हरियाणा विधानसभा चुनाव नुस्खा कांग्रेसी है…यहां गांधी फैमिली की नहीं, हुड्डा की चलती है, जानिये कैसे विरोधियों को लगाया ठिकाने

अशोक कुमार कौशिक 

भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने एक दफा अपने पिता रणवीर सिंह की न मान कर राजीव गांधी की सुनी और लोकसभा चुनाव लड़ गए। उनके सामने भारतीय राजनीति के दिग्गज देवीलाल थे। ताऊ कहे जाने वाले देवीलाल को उन्होंने हरा दिया। देवीलाल अक्सर अपने मिलने वालों से कहा करते थे, लड़ो तो बड़ों से, छोटो से नहीं। ताऊ की ये बात हुड्डा के कानों तक पहुंची हो या नहीं लेकिन हुआ यही। दिग्गज से लड़ कर तीन बार उन्हें हराने वाले हुड्डा का कद बहुत बड़ा हो गया और हरियाणा की राजनीति से देवीलाल की विदाई ही हो गई। रोहतक के जाट देवीलाल से खफा हो गए क्योंकि उन्होंने रोहतक की सीट छोड़कर सीकर की सीट से प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया था।

दौर बदला। अब राजीव गांधी के बेटे और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चाह रहे थे कि हरियाणा कांग्रेस की कमान हुड्डा परिवार से अलग किसी को दी जाय, लेकिन चली हुड्डा की ही। उनकी सोनिया गांधी पर मजबूत पकड़ है। राहुल के चेहेते रणदीप सुरजेवाला या सोनिया गांधी की प्रिय रही शैलजा हरियाणा कांग्रेस के टिकट बंटवारे में उतना प्रभावी असर नहीं डाल सकीं। हुड्डा की मजबूत जड़ों को समझने के लिए उनकी पिछली राजनीति को समझना होगा।

राजीव गांधी से नजदीकी 

पारंपरिक कांग्रेसी परिवार में जन्मे साल 1982 में हुड्डा राजीव गांधी के करीब पहुंच चुके थे। उस समय वे युवा थे। राजीव गांधी ने उन्हें अपने साथ एशियाई खेलों की तैयारी वाली लिस्ट में शामिल किया था। बहरहाल, साल 1982 में किलोई सीट से विधान सभा का चुनाव लड़े और हार गए। उस दौर में भजन लाल मुख्यमंत्री थे। भजनलाल ने हुड्डा की मदद नहीं की। इसे हुड्डा ने ध्यान रखा और बाद में हरियाणा की राजनीति से भजनलाल की विदाई भी हुड्डा के चलते ही हुई।

परिवार की कहानी

हुड्डा के दादा कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे. उनके पिता संविधान सभा के सदस्य बने। पहली संसद के सदस्य रहे। संयुक्त पंजाब में मंत्री भी बने। भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी राजनीति में उतरे तो एक बार किलोई विधान सभा सीट से एमएलए और तीन बार सांसद बने। साल 91, 96 और फिर 98 में देवीलाल को हराने की वजह से राष्ट्रीय राजनीतिक में उनकी ताकत बढ़ी। लेकिन हरियाणा में अभी भी भजनलाल का ही असर ज्यादा था। 

साल 1997 तक भजनलाल और हुड्डा की खटपट सतह पर दिखने लगी थी। भजनलाल के खिलाफ उन्होंने कर्नल रामसिंह यादव व चौ.बीरेंद्र सिंह डुमरखां से हाथ मिलाया और भजनलाल पर दबाब बनाए रखा। भजनलाल के बाद हरियाणा कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। बंसीलाल और ओम प्रकाश चौटाल के बाद के चुनाव में कांग्रेस नेतृत्व ने दोनो की भूमिका बदल दी। भजनलाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। टिकट का बंटवारा भजनलाल के हिसाब से ही हुआ लेकिन कांग्रेस को मिली 67 सीटों पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने ऐसी गोटी बिठाई कि अपने लोगों को टिकट दिलाने के बाद भी भजनलाल विधायक दल के नेता नहीं बन सके। मार्च 2005 को भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए। उसी के बाद भजनलाल को कांग्रेस से अलग हो कर अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी।

