उमेश जोशी

हिंदी पत्रकारिता और पत्रकारों के लिए 30 मई गौरवशाली दिन होता है। भले ही उत्सव की तरह यह दिन नहीं मनाया जाता है लेकिन हिंदी पत्रकार उत्सव जैसी खुशियों का इज़हार अवश्य करते हैं। हिंदी पत्रकारिता से नाता रखने वाले नेता भी पत्रकारों को बधाई देते हैं, जैसे ईद के मौके पर हिन्दू भाई मुसलमान भाइयों को मुबारकबाद देते हैं। हर  साल इस दिन रस्म अदायगी होती है; इससे ज़्यादा कभी कुछ नहीं हुआ और भविष्य में कुछ होने के आसार भी नहीं हैं।  जेहन में यह सवाल भी सिर उठा रहा होगा कि इससे ज़्यादा क्या होना चाहिए जो अब तक नहीं हुआ। सवाल जायज है और हिंदी पत्रकारिता से सरोकार रखने वाले हर किसी के जेहन में यह सवाल आना भी चाहिए। सवाल सहज है लेकिन जवाब दुरूह है।

हिंदी पत्रकारिता के पर्व पर बधाइयां देने वालों को आत्ममंथन कर जवाब तलाशना चाहिए। जैसे ही आत्ममंथन शुरू करते हैं तो ढेरों सवाल दिमाग में हथोड़े बजाते हैं और जवाब मांगते हैं कि हम पत्रकारों ने हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेज़ी पत्रकारिता के पिछलग्गूपन से मुक्त कराने के लिए क्या प्रयास किए हैं?  हिंदी पत्रकारिता आज भी अंग्रेज़ी भाषा से पूरी तरह मुक्त क्यों नहीं हो पाई है। क्यों  आज भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता को दिशा दिखाती है। क्यों हिंदी पत्रकारिता आज भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता के पदचिह्नों पर चलती है। आखिर क्या वजह है कि हिंदी पत्रकारिता अंगेज़ी से मुक्त नहीं हो पा रही है। हिंदी राष्ट्र भाषा होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता को वो सम्मान नहीं मिलता जो अंग्रेज़ी पत्रकारिता और उसके पत्रकारों मिलता है।

   कुछ उदाहरण देखेंगे तो सारे सवाल  जायज लगेंगे। एक जमाने में अखबारों की रद्दी बेचते समय बड़ी पीड़ा झेलनी पड़ती थी। कबाड़ी रद्दी अखबारों के दो भाव बताता था; अंग्रेज़ी अखबार से हिंदी अखबार का भाव 50 पैसे से एक रुपए तक कम होता था। उसे लाख समझाने की कोशिश करता था कि मैं अखबार में काम करता हूँ। हिंदी और अंग्रेज़ी का अखबार एक ही मशीन पर छपता है; एक ही तरह का कागज़ इस्तेमाल होता है; एक ही तरह की स्याही होती है। छापने वाले कर्मचारी भी अलग नहीं हैं। इतना समझाने के बावजूद उसका एक ही जवाब होता था-दोनों में फर्क तो है, एक अंग्रेजी है और एक हिंदी है। भाषा का फर्क तो निश्चित तौर पर है लेकिन इस फर्क में हिंदी कमतर कैसे हो जाती है। कबाड़ी के जेहन में यह बात कैसे और कहाँ से आई कि अंग्रेज़ी अपेक्षाकृत ज़्यादा मूल्यवान है और हिंदी भाषा अंग्रेज़ी भाषा से पीछे है। हिंदी पत्रकारिता से आजीविका कमाने वाले पत्रकार पर उस समय क्या गुजरती होगी जब एक कबाड़ी डंके की चोट उसकी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा पर चोट करता था। हमारे देश में ऐसे हालात क्यों पैदा हुए। क्यों हिंदी कमतर आंकी जाती है। कहीं से तो ऐसी धारणा बनी होगी जो शनैःशनैः कबाड़ी तक पहुंच गई।

जिस संस्थान में काम करता था, उसमें अंग्रेज़ी का अखबार भी निकलता था; सर्कुलेशन के हिसाब से बड़ा अखबार था। रात काम निपटा कर घर जाने के लिए गाड़ी माँगते थे तो हमेशा जवाब मिलता था कि अंग्रेज़ी वाले आ रहे हैं, उनके आने तक प्रतीक्षा करो। कभी अंग्रेज़ी के पत्रकार पहले पहुंच जाएँ तो उन्हें तुरंत गाड़ी मिल जाती थी; उन्हें कभी हिंदी वालों की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। ऐसा भेदभाव 21 वर्ष झेला है। 

