वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

पानीपत : आजकल तीर्थ यात्राओं का प्रचलन काफी ज्यादा हो रहा, हर कोई तीर्थ यात्रा करवा रहा है चाहे सरकार द्वारा हो या धार्मिक संस्थाओं द्वारा, प्राचीन समय में तीर्थ यात्रा की क्या परिभाषा थी सो जानिए डा. महेंद्र शर्मा से विशेष बातचीत।

तीर्थ यात्रा आध्यात्मिक लाभ लेने और भव सागर से पार उतरने का माध्यम होते हैं तीर्थ। जहां पर ऋषि मुनियों ने तपस्या और स्वाध्याय कर के उन स्थानों को किलित या जागृत किया होता है। इन स्थानों पर जाने से हृदय में परम शांति का आभास होता है। जैसे की हमारे भारत वर्ष में चार पुरियां भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग, आदि शक्ति की 52 शक्तिपीठ हैं अयोध्या मथुरा हरिद्वार काशी उज्जैन कांचीपुरम रामेश्वर और जगन्नाथपुरी आदि तीर्थ हैं।

इन सब का अपना अपना महत्व है। भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग वास्तव में ज्वालामुखी हैं जिनको ऋषि वैज्ञानिकों ने किलित कर के शांत कर दिया। आप शिवलिंग का आकार देखेंगे तो वह आपको अणु बम जैसा लगेगा। वास्तव में हमारा शरीर ही एक प्रकार की शिव परिवार की जलहरी की तरह से है। उसमें भी विपरीत स्वभाव के जीव विराजित हैं और हमारी मनो: बुद्धि में भी इसी प्रकार के सकारात्मक और नकारात्मक विचारों से मन बुद्धि अशांत हो जाती हैं। जिससे हम मनोरोग के शिकार हो जाते हैं। शिव पूजन से शिव को जल, दूध और पंचामृत आदि से स्नान करवाने से हमारे मन के विकार भी शान्त होते हैं। शेष तीर्थों का भी अपना अपना महत्व है। इसी देव आकर्षण का ही परिणाम है। श्री जगन्नाथ पुरी में भाई बहिनों के प्रेम की प्रकाष्ठा है कि परिवार के बिना व्यक्ति का अस्तित्व ही क्या है तो वृंदावन में प्रेम स्नेह और वात्सल्य का प्रभाव है। हरिद्वार काशी उज्जैन आदि तीर्थ हम को विरक्ति की शिक्षा देते हैं, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

तीर्थ यात्रा तो हमारे जीवन का अंग होना चाहिए। इस में छोटे बड़े या आयु का कोई विचार नहीं। पुराने समय जब यात्रा के लिए संसाधन नहीं होते थे तो हमारे पूर्वज पैदल यात्राएं करते थे। यात्रा में उन्हें अनेक प्रकार के दुख और कष्टों के साथ भूख भी सहन करनी पड़ती थी। कष्टों की प्रकाष्ठा इस से अधिक और कहां होगी की महाभारत के पश्चात युधिष्ठिर जी के राज्य के अंतिम दिनों में सभी लोग तीर्थ यात्राओं पर निकले थे और अपना जीवन समाप्त किया था। पांडव तो श्री बद्रीनाथ जी से स्वर्गारोहण कर गए थे। 18 /19 वीं शताब्दी के जब हमारे बुजुर्ग श्री बद्रीनाथ यात्रा पर गए थे तो वह भी अपने परिवार से अंतिम बार मिलन के भाव से मिल कर गए थे कि जय सिया राम… क्या पता अब हम कभी वापिस लौटेंगे कि नहीं।

यात्रा का शुभफल और मंतव्य तभी सिद्ध होता है जब हम स्वयं के पुरुषार्थ से तीर्थयात्रा करें। यद्यपि धर्म ग्रंथों में ऐसा वर्णन अवश्य है कि यजमान अपने कुलगुरु और कुल पुरोहितों को तीर्थ यात्राएं करवाएं। लेकिन आज की आधुनिक राजनैतिक धार्मिक यात्राएं पूर्णतया वर्जित थी। क्यों की हमारे पुराणों में ऐसा कहीं नहीं लिखा कि राजा आम लोगों को इस तरह से कोई यात्राएं करवाए। यदि कोई धनाढ्य सेठ महानुभाव अपने व्यक्तिगत खर्च पर किन्हीं अतीव गरीब लोगों को तीर्थयात्रा करवाता है यह सेठ के लिए एक पुण्यात्मक कृत्य अवश्य हो सकता है जिस का पूर्ण आध्यात्मिक लाभ उस सेठ को मिलेगा जिसने ऐसा सुकृत्य किया, उसके पितृ कारक दोष अवश्य शांत होंगे। निशुल्क यात्रा करने वाले को अल्प पुण्य ही मिलेगा।

