बेल या जेल… समझे पुलिस और वजीर , सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीम नजीर

पुलिस और वजीर आजादी के अधिकार को नहीं बना सकते बंदी.
गूंजा वंदे मातरम – वंदे मातरम और भारत की जनता की जीत

फतह सिंह उजाला

आजादी-बेल आम आदमी का मौलिक अधिकार है । किसी भी मामले में कोई भी व्यक्ति, कैदी हो या फिर किसी भी हिरासत में फिर भी बेल-आजादी संबंधित व्यक्ति का मौलिक अधिकार है । बीते एक सप्ताह के दौरान पत्रकार और एडिटर अर्णब गोस्वामी प्रकरण को लेकर जो कुछ भी कथित मनमानी कानूनी दांवपेच का खेल खेला गया, उस सारे खेल का बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने पटाक्षेप करते हुए विधायकों और पुलिस को एक नसीहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीम नजीर सहित नसीहत पेश की है ।

गंभीर अपराध में सजायाफ्ता व्यक्ति भी बेल का अधिकारी है । यह एक संक्षिप्त सार और संदेश बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच के द्वारा दिया गया । बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा जो भी अपना फैसला दिया गया वह अब एक नजीर बन चुका है और इस नजीर की लकीर को लांघना या फिर उल्लंघन करना संभव नहीं रहेगा । पत्रकार और एडिटर अर्णब गोस्वामी प्रकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट पर्ल चैधरी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि नेचुरल जस्टिस बहुत जरूरी है । रूल ऑफ लाॅ की अनदेखी नहीं की जा सकती । कानून सभी के लिए बराबर है, जेल हो या फिर बेल का मामला हो । बेल हर व्यक्ति का कानूनी और मौलिक अधिकार भी है । बेल के लिए रोकने के वास्ते बाध्य नहीं किया जा सकता । इसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट राकेश मुद्गल का भी साफ साफ कहना है कि महाराष्ट्र की विधायिका और पुलिस के द्वारा अपनी सुविधा के मुताबिक कानून को मोल्ड किया गया । यही कारण रहा कि सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा पत्रकार अर्णव की बेल के मामले की सुनवाई करते हुए तल्ख टिप्पणियां भी की गई । एडवोकेट राकेश मुदगिल के मुताबिक मीडिया पूरी तरह से स्वतंत्र है। यह बात अलग है कि कोई मीडिया के सवालों से सहमत हो सकता है और कोई नहीं होता ? उन्होंने कहा राजनीति प्रेस की आजादी पर लगाम कसने का नाकाम प्रयास करती दिखाई दी । वही महाराष्ट्र सरकार मुंबई पुलिस और अर्णब प्रकरण में रूल आफ लॉ की अनदेखी कर कानून को अपनी सुविधा के मुताबिक ढ़ालने का कथित प्रयास भी किया गया । यही ठोस कारण रहा कि जब बेल किसी भी आदमी का कानूनी और मौलिक अधिकार है तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को अंततः दखल देना ही पड़ा ।

पत्रकार एडिटर अर्णब प्रकरण को लेकर जो कुछ भी हुआ , महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस के द्वारा किया गया उसे अब दोहराने की कोई जरूरत ही नहीं है । लेकिन आम आदमी हो, उद्योगपति हो , मजदूर हो, नेता हो , अभिनेता हो । बेल कानूनी और मौलिक अधिकार है । इसी अधिकार को कथित रूप से मुंबई पुलिस और विधायिका के द्वारा रोकने के लिए जो भी कानूनी दांव पेंच खेला जा सकता था, वह अंतिम समय तक महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर खेला गया। अंततः जीत सत्य की हुई , बेल सत्य को मिली। सुप्रीम कोर्ट की फटकार किसके पाले में गई , सुप्रीम कोर्ट ने किस को नसीहत दी , यह भी सभी के सामने हैं । यहां यह बात कहने में कोई गुरेज नहीं की पत्रकार एडिटर अर्णब गोस्वामी के साथ-साथ बुधवार को देश के आम आदमी को भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आजादी-बेल का मौलिक अधिकार बता दिया गया , अधिकांस लोग जानते ही नहीं होंगे ।

बुधवार देर रात पत्रकार एडिटर अर्णब गोस्वामी जब तलोजा जेल से बाहर आए , तो एक ही नारा उनकी जुबान था कि, वंदे मातरम -वंदे मातरम, यह भारत की जनता की जीत है । बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद में निश्चित ही कथित रूप से महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस को भी जोर का झटका धीरे से लगना स्वाभाविक बात है । मीडिया अर्थात पत्रकारों को सवाल पूछने का सवैंधानिक-मौलिक अधिकार है, जवाब देना या ना देना यह सामने वाले की मर्जी कहे या उसका अधिकार भी कहा जा सकता है । लोकतंत्र में पत्रकारिता और मीडिया को चैथा स्तंभ माना गया है । बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसी को यदि कोई समाचार पत्र अथवा न्यूज चैनल पसंद नहीं है तो उसको देखने के लिए या फिर सुनना अथवा पढ़ना किसी पर भी जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता । बहरहाल बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार एडिटर अर्णब गोस्वामी को बेल देकर यह बात स्पष्ट कर दी है कि किसी को भी सर्वोच्च अदालत में फरियाद करने और बेल मांगने से नहीं रोका जा सकता है । अब यह भविष्य के गर्भ में है की टीआरपी से आरंभ हुए खेल को लेकर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बेल प्रदान की जाने के बाद अर्णव के तीखे सवालों के धमाकों को दीपावली के मौके पर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस कितना और किस हद तक स्वीकार करने का साहस दिखाएगी ? 

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