श्रावणी उपाकर्म क्या होता है ? डा. महेंद्र शर्मा

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

ज्योतिषाचार्य डा. महेंद्र शर्मा

पानीपत : प्रख्यात साहित्यकार ज्योतिषाचार्य डा. महेंद्र शर्मा द्वारा सनातन धर्म का महत्वपूर्ण पर्व श्रावणी उपाकर्म पर विषेश बातचीत दौरान बताया कि विश्व धर्म सनातन धर्म जगत से निवेदन कर दूं की रक्षाबंधन और श्रावणी उपाकर्म यह दोनो अलग अलग पर्व हैं जो श्रावण पूर्णिमा के दिन घटित होते हैं। सोशल मीडिया पर इस दिन भद्रा को पूरा शोर मचाया जाता है कि फलां समय से रक्षा बंधन। लेकिन यह भद्रा का नियम गुरु शिष्य परम्परा के लिए है न कि रक्षा बंधन के लिए। कृपया विषय को गम्भीरता से पढ़े,भावावेश में आ कर किसी का अनुसरण न करें।श्रावणी उपाकर्म तो वैदिक काल की शाश्वत परम्परा है। उपाकर्म का अर्थ होता है प्रारम्भ करना। वैदिक काल (सतयुग) में वेदों का अध्ययन करने के लिए विद्यार्थियों का गुरु के एकत्रित होना और वेदों के अध्ययन के दीक्षित होना होता था।

भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ण विशेष से नहीं कि वह किसी जाति या वर्ण विशेष में जन्मा हो बल्कि वह साधना की उच्च श्रेणी (स्नातक या स्नातकोत्तर) से जुड़ने का सम्बोधन मात्र है। संस्कारों में द्विजत्व की बात कही गई है।

इस उपाकर्म कृत्य को संक्रांति के संग पूर्णिमा की युति, चंद्र ग्रहण की युति या भद्रा आदि में नहीं करना चाहिए। वाजसेनी आदि सभी शाखाओं के ब्राह्मणों को उपाकर्म अर्थात वेद अध्ययन प्रारंभ श्रावण शुक्ल पंचमी (नाग पंचमी) तिथि पर करना चाहिए।
शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म का नियमन हेमाद्रिकल्प स्कन्द पुराण स्मृति महानिर्णय निर्णय सिंधु धर्म सिंधु आदि ज्योतिष ग्रंथों में प्रमाणित है। जो श्लोक निम्नलिखित है जिस में यह लिखा है….

इदं भद्रायां न कार्यं, भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा। श्रावणी नृपति हंति ग्रामं दहति फाल्गुनी।।”

वैदिक कालखंड सतयुग में ऋग्वेद की आज्ञानुसार ब्राह्मणों को षडकर्मों की आज्ञा है… यज्ञ करना और यज्ञ करवाना, दान देना और दान लेना, विद्या पढ़ना और विद्या पढ़ाना … जब वैदिक काल में ऋग्वेद में यह नियम प्रतिपादित हुए थे तब सतयुग में रक्षाबंधन का पर्व नहीं था। रक्षाबंधन पर्व त्रेतायुग में श्री भगवान वामन के अवतार से प्रारम्भ हुआ है। उपरोक्त श्लोक को धैर्य पूर्वक पढ़ें और विचार करें …. अन्यथा भद्रा के कारण जिन दो अवसरों पर कार्य करने की आज्ञा नहीं है उसमें रक्षाबंधन शब्द भी होता। वेदों के नियमन तो शाश्वत हैं जिनमें हम न तो कुछ जोड़ सकते हैं और न ही कुछ घटा सकते हैं और न ही उन में कोई संशोधन कर सकते हैं और न ही इन वैदिक सिद्धांतों में कोई संशोधन हुआ है। बाकी बात इन की व्याख्या करने की है विद्वान जनों और सोशल मीडिया पर व्याख्या इसी प्रकार से होती है जैसे की आजकल की जा रही है ऐसे ही होती है कुछ भी कह दो लिख दो , उस पर किसी की कोई जवाबदेही नहीं है। जब कोई महानुभाव प्रश्न करता है तो उसे बात समझ तो आ जाती है पर वह यह कहना नहीं भूलता कि टी वी और फेसबुक पर यह कहा जा रहा है। व्याख्या जो सत्य वह यही है कि भद्रा का विचार केवल श्रावणी उपाकर्म श्रावण और फाल्गुन पूर्णिमा पर होता है … श्लोक में भी यही लिखा है। यदि रक्षा बन्धन पर भी भद्रा का प्रभाव होता तो इसको भी श्रावण शुक्ल पंचमी पर मनाया जाता, लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा। धर्म को सरल बनाएं। आज से तीस चालीस वर्ष से पूर्व भी जब पिता श्री पूज्य पo शंकर लाल जी उपमन्यु पर्व सूची का निर्माण करते थे तो वह भी यह कहते थे भद्रा का राखी रक्षा बन्धन से क्या लेना देना ? सोशल मीडिया का काम है केवल और केवल शोर मचाना। उत्तर भारत का समस्त वर्णों का जनमानस पञ्चांग नियम के अनुसार ही चलता है, हम उत्तर भारतीय न तो किसी परम्परा पर अतिक्रमण करते हैं और न ही सहन करते हैं कि कोई हमारी परम्पराओं में अतिक्रमण करें। कृपया पंचांग नियमन के पथिक बनें, गत वर्ष पानीपत में पधारें अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने भी यही कहा है की यदि हम शास्त्रों का अध्ययन करेंगे और पंचांग को मानेगे तो पर्व एक ही दिन मनाए जायेंगे।
डॉ. महेन्द्र शर्मा “महेश” पानीपत।

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