चौधरी चरण सिंह ने किसानों के लिए 85 साल पहले क्या उठाई थी मांग?

सरकार में ऐसे अधिकारी जो जौ और गेहूं के पौधों में अंतर नहीं कर सकते

वर्तमान में आंदोलन ‘किसान मसीहा’ चौधरी चरण सिंह और ‘हरित क्रांति के जनक’ एम एस स्वामीनाथन को भारत रत्न दिए जाने की घोषणा के कुछ दिन बाद शुरू 

भाजपा सरकारें हिटलरशाही पर उतरी, गोया किसान अंतरराष्ट्रीय आंतकवादी हो उनके दिल्ली में आते ही दिल्ली तबाह हो जाएगी

अशोक कुमार कौशिक 

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों के किसान सभी फसलों को एमएसपी के दायरे में लाने और एमएसपी की गारंटी के मुद्दे को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन के तहत किसानों के 150 से ज्‍यादा संगठन से जुड़े किसान 13 फरवरी की सुबह दिल्‍ली की ओर बढ़ना शुरू हुए। पंजाब की ओर से आने वाले किसानों को हरियाणा में शंभू बॉर्डर पर रोक दिया गया। वहीं, बाद में हरियाणा के ही जींद में दाता सिंघवाला खनौरी बॉर्डर पर पुलिस अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया। भाजपा सरकारों की अहंकार की प्रकाष्ठा या स्पष्ट दिखाई दे रही है। किसानों को दिल्‍ली में घुसने से रोकने के लिए धारा-144 लागू कर दी गई है। साथ ही दिल्‍ली की सभी सीमाएं सील कर दी गई हैं। गोया किसान कोई अंतर्राष्ट्रीय आंतकवादी हो। केंद्र हरियाणा में राजस्थान सरकारों द्वारा ऐसा बर्ताव किया जा रहा है कि यदि किसान दिल्ली में घुस गए तो दिल्ली तबाह हो जाएगी। देश की आजादी के बाद पहली बार अपनी आवाज उठाने पर पाबंदी लगाई जा रही है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून बनाने, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने सहित कई मांगों के साथ किसान दिल्ली आ रहे हैं। पंजाब-हरियाणा और यूपी के किसानों को रोकने के लिए दिल्ली की सीमाओं को छावनी में बदल दिया गया है। केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से कई तरह के बंदोबस्त किए हैं। लेकिन किसान तमाम बाधाओं का पार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।

इस सबके बीच जानते हैं कि देश में पहला किसान आंदोलन किसने छेड़ा था? इस आंदोलन में किसान पीछे हटे या सरकार को झुकना पड़ा?

भारत में ‘किसान आंदोलन का जनक’ कहलाने वाले दंडी स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। लेखक डॉ. पीएन सिंह स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती के जीवन और उनके कामों पर लिखी अपनी किताब ‘गाजीपुर का गौरव बिंदु राजनीति में क्रांतिकारी सन्यासी स्वामी सहजानंद’ में कहते हैं कि 5 दिसंबर 1920 को पटना में मजहर उल हक के घर पर महात्‍मा गांधी से उनकी मुलाकात हुई। फिर उनके विचारों से प्रभावित होकर राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन में जुट गए।

नेहरू से जेल में हुई स्‍वामी सहजानंद की मुलाकात

खुद स्‍वामी सहजानंद ने 1941 में प्रकाशित आत्‍मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ में महात्‍मा गांधी के जादुई असर के बारे में लिखा है। बता दें कि स्‍वामी सहजानंद का जन्‍म गाजीपुर के देवा गांव में 22 फरवरी 1889 को हुआ था। डॉ. पीएन सिंह किताब में लिखते हैं कि स्वामी सहजानंद 1922 में पहली बार स्‍वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए जेल गए।

जेल में उनकी मुलाकात पंडित जवाहर लाल नेहरू समेत कई नेताओं से हुई। वह एक साल जेल में रहने के बाद बाहर आए। इसके बाद वह 1925 तक गाजीपुर में सक्रिय रहे. उन्‍होंने 1932 में बिहार के बिहिटा में चीनी मिल खोलने में बड़ी भूमिका निभाई। 

डालमिया की मिल में किसानों-मजदूरों से अन्‍याय

बिहार में इसी साल गांधीवादी विचारों को मानने वाले उद्योगपति आरके डालमिया ने चीनी मिल शुरू की। गांधीवादी आरके डालमिया गांधी टोपी पहनते थे और खुद को कांग्रेसी कहते थे। मिल के प्रबंध निदेशकों में डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे। इस मिल का उद्घाटन पंडित मदन मोहन मालवीय ने किया था। डालमिया की चीनी मिल के उद्घाटन के दौरान मजदूर और किसानों के हितों की सुरक्षा की बातें की गईं। लेकिन, कुछ समय बाद ही मिल में अंग्रेज मिल मालिकों से भी ज्यादा क्रूरता होने लगी। अंग्रेज मिल मालिकों के मुकाबले डालमिया की मिल में किसानों से आधी कीमत पर गन्‍ना खरीदा जाने लगा। मिल में काम करने वाले मजदूरों को कम मेहनताना दिया जाने लगा।

