लघुकथा के साथ आधी सदी

-कमलेश भारतीय

लघुकथा के साथ मेरा आधी सदी का सफर पूरा होने पर मेरा यह एक सौ लघुकथाओं का संग्रह आपके हाथों में होगा । मुझे इस बात की खुशी है कि डाॅ नरेंद्र मोहन ने यह अवसर बनाया और उनका कहना था कि कम से कम सौ लघुकथाओं को एक बार पाठकों तक पहुंचाना है , यह सोच कर संग्रह तैयार करना है । हालांकि इतनी सी बात में भी मेरी सौ लघुकथाएं ही हैं लेकिन इन सौ लघुकथाओं में मेरी नयी रचनाएं भी हैं । यह बात चौदह नवम्बर की है । हम दिल्ली में डाॅ नरेंद्र मोहन के आवास पर थे । हिसार लौट कर मैंने इस पेशकश को देखकर लघुकथा संकलन की तैयारी शुरू कर दी ।

सबसे पहले मुझे सन् 1970 याद आया । जब अपने काॅलेज के प्राध्यापक महेंद्रनाथ शास्त्री की देखरेख में स्वयं लघुपत्रिका प्रयास का प्रकाशन शुरू किया । मैं बीए प्रथम वर्ष का छात्र था । प्रवेशांक में ही दूसरे अंक को लघुकथा विशेषांक के रूप में लाने की घोषणा कर दी । यह निकला भी और चर्चित भी हुआ क्योंकि इसका जिक्र सारिका जैसी लोकप्रिय पत्रिका में हुआ ।

पंजाब के एक छोटे से कस्बे नवांशहर से निकली पत्रिका को रेखांकित करने से सबका ध्यान मेरी ओर गया । आप कह सकते हैं कि मेरा लघुकथा से जुड़ना एक संपादक के रूप में हुआ और मैंने खुद अपनी पहली लघुकथा किसान इसी में प्रकाशित की । फिर कागज़ का आदमी और सरकार का दिन । अन्य अंकों में आईं । आज इन पर विचार करता हूं तो मुझे मुंशी प्रेमचंद स्मरण हो आते हैं क्योंकि मैंने उनसे ग्रामीण परिवेश पर लिखने की प्रेरणा ली । मेरे परिवार की पृष्ठभूमि ग्रामीण ही थी और संभवतः यही एक पुल था मेरा मुंशी प्रेमचंद जी तक जोड़ने वाला । इस डगर पर चलते मैंने अब क्या देंगे , ओले आदि लघुकथाएं भी लिखीं ।

इसके आगे के पड़ाव तक मेरी दोस्ती रमेश बतरा से हो गयी और मैं छोटे से कस्बे से उठ कर हर वीकेंड पर चंडीगढ़ उसके पास जाने लगा । बाद में दिल्ली तक मेरे वीकेंड चले रमेश के साथ । लघुकथा पर हमारी निरंतर चर्चा और संवाद शुरू हुआ । मुझे अच्छी तरह याद है कि रमेश ने शाम लाल मेंहदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर का संपादन अपने हाथ में ले लिया । लघुकथा विशेषांक निकाल रहा था वह । मैं हिमाचल से लौटा था । अपनी एक मित्र की शादी से । प्रेस में बैठे थे । जब रमेश ने लघुकथा मांगी और मैंने प्रेस की टीन की प्लेट लेकर लघुकथा लिखी -कायर । रमेश ने पढ़ी तो उछल पड़ा और कहा कि जहां भी मैं संपादन करूंगा इस लघुकथा को हर बार प्रकाशित करूंगा । यह एक असफल प्रेम की लघु कथा है । इसके बाद वीरप्रताप ने सन् 1972 में लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित की । वीरप्रताप उन दिनों पंजाब , हिमाचल और हरियाणा के लोकप्रिय अखबारों में से एक था । मेरी लघुकथा आज का रांझा सर्वप्रथम रही । यह भी एक प्रेम कथा थी । पता नहीं कैसे मैंने एक नहीं , दो नहीं अनेक प्रेम लघुकथाएं लिखीं । सर्वोत्तम चाय बहुचर्चित रही । अभी इसी वर्ष एक बार फिर और खोया हुआ कुछ जैसी प्रेम कथाएं लिखीं । कभी गीता डोगरा ने पारसमणि में एक साथ मेरी प्रेम लघुकथाएं प्रकाशित की थीं । वैसे ऐसे थे तुम और मैं नहीं जानता भी खूब चर्चित रहीं ।

