-जिन लोगों से लड़ते लड़ते उन्होंने जीवन गुजार दिया,उसी के साथ जाना, बड़ा ही असमंजस में डालने वाला 
-राहुल गांधी अपने ही नाराज नेताओं से क्यों नहीं मिलते? क्या इंदिरा कांग्रेस के दौर का सामंत उनके भीतर भी जिंदा है? 

अशोक कुमार कौशिक

मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद से ही सबकी नजरें राजस्थान पर टिकी हुई थी। यूँ तो मध्यप्रदेशऔर राजस्थान में कांग्रेस की सरकारे जिस दिन बनी थी, उसी दिन से उसके कभी भी गिर जाने के कयास लगाए जा रहे थे। राजस्थान में हालाँकि मध्यप्रदेश जैसे हालात नहीं थे, फिर भी बीजेपी ने जिस तरह से सारे एथिक्स को ताक पर रखकर राजनीति में आक्रामकता को मूल्य बना दिया है, उससे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सारे ही कांग्रेस शासित राज्य बीजेपी के निशाने पर होंगे।

कांग्रेस ने भी इतिहास में राज्य सरकारें गिराई हैं, लेकिन इतनी निर्लज्जता औऱ इतने खुलेआम विधायकों की खऱीद-फरोख्त का साहस नहीं कर पाई है। बीजेपी ने सारी नैतिकता और सारे मूल्यों पर ताक पर रखकर राजनीति की एक नई परिभाषा, मुहावरे, चाल-चलन और चरित्र को घड़ा है। इसी के चलते अब सारे ही कांग्रेस शासित राज्य खतरे में नजर आते हैं। चाहे विधानसभा के नंबर कुछ भी कह रहे हों।

राजस्थान से खबरें आनी तेज हो गई है। जब सरकार बनी थी, सचिन तब से ही असंतुष्ट थे। वहाँ मुख्यमंत्री का नाम तय करने में कांग्रेस को पसीना आ गया था। इससे भी यह आशंका बनी ही हुई है कि वहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। खासतौर पर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में चले जाने के तगड़े झटके के बाद…। बीजेपी के पास सबकुछ है, पैसा है, ताकत, शातिर दिमाग और सबसे ऊपर सत्ता, जिसके दम पर वह पिछले कुछ सालों में घटियापन की सारी हदें पार करती रही है।

इन कुछ सालों में देश के एलिट, संभ्रांत औऱ ट्रेंड सेटर तबके ने खासा निराश किया है। बात चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, राजनीति, फिल्म, साहित्य या फिर कला की कोई भी विधा। यकीन नहीं आता कि समाज में जो लोग प्रभावशाली जगहों पर काबिज है, वे इस कदर स्वार्थी, डरपोक और गैर-जिम्मेदार होंगे।

देश में प्रतिरोध करने वालों को लगातार दबाया जा रहा है, इससे वो आम लोग जो सरकार से सहमत नहीं हैं, वे भी अपनी बात कहने का हौसला खोने लगे हैं। 1947 से बाद से इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए तो देश में इतने बुरे हालात शायद ही कभी हुए होंगे।

हमें यह मानना ही होगा कि देश नायक विहीन हैं। जिस किसी की तरफ हमने नेतृत्व के लिए देखा, उस-उसने हमें निराश किया है। राजनीतिक विचारधारा सिर्फ अनुयायियों के हिस्से में ही है, जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनकी नजर अब सिर्फ औऱ सिर्फ सत्ता पर है।

इस वक्त में जबकि हम नेता विहीन हैं, हमारी जिम्मेदारी बहुत-बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। कॉलेज में पढ़ा था कि राजनीति सत्ता के लिए संघर्ष है और ‘साम-दाम-दंड-भेद’ या फिर ‘बाय हुक ऑर बाय क्रुक’ जैसे मुहावरे जीवन के हर क्षेत्र की तरह राजनीति में भी कुछ भी करके सत्ता में आने को प्रोत्साहित करते हैं।

बात फिर से राजस्थान की, मप्र से उलट,राजस्थान में, 35 से ज्यादा विधायक ,पायलट के समर्थन में आ सकते हैं। यह संख्या बढ़ भी सकती है। ऐसे में,दलबदल कानून के उलंघन के बगैर ,पार्टी छोड़ने वाले,विधायक बने रह सकते हैं।सचिन पायलट, राजस्थान के ऊर्जावान चहरे हैं, और मुख्यमंत्री पद के असली दावेदार भी।  उनके साथ आने वाले विधायकों कि संख्या और भी बढ़ सकती है। ऐसे में उनके पास,काफी विकल्प हैं।जैसे, वे सारे विधायकों को लेकर भाजपा में शामिल हो जाएं। हालांकि, यह विधायकों के लिए बड़ा मुश्किल फैसला होता है। क्योंकि जिन लोगों से लड़ते लड़ते उन्होंने जीवन गुजार दिया,उसी के साथ जाना, बड़ा ही असमंजस में डालने वाला होता है। वे हरदम असहज महसूस करते रहते हैं। मप्र में कांग्रेस से भाजपा में आये, लगभग सारे विधायक अब भी, सिंधिया भाजपा के कहलाते हैं।

