अशोक कुमार कौशिक 

आज संपूर्ण मानवजाति एक अदृश्य हमले से बेहाल-खस्ताहाल है। विधि की विडंबना ऐसी कि बड़े-बड़े विनाशक आयुध धरे रह गए और लगभग 10 ग्राम विषाणुओं ने पूरी धरित्री पर विनाश का वीभत्स खेल खेल दिया। जो एक बटन दबाकर धरती के किसी बड़े भूभाग को नष्ट करने का सामर्थ्य रखते थे, उन्हें अपनी जान के लाले पड़ गए। कैसा विकराल कलिकाल कि चिकित्सालयों में उपचार हेतु जगह कम पड़ गई; तो श्मशान घाटों, कब्रिस्तानों में भी शवों के लिए जगह की भारी किल्लत हो गई।

बुहान से निकले इस कोरोना रूपी दुश्मन की चाल और चरित्र को हम समझ पाते, उससे पहले ही उसने हम पर कहर बरपा दिया।

योगशालाओं में विशालतम और जटिलतम उपकरणों से उन आक्रांताओं की शक्ति एवं युद्धनीति को समझकर उनके विरुद्ध रणनीति बनाई जाने लगी। सबसे पहले मानव-देह रूपी दुर्ग में नाक और मुँह के सुरंगों से प्रविष्ट होने की उनकी रणनीति का पता चलते ही मुखपट्टी लगाकर एक अभेद्य दीवार बनाने की रणनीति अपनाई गई। इसके साथ-साथ हाथों पर विषाणुनाशक घोल मल-मल कर उनके हमले को बेअसर करने की भी अनवरत चेष्टा की गई। हमने देखा कि विषाणुनाशक घोल तैयार करने वाले उद्योग यथा डेटॉल, शेवलान आदि युद्ध-स्तर पर इसका उत्पादन और आभरण करने लगे।

इतना ही नहीं, सब कुछ किसी युद्ध के मैदान जैसा हो गया। जैसे किसी युद्ध के मैदान में पदाति सैनिक अगर पास-पास रहते हैं, तो शत्रु के आक्रमण से उनका अधिक नुक़सान होता है, ठीक ऐसे ही मानवता के इस शत्रु के अदृश्य परंतु तीव्र आक्रमण से बचने के लिए हम दूर-दूर रहने लगे। यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता, लेकिन किसी कोरोना योद्धा को मोर्चे पर डटे देखते ही, शिरस्त्राण, कवच आदि से लैश युद्धभूमि में लड़ते रणबांकुरों की छवि कौंध ही जाती। जब कभी इस युद्ध में हमारा कोई योद्धा खेत रहता, हम थोड़ी देर के लिए गम के अंधेरे में डूब जाते मगर अगले ही पल कोई अन्य उनकी जगह ले लेता।

1 वर्ष से भी अधिक समय तक इन सूक्ष्म शत्रुओं के साथ घनघोर युद्ध हुआ। देखते-देखते इन शत्रुओं ने 30 लाख लोगों को हताहत कर दिया। अब यह संख्या करोड़ों में पहुंच गई। क्या अमेरिका, क्या ब्राजील, क्या इटली, क्या फ्रांस और क्या भारत. सर्वत्र हाहाकार मच गया।

इस बीच वैज्ञानिकों की तपस्या से लगा कि अब इन अदृश्य दुश्मनों के विनाश का ब्रह्मास्त्र मिल गया। समूची मानवजाति में हर्ष की लहर दौड़ गई। दूरदर्शन आदि विविध उपकरणों से यह उद्घोषणा हुई कि मानवजाति अब कोरोना-विषाणुओं के समक्ष समर्पण नहीं करेगी, अपितु यह उनके हमले को बेअसर करने के लिए कटिबद्ध है।

भारत में भी चिकित्सकों के नेतृत्व में कोरोना-योद्धाओं की अगली पंक्ति द्वारा कोविशील्ड, कॉवेक्सिन आदि ब्रह्मास्त्रों से इस अदृश्य दुश्मन को घेरने-मारने की कोशिशें तेज़ की गईं। इन सारी कवायदों के बीच इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म दुश्मनों ने एक बार और अपना हमला तेज़ कर दिया। पता लगा कि ये दुश्मन इन ब्रह्मास्त्रों को भी झेल सकते हैं। अचानक के इस प्रत्याक्रमण से उत्साहित मानव-सेना में विषाद की व्याप्ति हो गई।

इसी बीच लांसेट के माध्यम से एक अशुभ समाचार आया कि अब इन अदृश्य अपितु विषैले शत्रुओं ने ऐसा छलावरण किया है कि उनसे लड़ाई और घातक तथा लंबी होगी। पता लगा कि अब यह शत्रु वायु-कणों में छुप कर बैठता है और श्वास-मार्ग से शरीर में पहुँचकर अंदर अत्यधिक तोड़-फोड़ मचाता है। सर्वत्र डर का वातावरण व्याप्त हो गया। आख़िर श्वास लेना तो बंद नहीं किया जा सकता न?

