं देते। अमूमन उनकी सोच होती है कि फिर का फिर देखा जाएगा। महेंद्र सिंह टिकैत को भी इसी श्रेणी का नेता माना जा सकता है। उन्होंने किसानों को फौरी राहतें तो खूब दिलवाईं मगर उनके पास किसानों को दीर्घकालिक लाभ दिलाने की कोई खास योजना नहीं थी। हाँ, वे यह जरूर कहते थे कि अगर 1967 को आधार वर्ष मान कर कृषि उपज और बाकी सामानों की कीमतों का औसत निकाल कर फसलों का दाम तय हो जाये तो किसानों की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है। परन्तु वे इसे अमलीजामा पहनाने में सफल नहीं हो पाए।

अंग्रेजी में एक शब्द है चेफ्टन, जिसका हिंदी का अर्थ है मुखिया। अगर महेंद्र सिंह टिकैत के समग्र जीवन और क्रियाकलापों को देखा जाए तो उन पर चेफ्टन शब्द सबसे सटीक बैठता है। वे हकीकत में किसानों के चेफ्टन थे, एक ऐसा मुखिया जो उनके सुख-दुःख में हर समय खड़ा मिलता है, उनके दर्द को अपना दर्द समझता है। अपनी जीवनशैली को बाकी किसानों से अलग नहीं करता। मुख्यमंत्री तो छोड़िये प्रधानमंत्री तक तो उल्टा सीधा बोल देता है। उस समय हर्षद मेहता द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव पर एक करोड़ रुपये की घूस खाने का आरोप लगाया गया था।

किस्सा मशहूर है कि महेंद्र सिंह टिकैत ने नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री रहते-रहते उनसे पूछ लिया कि क्या आपने हर्षद मेहता से वाकई एक करोड़ रुपये लिए थे ? उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को सिसौली बुलाकर अपमानित करना किसी भी एंगल से जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर महेंद्र सिंह टिकैत कूटनीति से काम लेते तो प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से उनके सीधे संवाद का फायदा, ज्यादा से ज्यादा किसान हितैषी नीतियां बनवा कर उठा सकते थे। लेकिन किसान की मूल प्रवृति निरंकुशता होती है अतः वह किसी से भी दबता या डरता नहीं। महेंद्र सिंह टिकैत में भी ये प्रवृति कूट-कूट कर भरी थी। इसके चलते किसानों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया और वे पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अपने समय के सबसे ज्यादा भीड़ जुटाऊ किसान नेता बने।

चूँकि उत्तरप्रदेश की किसान राजनीति, चौधरी चरणसिंह के परिवार के जिक्र के बिना अधूरी है। अतः महेंद्र सिंह टिकैत और चरणसिंह परिवार के रिश्तों के बारे में जिक्र करना भी जरूरी है। चौधरी चरण सिंह का व्यक्तित्व बेहद विशाल था इसलिए महेंद्र सिंह टिकैत काफी हद तक उनकी छाया तले ही दबे रहे। हाँ, चौधरी अजित सिंह की राजनीति और महेंद्र सिंह टिकैत के रिश्ते खट्टे-मीठे रहे। वर्ष 1988 में जब टिकैत ने दिल्ली का घेराव किया तो एक समय ऐसा आ गया था कि स्थिति बड़ी विस्फोटक हो गई थी। किसानों पर दमनात्मक कारवाई होने की आशंका पैदा हो गई थी। ऐसे में चौधरी अजित सिंह ने केंद्र सरकार से बात करके बीच का रास्ता निकाल कर किसानों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की थी। वर्ष 2008 में बिजनौर में आयोजित किसान स्वाभिमान सभा नामक जनसभा में महेंद्र सिंह टिकैत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के लिए कथित जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर दिया था।

इस पर एक तरफ मायावती टिकैत की गिरफ्तारी पर अड़ गई थी दूसरी तरफ लाखों किसान किसी भी कीमत पर टिकैत की गिरफ्तारी न होने देने पर सिसौली में जुट गए थे। तीन दिन तक पुलिस, महेंद्र सिंह टिकैत की गिरफ्तारी के लिए सिसौली में जमा किसानों की भीड़ पर लाठीचार्ज, आँसूगैस और फायरिंग करती रही। ऐसी विकट स्थिति में चौधरी अजित सिंह ने एक बार फिर से मध्यस्थता करके शासन और किसानों के बीच जारी टकराव को दूर किया। समझौते के तहत महेंद्र सिंह टिकैत की गिरफ्तारी की बजाए उनसे सरेंडर कराया गया। सरेंडर करने के बाद उन्हें निचली कोर्ट में पेश किया गया। निचली कोर्ट ने उनकी जमानत याचिका ख़ारिज कर दी। जमानत याचिका ख़ारिज होने के तुरंत बाद उसी दिन महेंद्र सिंह टिकैत ने अपर जज की कोर्ट में जमानत अर्जी दायर की और उनको उसी दिन जमानत मिल गयी। टिकैत ने मायावती के खिलाफ इस्तेमाल किये गए शब्द के लिए माफ़ी मांगी और मायावती को अपनी बेटी बताया और इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया। किसान वापस अपने घर चले गए।