दूसरा ऑप्शन, पायलट कांग्रेस या राजस्थान कांग्रेस बना कर, बाहर से समर्थन लेने का हो सकता है। हालांकि, यह सरकार हर वक्त,खतरे में रहेगी,खासकर,जब केंद्र में अघोषित तोड़ फोड मंत्रालय मौजूद है।तीसरा और सबसे मजबूत विकल्प, भाजपा के बजाए, कांग्रेस से निगोशिएट करना होगा।पायलट, दबाव डालें कि, गहलोत को सम्मान हटा कर, पायलट को मुख्यमंत्री बनाएं।

-एक कारण यह भी, हमे राहुल गांधी का अतीत भी देखना होगा

राहुल गांधी अपने ही नाराज नेताओं से क्यों नहीं मिलते? क्या इंदिरा कांग्रेस के दौर का सामंत उनके भीतर भी जिंदा है? 

असम के दिग्गज नेता हेमंत बिस्वा सरमा कभी कांग्रेस में हुआ करते थे। पार्टी में चल रही कुछ परेशानियों को लेकर राहुल गांधी से मिलने दिल्ली आए थे। राहुल गांधी उनसे मिले तो सही, लेकिन कोई खास ध्यान नहीं दिया. बाद में सरमा ने आरोप लगाया कि जब मैं राहुल गांधी से बात करने पहुंचा तो वे अपने पालतू कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में व्यस्त थे. यह बात 2015 की है।   
हेमंत सरमा वापस गए और कांग्रेस छोड़कर बीजेपी ज्वाइन कर ली। हेमंत का पूर्वोत्तर राज्यों में काफी प्रभाव है। 2016 में चुनाव हुआ तो बीजेपी को जिताने में उनकी बड़ी भूमिका रही। कांग्रेस असम से तो गई ही, पूरे पूर्वोत्तर से साफ हो गई। बीजेपी ने पहली बार पूर्वोत्तर राज्यों में सरकार बनाई। कांग्रेस का मजबूत गढ़ यूं ही ढह गया।

हाल में सिंधिया ने पार्टी छोड़ी तो उनका भी आरोप था कि वे राहुल और सोनिया से मिलना चाह रहे थे लेकिन उन्हें समय नहीं दिया गया।

अब कुर्सी की खींचतान को लेकर सचिन पायलट दिल्ली में हैं और खबरें हैं कि राहुल गांधी या सोनिया गांधी से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी है।

2014 में बीजेपी के उभार में तमाम कांग्रेसियों का भी सहयोग था। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 40-45 साल पुराने कांग्रेसी भी पार्टी छोड़ गए, क्योंकि वे असंतुष्ट थे। कांग्रेस पार्टी का सिस्टम अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं में जोश नहीं भरता। उन्हें निराश करता है। बीजेपी में इसका उल्टा है।

राजस्थान में पायलट की ​स्थिति, मध्य प्रदेश के सिंधिया से मजबूत है। उन्होंने पार्टी की सत्ता में वापसी कराई और उसका प्रतिदान चाहते हैं. राहुल गांधी अध्यक्ष पद से हट चुके हैं। वे गांधी परिवार से बाहर से, सिंधिया या पायलट जैसे युवा नेताओं को भी पार्टी का अध्यक्ष बना सकते थे। लेकिन वे अपने नेताओं की आपसी लड़ाई ही नहीं रोक पाते।

इनकी नेतृत्व क्षमता का अंदाजा इसी से मिल जाता है कि ये अपने नेताओं से ही नहीं मिलना चाहते, जनता और कार्यकर्ता और दूर की कौड़ी हैं।

-तब हमारे लिए क्या बचता है?

क्या हम सिर्फ ऐसे वोटर ही बने रहेंगे जिसे सत्ता में बैठे लोग जैसे चाहे, वैसे प्रभावित कर सकते हैं या फिर हम अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करेंगे? मध्यप्रदेश में सरकार बदलने के बाद विधानसभा में उपचुनाव होने हैं, ऐसे में हमें अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना चाहिए।

हमें हर हाल में सत्ता की चाहत रखने वालों को आईना दिखाना हो होगा। अब राजनीति में नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना के लिए हमें ही आगे आना होगा। वोटर्स को ही यह बताना होगा कि अब अनैतिक तरीके से बनाई गईं सरकारों को हम स्वीकार नहीं करेंगे। यदि सत्ता चाहिए तो अपने चरित्र को बदलना होगा। हमें भी यदि बेहतर समाज चाहिए तो अपना राजनीतिक व्यवहार बदलना होगा।

हर संकट में कुछ बेहतर होने का बीज छुपा होता है, इस दौर में लगातार गिरते राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें किसी नायक का इंतजार करने की बजाए, खुद ही अपनी और अपने समाज की जिम्मेदारी लेनी होगी।

उन सारे राजनेताओं को नकारिए जो सिर्फ सत्ता की चाह औऱ महत्वाकांक्षा में जनादेश का अपमान कर रहे हैं। यदि सत्ता मूल्यों के साथ खिलवाड़ करती है तो उसे भी सबक सिखाना होगा।

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