स्वतंत्रता दिवस पर कुछ सवाल करतीं लघुकथाएं

कमलेश भारतीय

पुष्प की पीड़ा

पुष्प की अभिलाषा शीर्षक से लिखी कविता से आप भी चिरपरिचित हैं न ? आपने भी मेरी तरह यह कविता पढ़ी या सुनी जरूर होगी । कई बार स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी बच्चे को पुरस्कार लेते देख तालियां भी बजाई होंगी । मन में आया कि एक बार दादा चतुर्वेदी के जमाने और आज के जमाने के फूल में शायद कोई भारी तब्दीली आ गयी हो । स्वतंत्रता के बाद के फूल की इच्छा उसी से कयों न जानी जाए ? उसी के मुख से ।
फूल बाजार गया खासतौर पर ।
-कहो भाई , क्या हाल है ?

देख नहीं रहे , माला बनाने के लिए मुझे सुई की चुभन सहनी पड रही है ।

अगर ज्यादा दुख न हो रहा हो तो बताओगे कि तुम्हारे चाहने वाले कब कब बाजार में आते हैं ?

धार्मिक आयोजनों व ब्याह शादियों में ।

पर तुम्हारे विचार में तो देवाशीष पर चढ़ना या प्रेमी माला में गुंथना कोई खुशी की बात नहीं ।
-बिल्कुल सही कहते हो । मेरी इच्छा तो आज भी नहीं पर मुझे वह पथ भी तो दिखाई नहीं देता , जिस पर बिछ कर मैं सौभाग्यशाली महसूस कर सकूं ।

कयों ? आज भी तो नगर में एक बडे नेता आ रहे हैं ।

फिर क्या कल
करूं ?

कयों ? नेता जी का स्वागत् नहीं करोगे ?

आपके इस सवाल की चुभन भी मुझे सुई से ज्यादा चुभ रही है । माला में बिंध कर वहीं जाना है । मैं जाना नहीं चाहता पर मेरी सुनता कौन है ?

बच्च न मारना

ऐसा अक्सर होता ।
मैं खेतों में जैसे ही ताजी सब्जी तोडने पहुंचता, तभी मेरे पीछे बच्च न मारना की गुहार मचाता हुआ दुममन मेरे पास आ पहुचता । थैला लेकर खुद सब्जी तोड कर देता । मैं समझता कि वह अपने लाला का एक प्रकार से सम्मान कर रहा है ।

एक दिन दुममन कहीं दिखाई नहीं दिया । मैं खुद ही सब्जी तोडने लगा । जब तक इस काम से निपटता, तब वही पुकार मेरे कानों में गूंज उठी-लाला जी , बच्च नहिं मारना । लाला जी,,,,,,

लेकिन पास आते आते वही सब्जी के पौधों और बेलों को रूंड मुंड देखकर उदास हो गया ।
एकाएक उसके मुंह से निकला- आखिर आज वही बात हुई, जिसका डर था,,
-क्या हुआ ?
-लाला जी , आज आपने बच्च मार ही दिया न,,,?
-क्या मतलब ? मैंने क्या किया है ?
-आप लाला लोग तो थैला भरने की सोचेंगे, कल की नहीं सोचेंगे। बच्च का मतलब बहुत छोटी सब्जी, जिस पर आज नहीं बल्कि कल की आशाएं लगाई जाती हैं । यदि उसे भी आज ही तोड लिया जाए तोड़ने कल आप खेतों में क्या पायेंगे ?
-अरे , गलती हो गई ।

मैं चला तोड़ने मेरा थैला किसी अपराधी की गठरी समान भारी सो गया । मैं किसी को कहा भी नही सका कि मैंने तो सब्जी ही खराब की हैं, लेकिन जो नेता अगली पीढी को राजनीति की अंधी दौड में दिशाहीन किए जा रहे हैं , वे देश के कल को बर्बाद नहीं कर रहे ?

लेखक और पुरस्कार

पुरस्कारों की घोषणा हुई ।
लेखक का नाम नहीं था। वह निराश नहीं हुआ । हठ न छोडा । पुरस्कार पाने योग्य एक और पुस्तक की रचना की, जिसमें किसान की उमंगें , मजदूर के पसीने की गंध, मिट्टी की महक और आम आदमी की लड़ाई शामिल थी । पुस्तक लिए लेखक व्यवस्था के द्वार पर जा खड़ा हुआ ।
व्यवस्था बाहर आई , अपने चुंधिया देने वाले मायावी रूप में । पुस्तक को एक पल ताका , लेखक को घूरा , फिर आंखें तरेरते बताया
पुरस्कार चाहते हो तो एक ही शर्त है ।

क्या ?
बस , मेरे असली रूप को देखकर एक शब्द भी नहीं लिखोगे, स्वीकार हो तो अंदर आओ । तुम्हारे बहुत से भाईबंधु मिलेंगे ।
लेखक ने अपनी कलम को चूमा और लौट गया ।

यह घर किसका है ?
अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को , ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने , सिर उठाये , शान से खड़ा रहे ।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खडी घर की औरत ने सहम कर पूछा-क्या हुआ ?

कुछ नहीं । कुछ तो है । आप फरमाइए ।

इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है । कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है । अफवाहों का धुआं छाया हुआ है । कभी यह घर मेरा था । एक मुसलमान औरत का । आज तुम्हारा है । कल ,,,कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान । अंधेर साईं का , कहर खुदा का । इस घर में इंसान कब हँसेंगे???

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