-धनंजय कुमार

कंगना-राऊत विवाद में महत्वपूर्ण आम आदमी अमिताभ बच्चन की एक फिल्म ‘गिरफ्तार‘ जो 1985 में आई थी। उसका एक गाना है, ‘धूप में निकला ना करों…‘ मैं उसकी बात नहीं कर रहा। इसका एक और गाना हैं-‘आना-जाना लगा रहेगा, दुःख जायेगा सुख आयेगा…‘ आज तक अपनी कर्मभूमि से कौन जुदा हुआ है। न आप न मैं। फिर कंगना रणौत की तो बात ही क्या? उसे तो आना ही था, आखिर जाएगी कहा। आई और डंके की चोट पे आई, अपने स्वभाव के अनुरूप उन्हें जो-जो बोलना था वो बोल गई। बहुत कुछ ज्यादा भी बोल गई। वह भी चुनौती और चेतावनी भरे अंदाज में वह भी मुख्यमंत्री को। सवाल यह उठता हैं कि इस तरह से इस विवाद को हवा देने की आवश्यकता थी। बिना एक शब्द बोले बिना ही उद्धव ठाकरे निशाने पर आ गये। बीएमसी सहित पूरी सरकार भी कटघरे में खड़ी हो गई। यहॉ तक कि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार और कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने भी इस पर अपना विरोध दर्ज करवाया। कंगना के वकील रिजवान सिद्धीकी ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा-‘बीएमसी ने जो नोटिस दिया, वो अवैध था। कर्मचारी अवैध तरीके से ही परिसर में दाखिल हुए। साफ समझ में आता है कि बीएमसी पहले से ही बिल्डिंग गिराने के लिए तैयार थी। क्या? सोफे-कुर्सिया और अलमारियॉ भी अतिक्रमण में आती है।‘ 7 सितम्बर को नोटिस चस्पा करना भी संदेह के घेरे में आ ही गया। वो तो भला हो हाईकोर्ट का जो उसने रोक लगाई नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता।   

इस विवाद की बानगी भी देखिए कि बयानबाजी के एक दिन बाद ही संजय राऊत का प्रमोशन भी मुख्य प्रवक्ता बतौर हो जाता हैं। इसका अर्थ यह हैं कि पूरी पार्टी ही उनके साथ खड़ी हुई है। भले ही कंगना के पीछे बॉलीवुड (सिर्फ अनुपम खेर और प्रसून जोशी को छोड़कर) भले ही न खड़ा हुआ हो, परंतु एक बात और साफ हुई कि इस पूरे मामले में कंगना अकेली भले ही खड़ी नजर आई हो। उन्हें राजनीतिक रूप से करणी सेना और आठवले की पार्टी आरपीआई के साथ-साथ आम जनता का सपोर्ट अवश्य ही मिला हैं। चैनलों पर साफ नजर आ रहा था कि सत्ताधारी पार्टी का विरोध इन दोनों (करणी सेना व आरपीआई) के आगे फीका-सा रहा। यहॉ तक कि पॉली हिल इलाके में महिलाएँ कंगना के सपोर्ट में उतर आई। न तो वे किसी राजनीतिक दल की थी और ना ही किसी और संगठन से जुड़ी थी। एक महिला पर की गई अभद्र टिप्पणी और महिलाओं के अस्तित्व की लड़ाई को उन्होंने गंभीरता से लिया था। इससे यह साफ होता हैं कि इन महिलाओं और आमजनों का विरोध बीएमसी ही नहीं वरन् सरकार के खिलाफ भी था। अब तक होता यह था कि महाराष्ट्र की इस सत्ताधारी पार्टी के पास बड़े से बड़ा विवाद सुलझाने और उसमें मदद की आस लिए लोग (बॉलीवुड के भी उदाहरणार्थ ‘शहंशाह‘ की रिलीज के समय अमिताभ बच्चन और संजय दत्त प्रकरण में सुनील दत्त व राजेन्द्र कुमार) जाते थे। अब इसमें अंतर यह आ गया हैं कि कंगना के खुलकर बोलने से इस पर सवालिया निशान लग गया है। इससे यह भी साफ हो जाता हैं कि इस पार्टी ने इस विवाद में क्या खोया और क्या पाया? इसका आत्म विश्लेषण तो उन्हें ही करना होगा। आने वाले समय में सरकार की स्थिरता पर भी इसका दूरगामी परिणाम हो सकता है। जैसा कि पवार और निरूपम के बयानों से जाहिर होता है।        

आज जब मीडिया इतना मुखर हो गया हैं कि चैनल में बैठकर पत्रकार पार्टी के नेताओं को बहस की चुनौती देने से भी हिचकिचा नहीं रहा है। ऐसे में राजनीति का रूख किस तरह का हो यह भी दलों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। सबसे बड़ी बात आम आदमी भी कैमरे के सामने आने से भी पीछे नहीं हट रहा है। वह मुखर होकर सरकारों के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए तैयार रहता है। जैसा कि कंगना के समर्थन में आये आम लोगों से अंदाजा लगाया जा सकता है।

        पुनश्चः इससे यह साबित होता हैं कि दलों के नेताओं को बयानबाजी करने में अपना समय व्यर्थ न कर संकटों से कैसे निपटना हैं इस पर ध्यान दें तो अच्छा हो जिससे सरकार को भी सहायता मिले। निरर्थक विवादों से दलों की छवि पर ही असर पड़ता है। आम आदमी उसके विरोध में खड़ा हो जाता है। पार्टी और आम मतदाताओं के विश्वास की डोर ऐसे ही समय टूटती हैं जो लम्बे समय तक टीस का काम करती है। राऊत की पार्टी को इससे क्या लाभ हुआ। यह तो भविष्य के गर्भ में है। हा, इससे आम आदमी महत्वपूर्ण बनकर जरूर उभर आया है। 

  

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