डा. सुरेश वशिष्ठ, गुरुग्राम मेरी आकांक्षाओं और पिपासित होठों को उसने शांत कर दिया । जीवन में खुशी का अविरल स्रोत बहने लगा । तूफान, उसे मिलने के बाद ठहर जाता । शून्य जाता रहा और महसूस होता कि उत्साह का स्पंदन तीव्र होने लगा है । एक रोज उसने कहा– “हमारा रिश्ता क्या है ?” शरीर में कंपन प्रारंभ हुआ और उसकी नशीली आंखों में मेरी बोझिल आँखें स्वत: डूबने लगी । मैंने उसे बाहों में भर लिया । दोनों की आंखें बंद हुई । झुरझुरी दौड़ी और हम लिपटने लगेे । हाथों का कसाव बढ़ने लगा । मैंने कहा– “तू मेरी प्राण है । जिंदगी है । तूने मुझे तड़प और विलाप नहीं, खुशी और चहक दी है । मन को शांत किया है । थपेड़ों को किनारा दिया है । हम एक हैं और यही हमारा रिश्ता है ।” उसका मासूम सा दिखाई देने वाला मुखड़ा चमक उठा । तन-मन झूम उठा । हमारी किलकारियोंं को लेकर पवन उडा और दिशाएँ चहकने लगी । मन-मयूर नाच उठा, झूम उठा । हर दिन सुहाना होता । हर साँँझ दीवानी और रात पगलाई । दिन बीते, साँँझ मुस्कुराती आती रही और रंगीन राते जाती रही । ऐसी कोई साँँझ, दिन अथवा रात नहीं थी, जिसे सूना कहा जाए । साथ बढ़ता गया और मैं उसके साथ रहने का अभ्यस्त होने लगा । लगने लगा कि शायद उसके बगैर इस संसांर में रह नहीं पाऊंगा । वह हर पल यादों में रहती । महकती, खिलखिलाती और मुझे चहक देकर चली जाती । धीरे-धीरे समय बदलता रहा । साँझ ढलती रही । रात जाती रही और दिन निकलता रहा ।…और एक दिन स्वतंत्र चहकती हुई वह आई । हाथों में सोने के कंगन । बाएं हाथ की अंगुली में चमकती अंगूठी । मांग में सिंदूर । कपोलोंं पर चिकनाई और आँखों में चमक लिए । उसी लहर -सी वह आई ।…उसने मुझसे पूछा–“अब कैसे रह पाओगे बावरे बलमा? ” मैं कुछ समझ नहीं सका । सकपकाया और कुम्हलाया, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया । वह जोर-जोर से हंसी । कोयल-सी कूकी और नाचने लगी मयूरी-सी । कुछ-कुछ समझने के-से भाव में, निर्बल और अपराधी-से मेरे मन ने उसे समझ लिया । उसे नाचते देखा तो पूछ ही लिया–“हाथों में कड़े, मांग में सिंदूर, हाथ में अंगूठी–आखिर बात क्या है ?” वह और जोर से हंसी । खिलखिलाई और मुझे महसूस हुआ कि अंधेरा घिरने लगा है । मन की अभिलाषाएँ टूटकर बिखरने लगी हैं । झपटकर उसे कमर से पकडा और कहा–“बताओ तो, आखिर बात क्या है ?” उसने मेरा हाथ धीरे से हटाया और मेरी आंखों में घूरती हुई कहने लगी–“पागल भँवरे, इतना भी नहीं समझते ! अरे शादी होने वाली है मेरी । कल लड़के वाले आए और मुझे अपनाकर चले गए । अब कहो– क्या लगती हूूँ तुम्हारी ?” नजरें झुक गई । बबूल के कांटे-सा अंदर कुछ चुभने लगा । वह बार-बार हँसती रही और झूमती रही, चहकती, नाचती रही । मेरा अशांत मन सुलगने लगा । फफकने लगी फडकन और धड़कन बढ़ने लगी । लौ जल रही है और पगलाया भँवरा उसके आसपास भटकता हुआ, चकराता हुआ, फफकता हुआ घूम रहा है ।उसके दिल को चैन नहीं है । सुध-बुध खो बैठा है । कुतुर-कुतुर कर किसी ने उसके दिल में घाव कर दिए हैं । वह गली-गली किसी को ढूंढता फिरता है । लोग उसे बावरा कहते हैं ।वाह ! वाह ! मयूरी नाच…मीठे, लजीले कोयल-सी कूक के से तेरे शब्द, संवाद ! मिलन की साँझ, रात्रि और दिवस…वाह ! वाह !.. Post navigation हिंदी दिवस विशेष : मातृभाषा सीखने से भविष्य की पीढ़ियों को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ संबंध बनाने में मदद मिलेगी किसानों पर लाठीचार्ज निंदनीय- चौधरी संतोख सिंह