नवांशहर में रहते ही प्रथम लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद डाॅ महाराज कृष्ण जैन के तारिका प्रकाशन से निकाला । फिर सन् 1992 में आतंकवाद की रचनाओं को प्रमुखता से लेकर अपना दूसरा संकलन दिया -इस बार । तीसरा संकलन दिया-ऐसे थे तुम और चौथा संकलन दिया -इतनी सी बात । इस संकलन का पंजाबी में अनुवाद करवाया डाॅ किरण वालिया ने अपने काॅलेज की ओर से-ऐनी कु गल्ल के नाम से । आभार । चारों लघुकथा संग्रह खूब पहुंचाये पाठकों तक । डाॅ जैन ने जो भूमिका मेरे मस्तराम जिंदाबाद संग्रह की लिखी वह आज भी मेरे लिए प्रेरक है । लघुकथा के शोधार्थियों के लिए भी । अब पांचवां लघुकथा संग्रह आयेगा -एक बार फिर । जिसका नाम है -मैं नहीं जानता ।

रमेश बतरा के साथ मेरी दोस्ती और लघुकथा का सफर उसकी अंतिम सांस तक चलता रहा । कभी हमने सिर्फ संवादात्मक लघुकथाएं लिखीं । कभी सारिका में रहते रमेश ने मुझ से विशेषांकों के लिए लघुकथाएं लिखवाईं जैसे परदेसी पांखी, चौराहे का दिया, दहशत और मैं नाम लिख देता हूं । बेशक मैं कहानियां भी लिखता रहा और मेरे छह कथा संग्रह भी हैं । कहानियां धर्मयुग , सारिका, कहानी और नया प्रतीक में आईं । एक संवाददाता की डायरी को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पुरस्कार मिला तो प्रथम संग्रह महक से ऊपर को भाषा विभाग , पंजाब की ओर से सन् 1982 वर्ष की सर्वोत्तम कृति का सम्मान । बड़ी बात यह कि क्या संपादक की मांग पर भी श्रेष्ठ रचना लिखी जा सकती है ? मैं सच कहता हूं कि रमेश ने मुझसे जो रचनाएं लिखवाईं वे मेरी श्रेष्ठ लघुकथाओं में शामिल हैं । मुझे मंटो और जोगिंदर पाल की लघुकथाएं बहुत आकर्षित करती रहीं और कुछ लघुकथाओं पर उनका प्रभाव देखा जा सकता है । ओशो और निर्मल वर्मा की भाषा का जादू सदैव खींचता रहा । उपहार ओशो की भाषा व विचार विमर्श के निकट है । प्रसिद्ध लेखिका राजी सेठ व उनका पूरा परिवार मुझे लघुकुमार ही पुकारते हैं ।

नवांशहर से चंडीगढ़ के समाचारपत्र दैनिक ट्रिब्यून में सन् 1990 में उपसंपादक बन कर आया तो एक साप्ताहिक पन्ना मिला कथा कहानी संपादित करने को । इससे पहले स्वयं संपादक विजय सहगल इसे संपादित करते थे । वे लघुकथा को स्थान नहीं देते थे और उन्होंने पन्ना सौंपते ही कहा कि देखना कहीं इस पन्ने को लघुकथा आंदोलन से न जोड़ देना । खैर । उनकी आशंका सच साबित हुई । मैंने लघुकथा को प्रमुखता से प्रकाशित करना शुरू किया । इसका प्रमाण चंडीगढ़ के मेरे मित्र रत्नचंद रत्नेश ने दिया जब एक पांडुलिपि मेरे पास भूमिका लिखने के लिए लाए -हिमाचल की श्रेष्ठ लघुकथाएं । उन्होंने बताया कि इनमें वही लघुकथाएं शामिल हैं , जिन्हें आपने दैनिक ट्रिब्यून में समय समय पर प्रकाशित किया । वाह क्या मैं अनजाने में ही लघुकथा के लिए काम करता रहा ? यह कह नहीं सकता । पर आज दुख होता है अब दैनिक ट्रिब्यून से ही लघुकथा को बेदखल कर दिया गया है । मैं चंडीगढ़ में रहते महानगर को महसूस कर सका और विश्वास , जल्दबाजी, तलाश और न जाने कितनी इसी पृष्ठभूमि की रचनाएं रची जाती रहीं । फिर मेरी पोस्टिंग हिसार हो गयी दैनिक ट्रिब्यून की ओर से । राजनीति को बड़े करीब से देखने का अवसर मिला । बहुत सी रचनाएं राजनीति को केंद्र में रख कर लिखी गयीं । दौड़ , राजनीति के कान , राजनीति आदि रचनाएं ऐसे ही रची गयीं ।