दुबारा भी सीएम बने

फिर भी अगले चुनाव में सीएम की कुर्सी हुड्डा को ही मिली। इस तरह से हरियाणा में देवीलाल की जमीन को हुड्डा ने कमजोर और भजनलाल तो तकरीबन खत्म ही कर दिया। भजनलाल का असर कुछ सीटों तक सिमट कर रह गया, लेकिन कांग्रेस में उनके लिए अब कुछ नहीं बचा। ताऊ देवी लाल का वचन सही साबित हुआ। ताऊ कहते थे कि बड़े से लड़ोगे तो बड़े बनेगो और छोटो से लड़ने पर छोटा हो जाना पड़ेगा। हुड्डा देवीलाल से लड़ कर बड़े हुए और भजनलाल अपने राजनीतिक कद से छोटे रहे हुड्डा से लड़ कर छोटे हो गए। उन्होंने तकरीबन वैसे ही नुस्खे का इस्तेमाल किया है जैसा कांग्रेस में इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को निपटाने के लिए किया था, या फिर बाद के आलाकमान ने किया।

हरियाणा कांग्रेस के भूपिंदर कैसे बन गए हुड्डा: 10 साल में 5 बड़े विरोधी बाहर, हाईकमान भी बेबस

किरण चौधरी के कांग्रेस से जाने के बाद अब यह तय हो गया है कि हरियाणा में हुड्डा ही कांग्रेस के भूपेनदर हैं। हुड्डा की वजह से पिछले 10 साल में किरण समेत 5 बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। इनमें राव इंद्रजीत सिंह, अशोक तंवर और कुलदीप बिश्नोई का नाम शामिल हैं।

हरियाणा कांग्रेस के कद्दावर नेता किरण चौधरी ने पार्टी छोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया। इस्तीफा देते हुए किरण ने कहा है कि हरियाणा कांग्रेस एक व्यक्ति की पार्टी बनकर रह गई है। किरण का निशाना पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा की ओर था। किरण पिछले 2 साल से हुड्डा कैंप से लड़ रही थीं, लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद उनके लिए पार्टी के भीतर स्थिति सहज नहीं रह गई थी।

1. 5 बड़े विरोधी बाहर गए

हरियाणा में 2014 के बाद भूपेंदर हुड्डा के 5 बड़े विरोधी कांग्रेस छोड़ चुके हैं। इनमें केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह, पूर्व सीएम भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर, पूर्व महिला प्रदेश अध्यक्ष सुमेत्रा चौहान और किरण चौधरी का नाम प्रमुख हैं।

सबसे पहले राव इंद्रजीत सिंह कांग्रेस से निकले थे। राव इंद्रजीत सिंह को कांग्रेस की सरकार में पूरी तरह से साइड लाइन कर दिया गया था। राव इंद्रजीत सिंह उस वक्त गुड़गांव से कांग्रेस के सांसद थे। हुड्डा से खटपट के बाद राव ने गांधी परिवार के रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ मोर्चेबंदी कर दी।

इसके बाद कांग्रेस हाईकमान से उनकी बात बिगड़ती चली गई और आखिर में राव पार्टी छोड़ चले गए। राव के बाद दूसरा बड़ा झटका कांग्रेस को अशोक तंवर ने दिया था। 2019 में चुनाव से पहले अशोक तंवर पार्टी ने हुड्डा के खिलाफ नाराजगी जाहिर करते हुए पार्टी छोड़ दी।

तंवर से हुड्डा कैंप के कहने पर हाईकमान ने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी छीन ली थी। तंवर के बदले भूपेंदर हुड्डा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। तंवर के जाने के बाद महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सुमित्रा चौहान ने भी पार्टी छोड़ दी।

2022 में चौधरी भजनलाल के बेटे और हरियाणा के कद्दावर नेता कुलदीप बिश्नोई भी पार्टी से बाहर निकल गए। कुलदीप हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बनाए जाने से नाराज थे। कुलदीप का कहना था कि हुड्डा गुट को या तो नेता प्रतिपक्ष या अध्यक्ष की कुर्सी दी जाए। हालांकि, पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी।

कुलदीप के बाद किरण ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया। किरण अपनी बेटी और पूर्व सांसद श्रुति को लोकसभा चुनाव में महेंद्रगढ़-भिवानी से टिकट दिलवाना चाह रही थी, लेकिन यहां से टिकट हुड्डा के करीबी राव दान सिंह यादव को टिकट मिल गया और वह हार गए।

एसआरके गुट की कहानी

अब एक नया गुट हरियाणा में बना। इसे एसआरके कहा गया। इसमें शैलजा, रणदीप सुरजेवाला और किरन चौधरी। हुड्डा की ही तरह रणदीप के पास भी पिता की विरासत थी। उनके पिता शमशेर सिंह सुरजेवाला संयुक्त पंजाब में मंत्री रहे। जबकि किरन चौधरी बंसीलाल की विरासत लेकर चल रही थी। इधर कुमारी शैलजा युवा और दलित होने के कारण कांग्रेस आलाकमान की पसंद रहीं। इसमें से किरण चौधरी को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। जबकि रणदीप सुरजेवाला को केंद्रीय राजनीति की ओर ही देखना पड़ा। शैलजा हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष भी रही लेकिन इस बार की सूची देखने पर इन दोनों के चहेते प्रत्याशियों के नाम नहीं दिखते हैं। अलबत्ता सुरजेवाला अपने बेटे को टिकट दिलाने में सफल रहे।

