धनंजय कुमार

गद्दार, नायक-खलनायक, चुन्नू-मुन्नू और अन्नू, भूखा-नंगा, रावण से भी गया बीता चेहरा, काला अंग्रेज, टंच माल, आयटम, जलेबी और न जाने क्या-क्या इस चुनाव में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का जबर्दस्त दौर इस उप-चुनाव में चल रहा है। मर्यादाएँ पूछ रही है कहाॅ हैं हम। क्या? प्रचार-प्रसार का स्तर इस हद तक गिर गया हैं कि अब भी संभला न जा सकें। इस पर ये कमेंट मुझे नाम याद नहीं रहा। अरे, डेढ़ साल जिसके साथ मिलकर केबिनेट में मीटिंग करते रहें। उसका नाम भूल गए। ऐसा कैसे हो सकता हैं। वो भी सिर्फ इसलिये कि आपके दल से दूसरे दल में व्यक्ति अपनी निष्ठा बदलकर चला गया। सवाल यह उठता हैं कि एक समय में इतने बडे़-बडे़ पदों पर केन्द्र सरकार में आसीन रहा व्यक्ति, पूर्व महिला प्रधानमंत्री का तीसरा बेटे के नाम से जाने, जानेवाला व्यक्ति अपना आपा इस तरह खो देगा।

इससे क्या होगा, होगा यहीं कि गर्त में जा रहे दल को एक और धक्का इस तरह की बयानबाजी से लगना तय है। वरन् जिन लोगों और आम जनता की नजरों में तारे की तरह चमक को खोने का डर जिसे ना हो वहीं इस तरह आपा खो सकता है। प्रदेष स्तर पर जो दल का पापा हो, उसका आपा खोना क्या इतना सहज है। नहीं? यह सिर्फ कुछ हजार की भीड़ में अपनी खुन्नस निकालकर एक महिला को अपमानित करने का सिर्फ एक तरीका है? जिसे सही तो कतई नहीं ठहराया जा सकता। 

जब बच्चा गर्भस्थ होता हैं तब उसके ऊपर माँ बाप की सोच का प्रभाव पड़ता हैं, जन्म लेने के बाद उसके परिजन, परिवेश का प्रभाव पड़ता। पाठषाला जाने पर अपने शिक्षकों का और पढाई के बाद नौकरी, व्यवसाय का, धार्मिक क्षेत्रो में संत, गुरुओं का और राजनीति में किसी को आदर्श बनाते या मानते हैं। इसका अर्थ संस्कार जन्मजात मिलते या रहते हैं। हम राजनीती की चर्चा करे तो इस समय जो उप-चुनाव चुनाव हो रहे हैं, उसमे जीतने के लिए जितनी अधिक अपमानित करने की भाषा का प्रदर्शन हो रहा हैं वह अकथनीय हैं। यानी जिन्हें जनता अपना आदर्श मानती हैं उन्होंने अपने योग्यता, भाषण शैली और संस्कार का धज्जियाँ बिखेर दी है। क्या? चुनावों में जीत ही सब कुछ मायने रखती हैं, मैं समझता हूॅ हार का भी अपना एक अलग महत्व होता हैं। उसमें चिंतन होता हैं कि क्यों हारे। आखिर हार में भी तो कई बार जीत छुपी होती हैं। सामने वाला देखता हैं आपकी क्षमताओं को, आपकी मेहनतों को, इमानदार छवि को, आप किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं उसको। वह देखता हैं कि आप सही जगह थे परंतु आपके आस-पास का वातावरण और साथ में गलबहियाॅ डाले लोग गलत थे। जिसके कारण वह हार गया। दलों के दलदल में भी छवि का निर्धारण कर सफलताओं को हासिल किया जा सकता हैं। बषर्तें आप दुनिया की नजरों में स्वच्छ और निर्मल छवि के व्यक्ति हो। कोई व्यक्ति बार-बार याद दिला रहा हो कि मेरी तरफ ध्यान दो, मैंने भी मेहनत की हैं। तब उस पर ध्यान दिया जाना आवष्यक था। न कि अनदेखा करना। आज जब वह पूरा कुनबा उठाकर ले गया तब

भी न संभले और दंभ में विलाप करते रहें तो उसका अर्थ ही क्या? राजा थे तो राजा जैसा बड़ा दिल रखते। आपकी योजनाओं से प्रजा भी सुखी रहती और मान भी बढ़ता।  

आजकल इन नेताओं की खाल या कहें चमड़ी इतनी मोटी हो गई हैं या दूसरे शब्दों में इतने बेशर्म और बेहया हो गये हैं की इनको किसी भी बात पर बुरा नहीं लगता और लिहाज शब्द का तो कोई अर्थ रह ही नहीं गया। पता नहीं इस कुर्सी में इतना अधिक आकर्षण क्यों होता हैं, जबकि वह लकड़ी की बनी हैं और वह कुर्सी जूठी या दूसरे द्वारा त्यागी गयी हैं उसके लिए अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाना कहाॅ तक उचित है। इन दिनों नई नवद संज्ञाएॅ और विशेषणों का उपयोग किया जा रहा हैं, भविष्य यदि मिला तो आने वाली पीढ़ी उनसे क्या ज्ञान लेगी। यह समझ से परे है। वर्तमान में मतदाता इस भ्रम में हैं कि किस वृत्ति के नेता को जीत की वरमाला पहनाये। ताज्जुब तो इस बात पर हो रहा हैं की जिस कोष या पार्टी में जन्म लिया था उसे ही कोस रहे हैं। तीस पर जब ध्यान नहीं रहता तो जिस पार्टी की नई-नई सदस्यता ली है उसके मुखिया को भी बत्ती दे रहे है। अनजाने ही सही ध्यान आने पर जुबान फिसलने की संज्ञा दे रहे है। जब ये अपने अभिभावक या जन्मदाता के नहीं हुए तब किसके होंगे। बाद में इनके मुखारबिंद से चारित्र, ईमानदारी और नैतिकता की बात कैसे होगी यह देखना होगा। अब तो नेता यानी जिसमे पानी का गुण होता हैं और जो सब में मिल जाता हैं। क्या? हम स्वर्णिम भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं और ऐसे अवसर अब हर छह माह में आये जिससे अंतरंग भड़ास और विषवमन करने का अवसर प्राप्त हो। ये कैसा चुनाव हैं किसका चुनाव हैं और किसके लिए चुनाव हैं। इस पर अर्ज किया हैं-

अपनी चमक को गहरा कर, रंग पानी में घुलने चला आया था। जब रंग ही असल न रहा, चढ़ता कैसे, उसे तो उतरना ही था।

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