लघुकथा के इस पचास वर्ष के सफर में कितने ही संकलनों का हिस्सा बना और न जाने कितने विशेषांकों में रचनाओं को स्थान मिलता रहा । कभी बलराम के लघुकथा कोष में तो अब हाल फिलहाल कांता राॅय के समय की दस्तक में । यह सिलसिला जारी है । योगराज प्रभाकर के महाकलश के हर विशेषांक में तो कमल चोपड़ा की सरंचना में भी । डाॅ रामकुमार घोटड़ के हर संकलन में ।

पंजाबी में मेरे दोस्तों सतनाम माणक , प्रेम गोरखी, बलजीत सिंह , बलवीर परवाना , लखविंदर जौहल , सुरेखा मिड्ढा , रुमिंदर , राही , नव संगीत सिंह यहां तक कि प्रीतलड़ी की संपादिका पूनम न जाने कितने लोगों ने मेरी लघुकथाओं को अनुवाद किया । मेरी मातृभाषा में पहुंचाया । हालांकि मैं पंजाबी लिख पढ़ लेता हूं पर दुगुनी ऊर्जा लगाने से बचा लिया इन मित्रों ने । यही नहीं रत्नेश ने बंगाली तो राजन् जैड ने अंग्रेजी तो फूलचंद मानव ने मलयालम में मेरी लघुकथाओं को पहुंचाने में मदद की । गुजराती और उर्दू में भी आईं । उर्दू में नवांशहर से उर्दू के वरिष्ठ कथाकार कंवरसेन ने आजकल में प्रकाशित करवाया । यह सिलसिला पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तकों तक पहुंचा । मेरी लघुकथाएंं जन्मदिन और शाॅर्टकट को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया गया । इसके लिए अपने आदर्श स्कूल के सहयोगी विनोद कुमार का दिल से शुक्रिया । अपने सहयोगी रहे डाॅ सुरेंद्र मंथन को भी याद कर रहा हूं जिनके साथ सहसंपादन में सहयात्री लघुकथा संकलन दिया । हम तीन वर्ष एक साथ आदर्श स्कूल , खटकड़ में सहयोगी रहे । जब मैं स्कूल और ब्लैकबोर्ड की दुनिया छोड़ चंडीगढ़ आ गया तब विनोद मेरी जगह विशेषज्ञ बने और मेरी रचनाएं बच्चों तक पहुंचीं । इसे कहते हैं साथी हाथ बढ़ाना । अशोक भाटिया को भी लगातार मेरी फिक्र रहती है कि मैं क्या कर रहा हूं । शुक्रिया मित्र । इधर डाॅ प्रेम जनमेजय, अशोक जैन और मुकेश शर्मा भी मेरी रचनाधर्मिता को लेकर बात करते रहते हैं । इन सबके बीच डाॅ नरेंद्र मोहन आए और यह चिंता हुई कि मैं अपनी किताबें खुद ही क्यों प्रकाशित किए जा रहा हूं । तो लो मित्रो यह संग्रह उनकी कोशिशों का फल है ।

इस सारे आधी शती के सफर में जो थोड़ा दुख देने वाली बात है वह यह कि समय समय पर इसमें मठाधीश बनते और मिटते देखे । मैंनै न तो दैनिक ट्रिब्यून के संपादन के समय और न ही कथा समय के संपादन के समय किसी को उपेक्षित किया बल्कि खोज खोज कर अच्छी लघुकथाएं प्रकाशित कीं । मसीहा बनने या मठाधीश बनने की राह की ओर देखा भी नहीं पर जो देखा वह यह तय कर गया कि न तो कोई पुरस्कार लेना है और न ही इस दौड़ में शामिल होना है । बस । वही सन् 1970 वाला लघुकथा का कार्यकर्त्ता बने रहना है । मंज़िल नहीं बस रास्ता ही रास्ता है । मठाधीश नहीं नींव की ईंट बने रहना है ।

कहने को बहुत कुछ है इस लम्बे सफर में मित्रों को आभार जो इस राह पर मिलते रहे । मेरा तो पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे ,,

एक बार फिर रामदरश मिश्र के शब्दों में :

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी
मोहब्बत मिली है मगर धीरे धीरे

और सबसे अंत में अपनी धर्मपत्नी नीलम का तहेदिल से शुक्रिया जिसे मेरी हर नयी रचना को सबसे पहले सुनना पड़ता है । कभी खुशी से तो कभी नाराज होकर और उसके बिना कैसे रचता यह संसार ,,,
-कमलेश भारतीय
9416047075
25 दिसम्बर , 2019