धर्मपाल वर्मा

चंडीगढ़ । समाज में प्रचलित कहावतें न केवल सार्थक बातें हैं बल्कि ऐसा लगता है कि इन्हें हजार हजार साल टेस्ट करके बनाया गया है। एक कहावत है, समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता ।इस बात को व्यवहार में कभी भी और कहीं भी जांचा और परखा जा सकता है। राजनीति में भी भाग्य बड़ा रोल अदा करता है ।जब मनोहर लाल हरियाणा के मुख्यमंत्री बने तो पहली बार विधायक बनकर आए थे और अब उनकी जगह एक सांसद को मुख्यमंत्री बना दिया गया परंतु हरियाणा विधानसभा में सबसे वरिष्ठ और छह बार विधायक बन चुके अंबाला कैंट के विधायक अनिल विज के मुख्यमंत्री बनने का सवाल पैदा ही नहीं हुआ। इसी तरह दक्षिणी हरियाणा और अहीरवाल के लोकप्रिय नेता पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र राव इंद्रजीत सिंह का मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न आज तक पूरा नहीं हो पाया । लगभग यही स्थिति चौधरी वीरेंद्र सिंह की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनीतिक व्यक्ति महत्वाकांक्षी भी होता है यूं कहिए कि जो महत्वाकांक्षी नही है वह नेता नहीं है। जब किसी नेता की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होती तो उसे कष्ट भी होता है लेकिन राजनीति में दो-तीन चीज ऐसी हैं जो आपको बनने बिगड़ने का काम करती है । एक है हताशा का सामने आना ,दूसरा जरूरत से ज्यादा बोलना ,तीसरा है आर पार का फैसला लेने की बजाय दो मन बना लेना संयम से काम नहीं लेना, इस मामले में हम तीन नेताओं की बात कर सकते हैं ।एक अनिल विज है। सब जानते हैं कि वह बड़े-बड़े विभागों के मंत्री रहे हैं जाहिर है उनका सपना भी मुख्यमंत्री बनने का होगा परंतु उनके सामने भारतीय जनता पार्टी के दो ऐसे मुख्यमंत्री बन गए जो एक बार या पहली बार विधानसभा पहुंचने वाले थे।

वैसे तो अनिल विज कई बार रुठे फिर मान गए फिर रूठे और फिर मान गए अब रूठे हुए हैं परंतु यही नहीं मान रहे हैं कि वह रूठे हुए हैं जबकि सारे देश ने जान लिया है कि वे रूठ कर ही विधायक दल की बैठक से बाहर आए थे और रूठ कर ही सरकारी गाड़ी छोड़ आए। अब एक बात बिल्कुल क्लियर है कि मनोहर लाल की भी छोड़ दीजिए नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी पूरी जिंदगी इस बात को मन मस्तिष्क से नहीं निकाल पाएंगे कि उनकी ताजपोशी का विरोध करते हुए अनिल विज एक तरह से वाकआउट कर गए थे। असल में यह वह मौका था था जहां अनिल विज को संयम का परिचय देना चाहिए था लेकिन वह गच्चा खा गए और वही गलती कर बैठे जिसकी विरोधियों को आशंका थी। देखा जाए तो इसे हाई कमान और नरेंद्र मोदी के आदेश और वर्चस्व को चुनौती देने के रूप पेश किया गया होगा। क्योंकि यह बात तो समझ लेने की है कि यदि नायब सैनी को मनोहर लाल मुख्यमंत्री बना रहे थे तो यह सब प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकृति के बाद ही हुआ होगा।ऐसा ही 2014 में रामविलास शर्मा ने किया था। जब मनोहर लाल की ताजपोसी होने लगी तो रामविलास शर्मा ने इसके विरोध में यूटी गेस्ट हाउस में अपने समर्थक कुछ विधायकों के साथ बैठक की। इस मामले में रामविलास शर्मा ही नहीं उनके उस समय के समर्थक विधायकों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ होगा। जानकार लोग इसकी पड़ताल कर इसकी गहराई तक जा सकते हैं।