आप निजी संस्थान की बात छोड़िए। सरकारी संस्थान का उदाहरण ले लीजिए। आकाशवाणी में सबसे पहले अंग्रेज़ी में पूल तैयार होता है यानी अंग्रेज़ी में कॉपी बनाई जाती है। अंग्रेज़ी की कॉपी ही हिंदी न्यूज़रूम  और अन्य भाषाओं के न्यूज़रूम में जाती है जिसका अनुवाद कर प्रसारित किया जाता है। कोई रिपोर्टर सीधे हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में खबर नहीं दे सकता। वो पहले अंग्रेज़ी में खबर देगा; उसकी पूल कॉपी बनेगी और वही कॉपी हिंदी समाचार कक्ष समेत सभी भाषाओं के समाचार कक्षों में जाएगी। अंग्रेज़ी की पूल कॉपी का अनुवाद ही प्रसारित होता है। राष्ट्रभाषा हिंदी को अभी तक अपना पूल बनाने की इजाज़त नहीं है। हिंदी पत्रकारिता किस बात पर गर्व करे?

 समाचार पत्रों के बड़े संस्थान अपनी लाइब्रेरी में हिंदी अखबारों की क्लिपिंग नहीं रखते; सिर्फ अंग्रेज़ी अखबारों की क्लिपिंग रखी जाती हैं। एक बार यह सवाल एक पत्रकार से पूछ ही लिया। उनका जवाब चौंकाने वाला लेकिन सच्चाई में डूबा हुआ था- हिंदी ख़बरों की विश्वसनीयता संदेहास्पद होती है इसलिए हिंदी की क्लिपिंग नहीं रखी जाती हैं। इस जवाब से मुझे तकलीफ नहीं हुई क्योंकि हिंदी पत्रकारों का स्तर जानता हूँ। अधिकतर हिंदी पत्रकारों में पढ़ने के संस्कार नहीं हैं; खबरों के तथ्यों की सत्यता परखने का धैर्य नहीं हैं। उनके पास ना भाषा है और ना ही वर्तनी का ज्ञान। भाषा से अभिप्राय है कि जो लिखा जाए तो शुद्ध हो। वाक्य संरचना का ज्ञान होना चाहिए।

जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी कहते थे कि अखबार साहित्य नहीं है। अखबार की भाषा सरल होनी चाहिए; वाक्य छोटे होने चाहिएं। अखबारों और वेबसाइटों पर ऐसे वाक्य होते हैं जो कई बार पढ़ने के बाद समझ आते है। पान वाला और शराब का ठेकेदार पत्रकार बनेंगे तो बताइए, खबरों का स्तर क्या होगा और कितनी विश्वसनीयता होगी। हरियाणा के पत्रकार नेता ने बताया कि शराब का एक बड़ा ठेकेदार पंजाब केसरी का संवाददाता है; बाकायदा उसके पास अखबार का पहचान पत्र है। यह सज्जन पत्रकार से ठेकेदार नहीं बना, ठेकेदार बनने के बाद पैसे के बूते पत्रकार बना है। क्या ऐसे लोग हिंदी पत्रकारिता का भला कर पाएंगे; क्या इनकी खबर में विश्वसनीयता खोज पाएंगे।

 कई तथाकथित हिंदी पत्रकारों की भाषा और वर्तनी देख कर सिर शर्म से झुक जाता है। अंग्रेज़ी का पत्रकार गलत अंग्रेज़ी लिख कर अंग्रेजी की पत्रकारिता नहीं कर सकता लेकिन हिंदी का तथाकथित पत्रकार रोज़ाना राष्ट्रभाषा की धज्जियाँ उड़ाता है खुद को गर्व से हिंदी पत्रकार कहता है। जो खुद हिंदी नहीं जानते वे हिंदी को क्या सम्मान दिलवा पाएंगे। अब समझ आ रहा है कि कबाड़ी ने हिंदी के लिए जो धारणा बनाई थी वो निराधार नहीं थी। पूरे जीवन राष्ट्रभाषा का सत्यानाश करने वाले हिंदी के पत्रकार राजनेताओं के निजी स्वार्थों के कारण आर्थिक लाभ तो पा जाएंगे  लेकिन हिंदी का हित कभी नहीं कर पाएंगे।

30 मई 1826 को उदंत मार्तण्ड का प्रकाशन शुरू करने वाले जुगल किशोर शुक्ल ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी पत्रकारिता सच उजागर करने और शासन की ज़्यादतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के बजाय घालमेल और साठगांठ के खेल में उलझ जाएगी। हिंदी टीवी चैनलों ने इस खेल में बड़ी भूमिका निभाई है। जो है उसे स्वीकार करते हुए हिंदी पत्रकारिता दिवस की बधाई।  

error: Content is protected !!