उमेश जोशी बरोदा में कुछ घंटों का प्रचार बचा है और कुछ घंटों ही प्रचार किया है, मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री, दोनों दिग्गजों ने। थोड़े समय के प्रचार में दोनों को इतना ज्ञान तो हो गया होगा कि विजय की राह में कांटे ही कांटे हैं। डगर कांटों भरी हो तो मंज़िल तक पहुंचने में संशय रहता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनेताओं की मजबूरी होती है कि वे आखिरी पल तक अपना संशय ज़ाहिर नहीं करते; विजय का ही दावा करते हैं; खासतौर से विपक्ष के उस उम्मीदवार की जमानत जब्त करवाने का डंका पीटते हैं जिससे हार का खतरा महसूस करते हैं। नेताओं के भीतर व्याप्त भय मापने का यही पैमाना होता है कि कौन-सी पार्टी के नेता बार बार किसी की जमानत जब्त करवाने का दावा कर रहे हैं। जो जीत रहा है वो किसी को जमानत जब्त करवाने का भय नहीं दिखाता। जो भयभीत हैं उन्हीं का भय तरह तरह के दावों के रूप में बाहर निकलता है। अब बरोदा के मतदाता खुद समझ जाएं कि वो कौन वीर हैं जो किसी की जमानत जब्त करवाने की रट लगाए हुए हैं। एक सीट पर उपचुनाव का हर बार और हर जगह एक जैसा चरित्र होता है। उस सीट पर हार जीत से सरकार पर कोई संकट नहीं आता; सरकार तो सुरक्षित रहती है लेकिन चुनाव जीतने की ज़िम्मेदारी का बोझ उठाए नेताओं का भविष्य असुरक्षित हो जाता है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर ज़्यादा संकट मंडराता है क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी के सारे साधन होने के बावजूद चुनाव में हार यह साबित करती है कि नेतृत्व कमज़ोर है और कमज़ोर नेतृत्व वाली पार्टी का भविष्य खतरे में होता है। सत्तारूढ़ पार्टी के पास मतदाताओं की लुभाने के लिए साम, दाम, भेद की नीति होती है। परोक्ष रूप से दंड की नीति भी हो सकती है। विपक्ष इन चारों नीतियों में अपेक्षाकृत कमज़ोर रहता है फिर अगर वो जीत हासिल कर ले तो साधन संपन्न सत्तारूढ़ की फजीहत तो होनी है। हार की चोट खाए नेताओं का रुतबा पार्टी हाईकमान में कम हो जाता है। वहाँ रुतबा कम होने का मतलब है पार्टी के दूसरे नेताओं में सम्मान कम होना। यह ग्राफ लगातार गिरने से एक दिन उनकी गद्दी भी छिन जाती है। विपक्ष से विजय की ज़्यादा उम्मीद नहीं होती क्योंकि उसके पास मतदाताओं को देने के लिए कुछ नहीं होता। वह सिर्फ वायदे दे सकता है या सरकार की नाकामियाँ बता सकता है। विपक्ष उपचुनाव इसलिए नहीं लड़ता की एक सीट की जीत से सत्ता परिवर्तन हो जाएगा। विपक्ष इसलिए जीत के लिए ज़ोर लगाता है कि जनता की नज़रों में सत्तारूढ़ दल की साख गिरी हुई नजर आए जिसका उसे अगले आम चुनावों में फायदा मिल सके। यदि विपक्ष उपचुनाव हारता है तो राज्य में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रभावहीन साबित हो जाता है। ऐसे में पार्टी हाईकमान राज्य में नेतृत्व परिवर्तन भी कर सकता है। बरोदा उपचुनाव में जो भी हारेगा उसके सामने कई चुनौतियां होंगी। Post navigation बरोदा में कमल खिलाने के लिए सीएम व डिप्टी सीएम आज फिर उतरेंगे मैदान में मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री और सभी विरोधियों को सता रही है सिर्फ मेरी चिंता, मुझे हैं बरोदा हलके और पूरे हरियाणा की चिंता- हुड्डा