वैदिक और पौराणिक दृष्टि से सरकार ऐसी यात्राएं आयोजित नहीं कर सकती, क्यों कि सरकार कोई व्यक्ति या सेठ नहीं है। आज भारत में प्रजातंत्र है जिस में लोगों द्वारा चुनी गई सरकार की व्यवस्था होती है। जिस का राजस्व का माध्यम तो कर प्रणाली होती है। लोगों से कर के माध्यम से राजस्व एकत्र करने के बाद ही तो राजकाज चलते हैं। इस तरह के धन को देश की सुरक्षा शिक्षा चिकित्सा आदि के जन कल्याणक कार्यों योजनाओं में लगाना चाहिए। यदि देश की आज की आर्थिक स्थिति का आंकलन करें तो हमारे देश में जन्म लेने वाले हर बालक के सिर पर कुछ न कुछ कर्ज का भार है। केवल राजनैतिक दृष्टि से गरीब लोगों की भीड़ जुटा कर उन्हें तीर्थ यात्रा करवाने से उन्हें एक तो किसी तरह का आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलेगा दूसरे वह व्यक्ति जो दो चार दिन यात्रा में लगाएगा, जब वापिस घर पहुंचेंगा तो उसके घर की आर्थिक स्थिति और विकराल मुंह खोले खड़ी होगी। यदि उन चार दिनों के कोई पुरुषार्थ या कार्य करता तो उसके बालक भूखे तो न सोते। इस तरह यह एक व्यर्थ की प्रक्रिया है। तीर्थ यात्राएं तो स्वयं के पुरुषार्थ और धन से ही फलीभूत होती हैं।

नव दंपतियों की हनीमून यात्रा का कोई प्रसंग पौराणिक कथाओं में तो कहीं नहीं गई। श्री राम चरित मानस हमारा सब से पवित्र ग्रंथ है जो हमको मर्यादित जीवन जीना सिखाता है। उसमें तो कहीं भी ऐसा कोई जिक्र नहीं है कि भगवान फलां स्थान पर गए थे। बात हनीमून की चली है तो आधुनिक नव दंपति तो विवाह से पहले प्री वेडिंग शूट करवा रहे हैं। कामुकता का पागलपन मन बुद्धि में पहले से ही सवार है। विवाह की वेदी पर बैठने से पूर्व शुद्ध वस्त्र, सात्विक भोजन करना चाहिए लेकिन यहां तो मास मदिरा बिना विवाह ही नहीं हो रहे तो यह लोग तीर्थों पर जा कर ब्रह्मचर्य का पालन ही नहीं कर पाएंगे तो उन तीर्थों की पवित्रता भी नष्ट होगी।

आप के अंतिम प्रश्न का उत्तर तो श्री राम चरित मानस के उत्तरकांड की एक चौपाई में है … मूकहिं बघिर अंध कर लेखा।
एक न सुनहिं एक नहीं देखा।।

मेरी दृष्टि में मुफ्तखोरी दोनो तरफ है। राजा भी जनता से जन कल्याण के विकास कार्य किए बिना वोट चाहता है जनता भी चुस्त दुरुस्त है कि जब यह मुफ्त की खाने की सोच रखता है तो गंगा में डुबकी क्यों न लगा लूं। यहां तो बड़ी उमस है, सरकार ने कोई काम धाम रोजगार व्यापार तो दिया नहीं कि व्यस्त रहूं।कम से कम गंगा जी में दो घंटे पड़ेंगे, मुफ्त का लंगर खाएंगे। इससे दोनो को कुछ भी लाभ नहीं मिलने वाला उल्टे राज्य का राजस्व नष्ट होगा और जनता को चार दिन बाद और भुखमरी का सामना करना होगा। क्योंकी सरकार जब आप घर पहुंचेंगे तो आप को पैसों का लिफाफा या भोजन की थैली थोड़े न पकड़वा देगी।
अन्त में यही बात सत्य सिद्ध होगी दो थे यार
एक था अंधा दूसरे को दिखता नहीं था।

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