उमेश जोशी

बीजेपी 2014 में मोदी लहर में भी बरोदा सीट नहीं जीत पाई; 2019 में भी यह सीट गँवा दी थी; सिर्फ एक साल पहले 75 प्लस का सपना पूरा करना तो दूर साधारण बहुमत भी नहीं ले पाई थी और बीते एक साल में उपलब्धि के नाम पर कई घोटाले भी इसके खाते में आ गए हैं। इस रिपोर्ट कार्ड के बावजूद बीजेपी किस आधार पर उपचुनाव जीतने का दावा कर रही है; किसानों की भारी नाराजगी के बावजूद बीजेपी का मनोबल बढ़ने के क्या कारण हैं, बीजेपी इनका खुलासा नहीं कर रही है। बीजेपी को जीत दिलाने वाले कारण किसी भी राजनीतिक पंडित को धरातल पर दिखाई भी नहीं दे रहे हैं। 

1 नवंबर 1966 को हरियाणा के गठन के बाद से बरोदा सीट पर ना जनसंघ और ना ही बीजेपी को कभी जीत नसीब हुई है फिर भी बीजेपी तीन बार लगातार काँग्रेस के कब्जे में रही यह सीट अपनी झोली में डालने का दावा कर रही है। इस दावे का ठोस आधार नज़र नहीं आ रहा है। चुनाव जीतने का कोई जादू बीजेपी के पास हो तो दीगर बात है।

ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी की सरकार ने पिछले छह साल में बरोदा हलके में ताबड़तोड़ विकास कार्य करवाए हैं। छह साल भूल जाएं, सिर्फ छह महीने का काम बता दें। 12 अप्रैल 2020 को विधायक श्रीकृष्ण हुड्डा के निधन के बाद यह तो तय था कि छह महीने बाद यहाँ उपचुनाव होगा। यह भी तय था बीजेपी को चुनाव में उतरना है। आचार संहिता लागू होने से पहले एक-दो काम करवा कर विकास के नाम पर ही वोट मांग सकती थी। बीजेपी खुद से ही एक सवाल पूछे कि मतदाता आपको वोट क्यों दे। जो जवाब मिले उसी आधार पर मतदाताओं को संतुष्ट करे।

यह इत्तेफ़ाक़ ही है कि उपचुनाव से पहले तीन कृषि अध्यादेशों पर बवाल हो गया था। किसानों की नाराजगी के बीच कृषि बिल पास हो गए; आनन-फानन में राष्ट्रपति के दस्तखत हो गए।  किसानों के विरोध का स्वर दबाने के लिए बल प्रयोग भी किया गया। बाद में, उनसे ‘सॉरी’ कहने के बजाय प्रदेश के गृहमंत्री साफ नकार गए कि कोई लाठीचार्ज नहीं हुआ। क्या इस रवैये से किसान खुश होंगे? क्या बीजेपी किसानों से अब भी अपेक्षा करती है कि वे सब भूल कर बीजेपी को गले लगा लेंगे। बीजेपी ने इलाके को कुछ दिया होता तो किसान निश्चित तौर पर अपना रूख नरम कर देते। एक करेला, दूसरा नीम चढ़ा यानी कोई विकास नहीं हुआ, ऊपर से तीन कथित काले कानून थोंप दिए गए फिर भी बीजेपी किसानों से समर्थन की आस लगा कर चुनाव लड़ रही है तो साधारण इंसान बीजेपी के इस साहस को समझ नहीं पा रहे हैं। 

मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर समेत समूची बीजेपी अपनी नाकामी का दोष विपक्षी दल काँग्रेस पर मंढ़ रही है। खट्टर कह रहे हैं कि काँग्रेस किसानों को बहका रही है। खट्टर साहब! आपको मर्ज मालुम हो गया है तो इलाज क्यों नहीं कर लेते। इस मर्ज के इलाज के लिए कहीं से हकीम भी नहीं लाना है। आप और आपके छोटे बड़े सभी नेता मिलकर इस मर्ज का इलाज कर सकते हैं। माना कि काँग्रेस किसानों को बहका रही है तो उन्हें समझाइए ना! किसानों को समझाने का काम आपको ही करना है; कोई विदेश से नहीं आएगा। आप सभी किसानों के बीच जाएं और उन्हें समझाएं। बहकाने के मर्ज का एकमात्र  इलाज यही है। अभी तक किसानों को तीन कानूनों के बारे में नहीं समझाया है तो अहम सवाल यह है कि उन्हें समझाने से आपको कौन रोक रहा है? आपकी सरकार है, आपके पास ताकतवर तंत्र है फिर भी आप किसानों को क्यों नहीं समझा पा रहे हैं? यदि कोशिश के बावजूद किसान नहीं समझ रहे हैं तो भी बड़ा सवाल यह है कि यह किसकी नाकामी है? इससे यह भी साबित होता है कि बीजेपी के पास काँग्रेस की काट नहीं है। आपने वो मुहावरा तो सुना होगा- नाच ना जाने आँगन टेढ़ा।

पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को विकास कार्यों पर खुली डिबेट करने की चुनौती भी दी है। बीजेपी के लिए अच्छा अवसर है काँग्रेस पर खुद को भारी साबित करने का। बीजेपी चुनौती स्वीकार कर जनता को क्यों नहीं दिखा देती कि हमारी कमीज काँग्रेस की कमीज से ज़्यादा सफ़ेद है। खट्टर साहब को अच्छा अवसर मिला है फिर भी उस अवसर का लाभ नहीं उठा रहे हैं। इससे जनता यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि विकास के दावों में दम नहीं है। 

error: Content is protected !!