भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

हरियाणा में आज के किसान आंदोलन के रेल रोको अभियान का मिश्रित असर रहा। कहीं तो रेलें रोकी गईं और कहीं निर्बाध चलती रहीं। 

आज के आंदोलन में देखने में आया कि जाट बाहुल्य क्षेत्र भिवानी, रोहतक, हिसार आदि में इस अभियान का असर दिखाई दिया परंतु अहीरवाल में यह अभियान बेअसर दिखाई दिया तो मन में प्रश्न उठा कि क्या जाट ही किसान हैं या जाट ही आंदोलन में उतर सकते हैं, अन्य जातियों के किसान नहीं?

आइए नजर डालते हैं किसान आंदोलन में सुर्खियों में रहने वाले नेताओं पर। उनमें नाम आता है भूपेंद्र सिंह हुड्डा, अभय चौटाला, बलराज कुंडू, सोमबीर सांगवान, दीपेंद्र हुड्डा आदि का। कोई गैर जाट नेता का नाम नहीं दिखाई देता है।

हमारी समझ से खेती करने वाले 36 बिरादरी के लोग हैं। यहां तक कि ब्राह्मण और बनिये भी किसानी करते हैं। सैनी, अहीर, गुर्जर आदि का खेती में महत्वपूर्ण योगदान है और यदि 36 बिरादरी का किसान इससे नहीं जुड़ता है तो यह आंदोलन सफलता कैसे पा सकेगा? और हर बिरादरी को जोडऩे के लिए हर बिरादरी का अर्थात उन्हीं किसानों में से निकला हुआ नेता भी तो होना चाहिए, जो उसे क्षेत्र या उस बिरादरी की बात को सामने रख सके। परंतु खूब नजर दौड़ाई। अन्य बिरादरी का नेता निगाह में नहीं आया।

अभी गुरुग्राम की बात करें तो यहां चौ. संतोख सिंह के नेतृत्व में किसान आंदोलन चल रहा है और उनके साथ नाम आते हैं आरएस राठी, गजेसिंह कबलाना, बीरू सरपंच आदि सभी जाट बिरादरी से ही संबंध रखते हैं। ऐसा ही कुछ कमोवेश अन्य स्थानों पर भी है। अत: यह प्रश्न मन में उठता है कि क्या नेतृत्व क्षमता केवल जाटों में है अन्य बिरादरियों में नहीं? या फिर इस आंदोलन में जाटों का वर्चस्व हो गया, इसलिए अन्य बिरादरी के नेता नहीं?

किसान आंदोलन और राजनीति:

प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि इस किसान आंदोलन के सहारे राजनैतिक वर्चस्व तो नहीं स्थापित किया जा रहा है? जिस प्रकार हरियाणा में जाट लैंड का सत्ता में बड़ा योगदान रहता है और जाट नेता स्थापित होते हैं। जैसे चौ. देवीलाल, चौ. बंसीलाल, ओमप्रकाश चौटाला के बाद से भूपेंद्र सिंह हुड्डा जाट नेता के रूप में स्थापित हुए। गत विधानसभा चुनाव में भूपेंद्र हुड्डा को दुष्यंत चौटाला ने चैलेंज दिया या यूं कहें कि पटखनी दी तो भी शायद गलत न होगा। 

किसान आंदोलन के कारण दुष्यंत चौटाला जो युवा जाट नेता के रूप में स्थापित हुए थे, वह किसानों के हक में न बोलने के कारण अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं या यह कहें कि खो चुके हैं तो भी गलत न होगा। उसी को भरने के लिए अब अभय चौटाला मैदान में हैं। उन्होंने अपने विधायक पद से इस्तीफा देकर कुछ बढ़त बना ली है और अब वह चौ. देवीलाल के समर्थकों को अपनी ओर एकजुट करने में लगे हुए हैं। और उन्हीं जाटों पर निगाह दीपेंद्र सिंह हुड्डा की भी नजर आती है। तथा जिसमें सहयोग कर रहे हैं भूपेंद्र सिंह हुड्डा, क्योंकि भूपेंद्र सिंह हुड्डा उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं, जहां वह अपने पुत्र को स्थापित करना चाहेंगे।

इधर, महम के विधायक बलराज कुंडू भी प्रयासरत हैं जाट नेता बनने के लिए। हालांकि वह हर समय यह बात कहना नहीं बोलते कि मेरे लिए 36 बिरादरी बराबर हैं। उन्होंने भी सबसे पहले किसानों के हक में विधानसभा में आवाज उठाई। किसानों को दो-दो लाख रूपए देने का वादा किया और दे भी रहे हैं और किसानों के लिए उनकी किसान रसोई भी चल रही है। इसी प्रकार सोमबीर सांगवान भी कितलाना टोल पर डटे हुए हैं। चर्चाकारों का कहना है कि वह वहां किरण चौधरी और नैना चौटाला को सेंध लगा अपना कद बड़ा कर रहे हैं। यह तो मोटा-मोटा दिखाई दे रहा है।