2. संगठन की चाबी भी हुड्डा के पास

भूपेंदर हुड्डा वर्तमान में हरियाणा विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष हैं, लेकिन संगठन की चाबी भी उन्हीं के पास है। उनके खास उदयभान अभी हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। हरियाणा के सियासी गलियारों में उदयभान को हुड्डा का नाक-कान भी कहा जाता है।

दिलचस्प बात है कि हरियाणा कांग्रेस की एकमात्र इकाई है, जिसके पास अपना कोई संगठन नहीं है। यहां लंबे वक्त से न तो किसी जिले और न ही ब्लॉक स्तर पर संगठन है। 10 महीने पहले हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष उदयभान ने 22 सदस्यों की एक टीम बनाई भी थी, लेकिन संगठन तैयार कर पाने में यह टीम भी असफल रही।

2019 में अशोक तंवर ने आरोप लगाया था कि हुड्डा की वजह से ही जिले और ब्लॉक स्तर पर संगठन तैयार नहीं हो पा रहा है। हुड्डा अपने लोगों को ही हर जगह रखना चाहते हैं।

3. टिकट बंटवारे में भी दबदबा

चाहे लोकसभा का चुनाव हो, चाहे राज्यसभा का चुनाव हो या चाहे विधानसभा का चुनाव हो, हरियाणा कांग्रेस के टिकट वितरण में हुड्डा का ही दबदबा रहता है। हालिया लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी हरियाणा की 9 लोकसभा सीटों पर लड़ी थी।

इनमें 8 सीटों पर हुड्डा कैंप के उम्मीदवार थे। सिर्फ सिरसा की एक सीट कुमारी शैलेजा को मिली थी। 2020 में कुमारी शैलेजा की राज्यसभा सीट पर हुड्डा ने अपने बेटे को उम्मीदवार बना दिया था। उस वक्त शैलेजा के अलावा रणदीप सिंह सुरजेवाला भी दावेदार थे।

2019 के विधानसभा चुनाव में भी हुड्डा कैंप को सबसे ज्यादा तरजीह मिली थी।

4. कांग्रेस हाईकमान भी बेबस

2016 में राज्यसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के 14 विधायकों ने गलत तरीके से वोटिंग की थी। विधायकों की इस गलती का खामियाजा कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार को भुगतना पड़ा था। इस मामले में हुड्डा निशाने पर आए थे, क्योंकि गलती करने वाले अधिकांश विधायक उन्हीं के करीबी थे।

शुरुआत में कांग्रेस हाईकमान ने इस पर जांच करने और कठोर कार्रवाई की बात कही थी, लेकिन बाद में मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

दूसरा मामला 2019 के लोकसभा चुनाव बाद देखने को मिला। गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी हाईकमान खासकर राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस जी-23 में हुड्डा भी शामिल थे।

हुड्डा का दबाव काम आया और पार्टी ने उन्हें हरियाणा में फ्री-हैंड दे दिया। इसके बाद से ही हरियाणा में हुड्डा काफी प्रभावी हैं।

तीसरा मामला इसी साल देखने को मिला है। प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया ने चुनाव से पहले संगठन को नए सिरे से बनाने की बात कही थी, जिसके बाद कई जगहों पर विवाद हो गया। यह विवाद हुड्डा और अन्य गुटों के बीच हुआ। विवाद इतना बढ़ा कि बाबरिया को अपने कार्यक्रम रद्द करने पड़े। इस घटना के बाद बाबरिया ने संगठन तैयार करने की जहमत नहीं उठाई।

विश्लेष्क कांग्रेस पार्टी और हरियाणा की राजनीति में हुड्डा की मजबूती के बारे में बताते हैं -“हुड्डा के पास सबसे खास बात ये है कि वो धैर्य से लोगों को सुनते हैं। विधान सभा टिकट का बंटवारा बहुत सोची समझी रणनीति के तहत करते हैं। सख्ती न करते हुए प्रशासन में ऐसी पकड़ रखते हैं कि अपने लोगों के काम उस वक्त भी करा सकें जब सरकार में न हो। उन्होंने देवीलाल से ये सीखा है कि अपनी जाति के साथ दूसरी जातियों के लोगों को जोड़ कर कैसे रखा जाय।”

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