अब अनिल विज की बात फिर से करते हैं। उनके नाराज होकर चले जाने का और फिर मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार करने को लेकर लोग जो चर्चा करने लगे हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि इससे न तो अनिल विज को कोई लाभ होने वाला न हीं उनके हलके को। एक तो बताया जा रहा है कि यह हकीकत हाई कमान तक पहुंच गई और मुख्यमंत्री उन्हें बनाया नहीं गया मंत्री वह बने नहीं ।भविष्य में बने भी तो पहले जहां वह सीआईडी की लड़ाई लड़ते लड़ते हार गए अब उनके हाथ से गृह मंत्रालय भी चला जाएगा जिसके दम पर वह अंबाला में दरबार लगाते थे। अब विचारशील लोग यह सवाल खड़ा करते हैं कि जिस नव नियुक्त मुख्यमंत्री नायब सैनी की ताजपोसी के विरोध में अनिल विज बैठक छोड़कर आए थे उनका गृह ‌जिला भी अंबाला ही है । इस जिले में विशेष तौर पर मुख्यमंत्री अपने विश्वास पात्र अधिकारियों को नियुक्त करेंगे और उन्हें जो मौखिक आदेश देंगे उसे सहज ही समझा जा सकता है या ऐसे मामलों में संकेत ही बहुत होता है। हम यह नहीं कहते कि ऐसा होगा लेकिन ऐसा हो सकता है।कल यदि अनिल विज जनता को यह शिकायत करें कि मुख्यमंत्री उनकी सुनते नहीं , उनके काम नहीं करते तो इससे भी नुकसान उनका अपना होगा। क्योंकि फिर लोग उनसे किनारा करने लगेंगे और सीधे मुख्यमंत्री से मिलना शुरू कर देंगे ।यह स्वाभाविक और व्यावहारिक बात है।जब चुनाव सिर पर हो तब किसी नेता के साथ ऐसी स्थिति बन जाए तो उसका राजनीतिक नुकसान हर हालत में हो जाता है। जानकार मानते हैं कि जैसे अनिल विज एक बार निर्दलीय रूप में भी विधायक बन गए थे 2009 में उनकी पूर्व स्वीकृति के बिना ही भाजपा ने टिकट घोषित कर दी थी तो उन्हें लगता होगा कि अब वह एक बार फिर अपने दम पर चुनाव जीत सकते हैं लेकिन कई बार व्यक्ति राजनीति में भी एलबीडब्ल्यू हो जाता है।

लगता है कि अनिल विज के मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर भी दो मन बने हुए है। शायद वह मंत्री बनने का लोभ लालच छोड़ भी नहीं पाएंगे और बन भी नहीं पाएंगे और बने तो लोग तरह-तरह के सवाल उठाएगें क्योंकि प्रदेश के जो पावर सेंटर हैं वह उनके खिलाफ नजर आ रहा हैं और शायद ऊपर वालों से उनके खिलाफ कान भरकर अपनी सुविधा अनुसार काम करने की स्वीकृति भी ले आया हैं। सीएमओ में बैठे एक निर्णायक व्यक्ति से उनकी खटपट पहले ही बताई जा रही है।नेता इस बात को भी हाई कमान में प्रचारित कर लेते हैं कि अनिल विज का अपने हलके से बाहर कहीं प्रभावी जनाधार नहीं है। ऐसी चर्चाएं आम है ,वैसे सही बात को दोनों पक्ष के लोग ही जानते हैं। अब अनिल विज को देर सबेर यह साफ करना पड़ेगा कि वह चाहते क्या है और सरकार को यह बताना और जताना पड़ेगा कि उनकी कौन-कौन सी बात मानी जाएगी कौन सी नहीं। लेकिन यह बात साफ है कि राजनीति में कई बार व्यक्ति की एक गलती ही उस पर भारी पड़ जाती है। अब देखना यह है कि मंत्रिमंडल के विस्तार के समय होगा क्या।

