मशालें लेकर चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के

-कमलेश भारतीय

अजी किसान आंदोलन के चलते बहुत से गीत लोकप्रिय हो रहे हैं और इन गीतों में हाल ही में पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि साहित्यकार घोषित किया गये कवि बलवीर सिंह चीभा का भी है ;

मशालें लेकर चल पड़े हैं
लोग मेरे गांव के

हालांकि यह गीत नया नहीं है, पुराना है लेकिन इस आंदोलन पर फिट बैठने के चलते यह लोकप्रिय होने लगा है । अनेक ग्रुप्स में पढ़ने को मिल रहा है । ऐसे ही एक समय पंजाबी कवि व साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त विजेता कवि सुरजीत पातर की एक कविता आतंकवाद के दिनों में चर्चित हुईं थी :

खूब ने एह झांझरां छनकन लई
कोई चा यानी चाव बी तां
नचन लई,,,

किसान आंदोलन यदि आज पराकाष्ठा पर है तो इसके लिए विपक्ष जिम्मेवार नहीं है । इसकी सारी जिम्मेदारी सत्ताधारी दल पर है क्योंकि इसे गंभीरतापूर्वक हल करने की कोशिश ही नहीं हो रही । यदि गंभिभीरता होती तो नौ दौर की बातचीत की जरूरत ही न पड़ती । अब तक किसानों को शांत व संतुष्ट कर घर भेजा जा चुका होता लेकिन आप तो सर्दी और कोरोना के भयंकर ।ओने की राह देखते जा रहे हैं और पचास किसान दम तोड़ भी चुके हैं लेकिन इनके हौंसले को सलाम । हर मुसीबत झेल कर भी मोर्चे पर डटे हैं । अब सरकार को बैकफुट पर ले आए हैं । सुप्रीम कोर्ट अलग से फैसले सुना रहा है और छब्बीस जनवरी की ट्रैक्टर परेड की तलवार अलग से लटक रही है । किसान अब तक शांतिपूर्वक आंदोलन चला रहे हैं लेकिन यदि केंद्र सरकार का यही रवैया रहा तो आंदोलन का क्या रूप होगा ? सोचने की बात है ।

हर गली शहर में राजनेताओं का बहिष्कार बढ़ता जा रहा है । जिस तरह से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर व डिप्टी स्पीकर रणबीर गंगवा के साथ हुआ , उन संकेतों को समझने की जरूरत है । यदि नहीं सभझोगे तो परिणाम इससे भी ज्यादा खराब होंगे । हालात खराब होंगे । सत्ता एक नशा होती है पर अंध नशा ठीक नहीं । जरूरत है दीवार टर लिखी इबारत पढ़ने की । इसमें विपक्ष कहीं नहीं । यह जनांदोलन बन चुका है ।

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