युद्ध के समय दुश्मन सेना की रशद की आपूर्ति ठप करके तिल-तिल मार डालने की मनुष्यों की रणनीति इन विषाणुओं में कहाँ से आई, यह चिंतन का विषय हो सकता है। द्रष्टव्य यह कि वनराज सिंह यदि अपने पैने दाँतों से अपने शिकार की ग्रीवा दबाकर उसे मार डालता है, तो यह भी किञ्चित् विषाणुओं का राजा ही है, जो छल से अंदर घुस जाता है और प्राणवायु ऑक्सिजन की आपूर्ति अवरुद्ध कर प्राण हर लेता है। कहाँ युद्ध समाप्ति की ओर था और कहाँ एक सर्वभक्षी भय चहुँओर व्याप्त हो गया।

अभी वर्ष भर पहले तक दौड़ना सीख चलना भूल गए लोगों की लिप्सा सुरसा की तरह अपरिमित बढ़ रही थी, काम और भोग के लिए 24 घण्टे भी कम पड़ रहे थे। इस अंधी दौड़ में मानवता मार्ग-अवरोधकों पर हिचकोले खाती रहती, पर गति कम न करती। इस विषाणु के हमले से अचानक एक ऐसी बेरिकेडिंग आई कि रुकने के सिवा कोई उपाय न रहा। काल का पहिया ऐसा घूमा कि समय को काल क्यों कहते हैं, पता चल गया। बस, मृत्यु आखेट पर निकली है, हमें छुपना है, बचना है।

हमारे आसपास की हर मृत्यु हमारी मृत्यु है, आंशिक ही सही। सही शब्दों में कहें तो हर मृत्यु हमारी मृत्यु की उद्घोषणा है, अभी नहीं तो कभी, हमारा नम्बर आएगा- यह सनद है। जब हमारा कोई भाई मरता है, तो हमारा भाई होना मरता है। आख़िर भाई होने से भाई की, पत्नी या पति होने से पति या पत्नी की संज्ञा है। इस विचारसरणी से, इन अदृश्य विषाणुओं के विरुद्ध इस महायुद्ध में एक भी मानव का खेत रहना हमारी आंशिक पराजय है, हमारी भी आंशिक मृत्यु है।

आज स्थिति यह है कि अत्यधिक माँग के कारण प्राणवायु की इतनी कमी हो गई कि लोग दम तोड़ रहे हैं। एक रेमिडिसीविर इंजेक्शन जो 750-800 तक मिलना चाहिए, पाने के लिए लोग 18-60 हज़ार देने के लिए तैयार हैं लेकिन नहीं मिल रहा, क्योंकि एक साथ इतने लोग बीमार हो गए हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई। मौत का आंकड़ा तेज़ी से बढ़ रहा है।

बहरहाल, इस महायुद्ध में हमारी ओर से कोई चूक न हो, हम अपने-अपने देहरूपी किले में दुश्मन को प्रवेश न करने दें- इस हेतु अत्यधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि अपनी चूक से हम कोरोना रूपी दुश्मन के अदृश्य हमले की चपेट में आते रहें और यह दम घोंट-घोंट कर हमें मारता रहे। यदि हम या हमारा कोई अपना इसकी चपेट में नहीं आया है, तो यह सौभाग्य है- इसे दुर्भाग्य में बदलकर क्यों देखना??

एक बात और- इस समय का इतिहास जब भी दर्ज होगा, उसमें यह अवश्य वर्णित होगा कि इस कालखंड में देश और महादेश का अतिक्रमण करती नियंत्रण की राजसी इच्छा ने बेबसी का कसैला स्वाद चखा। हाँ, शायद यह भी वर्णित हो कि इस समय सत्ता के अश्वमेध हेतु अनगिनत लाशें बिछा देने से भी परहेज नहीं किया गया।

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