भाजपा संगठन और सरकार :

किसान आंदोलन से सरकार बैकफुट पर तो नजर आ रही है परंतु ये जिस प्रकार जाट नेता ही दिखाई दे रहे हैं, उससे भाजपा को कहीं राहत भी मिल रही है। भाजपा के पास भी जाट नेताओं की कमी नहीं है। चाहे उसमें प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ हों या कृषि मंत्री जेपी दलाल या पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला या फिर पूर्व वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु।

तात्पर्य यह कि भाजपा नॉन जाट पार्टी कहलाई जाती है। फिर भी ये जाट नेता उसके पास हैं, यह उसकी मैरिट है। जैसे-जैसे यह आंदोलन जाट नेताओं की ओर जा रहा है, वैसे-वैसे यह भाजपा के लिए राहत की बात है, क्योंकि जो किसान नेताओं की ओर से दावे किए जा रहे हैं कि यह अब किसान आंदोलन न होकर जन आंदोलन बन रहा है, उसमें कहीं न कहीं संदेह के बादल छा ही जाते हैं।

इधर भाजपा नेता बराबर गुपचुप मीटिंगे कर रहे हैं। सूत्रों की मानें तो अमित शाह से भाजपा सरकार और संगठन को डांट मिली है कि उनकी जाट आंदोलन से निपटने में कमी रही है, उसे सुधारा जाए।इधर जाट लैंड में भजापा के नेता  अपने सामाजिक कार्यक्रम कर नहीं पा रहे हैं, न मुख्यमंत्री और न ही उप मुख्यमंत्री। सूत्रों के मुताबिक इनकी गुप्त मीटिंगे चलती रहती हैं। आजकल तो ऑनलाइन मीटिंगों का प्रचलन भी चल रहा है।

अब गुरुग्राम की बात करें तो कल यहां भाजपा के अनेक नेताओं का जमघट पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में लगा, जिनमें प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला, कृषि मंत्री जेपी दलाल, सांसद संजय भाटिया व अन्य भी कई वरिष्ठ नेता थे। भाजपा की ओर से उसे प्रेस से दूर रखा गया। और कहीं किसी पत्रकार ने पूछने का प्रयास भी किया तो कहा गया कि स्व. दर्शनलाल जैन के पुत्र को सांत्वना देने के लिए आए थे। यह इत्तेफाक है कि सभी एकत्र हो गए। गौरतलब है कि उनके पुत्र दीपक जैन गुरुग्राम में निवास करते हैं। इन सबका गुरुग्राम में एकत्र होना कहीं इसलिए तो नहीं कि चंडीगढ़ के आसपास जाट बैल्ट में किसान आंदोलनकारी विरोध करने पहुंच जाते हैं। जबकि गुरुग्राम शांत क्षेत्र है। यहां कोई किसान आंदोलन की सरगर्मियां देखी नहीं जा रहीं।

पिछले दिनों ही मुख्यमंत्री मनोहर लाल यहां सामाजिक कार्यक्रमों में बड़े सम्मान शरीख होकर गए। उनके कार्यक्रम करके जाने के पश्चात इंद्रजीत समर्थकों की गुटरग-ू अवश्य सुनी गई कि राव साहब ने कहा था कि तराई क्षेत्र में कार्यक्रम करो, वहां कार्यक्रम करने में मुख्यमंत्री कामयाब नहीं रहे। यह तो हमारे राव साहब का क्षेत्र है जहां वह निर्विघ्न घूम सकते हैं।

इन सब बातों को देखकर यह अवश्य कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन को यदि लंबा चलाना है तो सभी जातियों को नेतृत्व देना होगा, क्योंकि इसमें हर जाति से है और हर व्यक्ति अपने क्षेत्र के व्यक्ति से जुड़ाव अधिक रखता है। वर्तमान में जिस प्रकार भूपेंद्र सिंह हुड्डा अभय चौटाला पर तंज कसते हैं और अभय चौटाला भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर तंज कसते हैं। दोनों ही एक-दूसरे को भाजपा का सहयोगी बताते हैं। क्या इन बातों से आंदोलन को ताकत मिलेगी?

आंदोलन कोई भी हो कभी न तो सरकार के लिए लाभप्रद होता है और न ही आंदोलन करने वालों के लिए। लेकिन आज 85 दिन गुजरने पर भी इस आंदोलन में बातचीत की राह नजर आ नहीं रही।

अब देखना यह होगा कि मुखर होकर हर नेता चाहे वह किसान नेता हो, चाहे राजनैतिक दल का हो या सत्तारूढ़ दल का, यही कहता है कि यह आंदोलन समाप्त होना चाहिए, वार्ता होनी चाहिए लेकिन यर्थाथ में ऐसा दिखाई नहीं दे रहा किसी भी पक्ष की ओर से।

error: Content is protected !!