आपराधिक घटना लेकिन राजनीति शिक्षा और समाज का चेहरा दिखाता उपन्यास

-कमलेश भारतीय

मुकेश भारद्वाज ‘जनसत्ता’ के संपादक हैं और राजनीति पर ‘बेबाक बोल’ साप्ताहिक स्तम्भ लिखते हैं और ‘नेता मोहब्बत वाला’ जैसी किताब भी लिखते हैं । अभिमन्यु श्रृंखला का इनका तीसरा उपन्यास ‘नक़्क़ाश’ आया तो मैंने मुकेश भारद्वाज से यह उपन्यास मांगा कि देखूं तो सही, यह मेरा छोटा भाई कहां से कहां की उड़ान भर रहा है ! यह संयोग ही कहा जा सकता है कि साहित्य की राह पर आने से पहले मैंने स्वयं बहुत जासूसी उपन्यास पढ़े , इतने कि मेरे शहर में तब किराये पर उपन्यास देने वाले दोनों दुकानदारों ने एक साल बाद हाथ खड़े कर दिये थे कि आपने हमारे सारे उपन्यास पढ़ लिये, अब हमारे पास आपके लिए कुछ नहीं बचा ! अब बचा है इस उम्र में भी सोनी टीवी का ‘क्राइम पेट्रोल’ ! एक एपीसोड तो प्रतिदिन नशे की खुराक की तरह ले ही लेता हूँ !

मुकेश भारद्वाज का ‘नक़्क़ाश’ ऊपर ऊपर से जासूस अभिमन्यु की अमृतलाल के कहने पर की गयी जासूसी है लेकिन यह हमारी राजनीति, शिक्षा और हमारे समाज के बदलते चेहरे को सामने लाने में पूरी तरह सफल है । कहानी देखा जाये तो बहुत छोटी है । दो बिल्डर्स अमृतलाल और रोहित कापड़ी की फाइलें मंत्री देवराज सिंह के दफ्तर में हैं एप्रूवल‌ के लिए ! जहां अमृतलाल मंत्री की पीए मौलश्री पर भरोसा रखे हुए है, वहीं रोहित ने मंत्री की बेटी चित्रांगदा को गांठ रखा है और वह उसके लिए मौलश्री को जिमखाना क्लब में कहती भी है लेकिन वहां कहा सुनी हो जाती है और आखिर चित्रांगदा मौलश्री के साथ उसके घर जाती है और रोहित कापड़ी की फाइल ओ के और अमृतलाल की रिजेक्ट करवा देती है लेकिन उसके मौलश्री के घर से निकलते ही कुछ मिनटों बाद मौलश्री मृत पाई जाती है ! कैसे और क्यों और कौन है हत्यारा? इसी हत्या की कड़ी में नृत्यांगना कमला की हत्या की कड़ी भी जुड़ जाती है। उसी स्टाइल में।नक़्क़ाशीदार चाकू के एक ही वार से ही! इन सवालों के साथ यह उपन्यास और अभिमन्यु घूमते घूमते राजनीति, शिक्षा और नये बनते बिगड़ते समाज का चेहरा हमारे सामने लाते रहते हैं अभिमन्यु के माध्यम से ! वह अभिमन्यु जो गालिब का दीवाना था, जो जेएनयू का छात्र लेकिन जाॅब मिलती है पुलिस की, जो स्वभाव को रास नहीं आती तो पुलिस की नौकरी छोड़ कर प्राइवेट डिटेक्टिव बन जाता है ! अमृतलाल इसका क्लायंट है और मौलश्री की हत्या की गुत्थी सुलझाना ही अभिमन्यु का उद्देश्य ! इस सारे रहस्य की गुत्थी सुलझाते सुलझाते मंत्री देवराज सिंह के चरित्र के माध्यम से नेताओं के चरित्र, राधिका सिंह, चित्रांगदा सिंह, नृत्यांगना कमल जैसे चरित्र सामने आते हैं जो इसी राजनीति से उपजे हैं। इसी में ज़ायरा खान का प्रगतिशील चेहरा भी आता है, जो बाद में अपने ही किसी साथी का शिकार होकर विक्टम बन जाती है और आखिरकार मंत्री देवराज सिंह की मौलश्री के बाद नयी पीए बन जाती है, यानी प्रगतिशील भी समझौतावादी हो जाती है जीवन के लिए ! पुलिस जितने पैसे कमल के घर से बरामद करती है, उतने रिकॉर्ड में दिखाती नहीं, बीस लाख कम दिखाये जाते हैं! यह पुलिस का चाल, चलन ओर चरित्र है ! कमल को इस बात की सज़ा मिली कि उसे यह साबित करना था कि मौलश्री की हत्या के समय रोहित कापड़ी उसके साथ था और इसी को लेकर वह रोहित को ब्लैकमेल कर रही थी ! होली दीवाली को राजनेताओं के लिए राष्ट्रीय भ्रष्टाचार जैसा दिवस कहा तो ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई भी तीस साल बाद कुछ न कुछ बरामद कर ही लेती है, से इन संस्थाओं पर भी व्यंग्य किया है ! यूनिवर्सिटी को सबसे रंगीन‌ जगह ! इस तरह यह उपन्यास कितने रंग और कितने चेहरे दिखाता है। जिस मौलश्री की एक झलक पाने के लिए लोग तरसते थे , उसका अतीत कितना भयानक! मां ने जिससे प्रेम किया, उसने शादी नही की और फिर भी मौलश्री को जन्म दिया, पाला, पैसा, पढ़ाया लिखाया उसी प्रेमी ने, अपनाया नहीं ! उसी मौलश्री का शव लेने कोई नहीं आया तो अमृतलाल ने ही अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी उठाई ! यह भी एक चेहरा है समाज का ! चित्रांगदा अमृतलाल की सचिव बन जाती है क्योंकि मेनटेन कैसे करे स्टेट्स!

अभिमन्यु श्रृंखला के पहले दो उपन्यास नहीं पढ़े पर अब लगता है कि मुकेश भारद्वाज से मे भी मंगाने पड़ेंगे ! जासूसी उपन्यास जैसा फटाफट जिज्ञासा, उत्सुकता बढ़ाता, धक् धक् करता यह उपन्यास सचमुच एक बार पढ़ना शुरू किया तो खत्म किये बिना चैन नहीं पड़ा! इसका कलेवर और फ्लेवर बेशक जासूसी उपन्यास जैसा है लेकिन नक़्क़ाशीदार कलम से चोट हमारी व्यवस्था पर है, शिक्षा और राजनीति पर है । नक़्क़ाशीदार चाकू नहीं, कलम है, जिसका नश्तर खूब चला है ! ज़ायरा खान और जासूस अभिमन्यु एक प्रसंग अगर न भी होता तो उपन्यास में कोई कमी न आती! इतना ग्लैमर जो डाॅन में भी नहीं था! ज़रा बच के! ऐसे प्रसंग से! बाकी सब बल्ले बल्ले लिखा है मुकेश ! लोग कहते हैं कि मुफ्त मे मिली किताबें पढ़ते नहीं, मैं पढ़ता हूँ उपहार में मिली किताबें भी! ये मुफ्त नहीं होतीं, उपहार में भेजी जाती हैं ! प्रकाशन भी खूबसूरत है । बधाई मुकेश !

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