इसके बाद महेंद्र सिंह टिकैत का जलवा धीरे-धीरे अस्त होने लगा, उन्हें हड्डियों का कैंसर भी हो गया आखिरकार 15 मई 2011 को किसानों का यह मुखिया सदा के लिए सो गया। बेशक जीवन के अंतिम दिनों में महेंद्र सिंह टिकैत का जलवा थोड़ा कम हो गया हो लेकिन उनके अंतिम संस्कार में जितना भारी जनसमुदाय उमड़ा उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। उस दिन सिसौली में हर तरफ सिर ही सिर नजर आ रहे थे। हर किसान अपने उस निःस्वार्थ कर्मयोगी मसीहा को नमन करने आया हुआ था जो उनकी एक आवाज पर सब कुछ छोड़छाड़ कर उनके साथ उठकर चल देता था, अंजाम चाहे जो भी हो, इसकी परवाह किये बगैर ही!

महेंद्र सिंह टिकैत के निधन के पश्चात सर्वसम्मति से उनके बड़े पुत्र नरेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष बनाया गया और छोटे पुत्र राकेश टिकैत को यूनियन के प्रवक्ता की जिम्मेदारी सौंपी गई। लेकिन नरेश टिकैत ये जिम्मेदारी अपने पिता की तरह नहीं निभा पाए उधर राकेश टिकैत अपने पिता से उलट राजनीतिक महत्वकांक्षा पाल बैठे। वर्ष 2014 के आम चुनावों में राकेश टिकैत ने चौधरी अजित सिंह की पार्टी से चुनाव लड़ा मगर हार गए। सितम देखिये, यही राकेश टिकैत वर्ष 2019 के आम चुनावों में चौधरी अजित सिंह के विरोध में भाजपा उम्मीदवार संजीव बाल्यान के साथ खड़े थे।

राजनीतिक महत्वकांक्षा के चलते राकेश टिकैत पर न खुदा मिला न विसाले सनम वाली कहावत लागू हो गई। वे किसान नेता नहीं बन सके और सक्रिय राजनीति में आकर उन्होंने अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत का दिखाया मार्ग खो दिया। महेंद्र सिंह टिकैत जाति-पाती और धर्म से ऊपर उठकर काम करते थे। उनके अनुयायियों में हर जाति और हर धर्म को मानने वाले किसान थे। वर्ष 1987 में मेरठ में हुए भयानक साम्प्रदायिक दंगों को उन्होंने गांव-देहात में नहीं फैलने दिया था। भारतीय किसान यूनियन की विशाल पंचायतों की अध्यक्षता अधिकतर सरपंच एनुद्दीन करते थे और मंच का संचालन गुलाम मोहम्मद जौला के जिम्मे रहता था। वर्ष 1989 में मुज़फ्फरनगर के भोपा क्षेत्र की मुस्लिम युवती नईमा को न्याय दिलाने के लिए महेंद्र सिंह टिकैत ने जबरदस्त आंदोलन चलाया था और अनूठी एकता की मिसाल कायम की थी।

देखा जाए तो सामाजिक समरसता के मामले में महेंद्र सिंह टिकैत एक तरह से चौधरी चरणसिंह के पदचिन्हों पर चल रहे थे। लेकिन उनके छोटे पुत्र राकेश टिकैत से यह चूक हो गई कि वे किसानों को धर्मिक रूप से एक साथ नहीं रख पाए। इसके बाद एक और मोड़ आया 28 जनवरी 2021 को दिल्ली-उत्तरप्रदेश पर गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में। उत्तरप्रदेश पुलिस राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने पहुँच गई। ऐसे में चौधरी अजित सिंह ने तमाम विरोधों और राजनीतिक दूरियों को ताक पर रखते हुए किसान हित में राकेश टिकैत का पक्ष लिया और सार्वजनिक रूप से शासन और प्रशासन को लताड़ लगाई। इससे राकेश टिकैत की किरकिरी होने से बची और उन्होंने सार्वजनिक रूप से चौधरी अजित सिंह का शुक्रिया भी अदा किया।

कुल मिलाकर तीन ऐसे अवसर रहे जब चौधरी अजित सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत या उनके परिजनों के लिए संकटमोचक बने। पहली बार वोट क्लब पर महेंद्र सिंह टिकैत और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच डेडलॉक खुलवाने में, दूसरी बार महेंद्र सिंह टिकैत और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के बीच हुए प्रकरण में और अंतिम बार महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र राकेश टिकैत की गिरफ्तारी को रुकवाने में।
कहने का अर्थ है कि जब-जब महेंद्र सिंह टिकैत की उपलब्धियों के बारे में लिखा जायेगा तो उसमें चौधरी अजित सिंह का योगदान का भी जिक्र होगा।