अब हम बात करते हैं राव इंद्रजीत सिंह की। उनका स्वप्न भी मुख्यमंत्री बनने का है और शायद यह आखरी मौका भी था। निराश तो उन्हें भी हुई होगी लेकिन उन्होंने अपना विरोध दूसरे तरीके से दर्ज कर दिया और सीधे हाई कमान में। बताते हैं कि वह नांगल चौधरी से विधायक सेवानिवृत आईएएस डॉक्टर अभय सिंह यादव को मंत्रिमंडल में शामिल करने के खिलाफ थे। उन्होंने 2019 में सरकार के गठन के समय भी इसका विरोध किया था। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल चाह कर भी डॉक्टर अभय सिंह यादव को मंत्रिमंडल में नहीं ले पाए। राव इंद्रजीत सिंह ने कथित तौर पर यह चाहा कि मंत्रिमंडल में अहिरवाल क्षेत्र से दो मंत्री और बने। डॉक्टर बनवारी लाल के अलावा। कहते हैं उनके इस प्रयास से भी मंत्रिमंडल का विस्तार रुक गया। अब ऐसी स्थिति बन सकती है कि अभी तक बने पांच मंत्रियों का नोटिफिकेशन जारी करके सारे विभाग मुख्यमंत्री सहित इन्हीं 6 लोगों में बांट दिए जाएं और मंत्रिमंडल का विस्तार लोकसभा के चुनाव के बाद हो। जानकार कहते हैं कि मुख्यमंत्री बनने का सपना लेने वाले चौधरी वीरेंद्र सिंह तो दोबारा कांग्रेस में चले गए लेकिन इन दोनों नेताओं को एक बात समझ लेनी चाहिए कि चाहे प्रदेश अध्यक्ष बनाने का मामला हो चाहे मुख्यमंत्री बनाने का भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह नियम है कि इन पदों पर आरएसएस कैडर से संस्कारित लोग ही उम्मीदवार होते हैं। न अनिल विज आर एस एस से आए हैं न राव इंद्रजीत सिंह।

आरएसएस से दीक्षित नायब सैनी मुख्यमंत्री बन गए हैं और इसी योग्यता के दम पर राई के विधायक मोहनलाल बडोली को भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा सकता है। यह उसी तरह की कंडीशन है जैसे सरकारी अध्यापक प्राध्यापक की नौकरी के लिए नेट पास करना जरूरी होता है।

अंत में एक बात और कहीं जा सकती है कि हाल के प्रकरण में निवृत्तमान मुख्यमंत्री मनोहर लाल एक चाणक्य की भूमिका में नजर आ रहे हैं। सब कुछ उनकी योजना के अनुसार होता दिख रहा है। ऐसा लगता है कि बहुत चीज पूर्व नियोजित हैं और कई लोग इन योजनाओं का शिकार भी हो रहे हैं। जो व्यक्ति फाउल होगा उसे नुकसान भी बर्दाश्त करना पड़ेगा। जानकर यह है मानकर चल रहे हैं कि कुछ चीज ऐसी हैं जो कल मनोहर लाल की मर्जी के खिलाफ जाती हुई भी नजर आ सकती हैं लेकिन उनका मकसद और योजना फिलहाल सफल होती दिख रही हैं और नहीं लगता कि लोकसभा चुनाव से पहले हरियाणा मंत्रिमंडल का विस्तार हो पाएगा । चुनाव में इसका क्या असर होगा इसका अनुमान चुनाव शुरू होने के बाद ही हो पाएगा। लेकिन एक बात अब से पहले नजर आ रही है कि हरियाणा में इस बार बहुत ही रोचक चुनाव होने जा रहा है और वह भी अधिकांश सीटों पर ।

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