स्‍वामी सहजानंद ने ठुकराई पैसों से मदद की पेशकश

स्वामी सहजानंद को खामोश करने के लिए आरके डालमिया ने खुद दोस्‍ती करने की कोशिश की। आरके डालमिया उनके आश्रम को दान देने लगे। जल्‍द ही स्वामी सहजानंद माजरा समझ गए। उन्‍होंने डालमिया से कहा कि आश्रम को रुपये ना दें। अगर ये नहीं रुका तो आप गरीबों पर जुल्म करेंगे। ये रुपये मेरा मुंह बंद कर देंगे। मिल में किसानों और मजदूरों के हालात खराब होते गए तो स्‍वामी सहजानंद ने आरके डालमिया के खिलाफ किसानों और विरुद्ध मजदूरों के हक में आंदोलन छेड़ दिया।

डालमिया ने स्वामी सहजानंद को चुप रखने के लिए उनके बिहिटा आश्रम को मदद के बहाने 10 हजार रुपये एकमुश्त और 200 रुपये हर महीने देने की पेशकश भी की। लेकिन, उनकी दौलत स्‍वामी सहजानंद को खरीद नहीं पाई।

मिल मालिकों को झुकना पड़ा, हुई किसानों की जीत

स्वामी सहजानंद ने आंदोलन का नेतृत्व किया. उनके आह्वान पर किसानों ने आरके डालमिया की मिल को गन्‍ना देना बंद कर दिया। किसान आंदोलन को रास्‍ते से भटकाने करने के लिए नकली यूनियन भी खड़ी कर दी गई। इसके बाद भी किसानों और मजदूरों की एकता को तोड़ने में सफलता नहीं मिली। आखिर में किसानों की जीत हुई। किसानों और मजदूरों को स्‍वामी सहजानंद ने अपने हक के लिए आंदोलन की जो राह दिखाई, किसान आज भी उसी पर चलते हुए सड़क पर उतर पड़ते हैं। 

किसानों के लिए महात्‍मा गांधी से भी भिड़ गए

स्‍वामी सहजानंद स्‍वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई बार जेल गए। कारावास के दौरान गांधीजी का जमींदारों के प्रति नरम रुख को देखकर वह नाराज हो गए थे। बिहार में 1934 के भूकंप से तबाह किसानों को मालगुजारी में राहत दिलाने की बात को लेकर वह गांधीजी से भी भिड़ गए थे। हालात कुछ ऐसे बने की दोनों में अनबन हो गई। इसके बाद उन्‍होंने एक झटके में ही कांग्रेस छोड़ दी और अलग होकर अकेले ही किसानों के लिए जीने-मरने का संकल्प ले लिया। वह अपनी अंतिम सांस तक किसानों और मजदूरों के हक के लिए लड़ते रहे। 26 जून 1950 को किसान आंदोलन के जनक और स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी स्‍वामी सहजानंद का निधन हो गया।

अब वर्तमान में जो आंदोलन हो रहा है वह

‘किसान मसीहा’ चौधरी चरण सिंह और ‘हरित क्रांति के जनक’ एम एस स्वामीनाथन को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की घोषणा के महज कुछ दिन बाद हो रहा है। इस आंदोलन को कुचलने के लिए भाजपा सरकारें हिटलरशाही पर उतर आई।

किसानों के लिए क्या चाहते थे चौधरी चरण सिंह?

किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का मानना था कि कृषि विभाग में ऐसे अधिकारी हैं जो जौ के पौधे और गेहूं के पौधे के बीच अंतर नहीं कर सकते हैं। सिंचाई विभाग में ऐसे अधिकारी हैं जो नहीं जानते कि किसी फसल को कब और कितना पानी दिया जाता है।’

चरण सिंह ने मार्च 1947 में शीर्षक से एक दस्तावेज़ तैयार किया था। चरण सिंह चाहते थे कि 60 प्रतिशत सरकारी नौकरी और सरकारी शिक्षण संस्थानों की सीटों को किसान परिवारों के लिए आरक्षित कर दिया जाए। चरण सिंह ऐसा इसलिए चाहते थे ताकि किसानों पर आश्रित बच्चों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।

सबसे पहले कब की थी किसानों के लिए कोटे की मांग?

प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में बताते हैं कि चरण सिंह ने किसानों के लिए कोटा की मांग सबसे पहले अप्रैल 1939 में उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) कांग्रेस विधायक दल की कार्यकारी समिति के समक्ष की थी। तब उन्होंने 50% का प्रस्ताव रखा था। सिंह के इस प्रस्ताव का विरोध हुआ था। लेकिन विरोध का कारण कोटा की मांग नहीं बल्कि सिर्फ ‘किसानों के बच्चों’ के लिए कोटा की मांग थी।

सिंह ने अपने प्रस्ताव में भूमिहीन मजदूरों को शामिल नहीं किया था, जो 1951 की जनगणना में कुल कृषि कार्यबल का 28.1% थे। प्रस्ताव का विरोध होने पर सिंह ने कहा था कि मुझे जोत वाले किसानों के साथ कृषि मजदूरों को शामिल करने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उस स्थिति में मैं 60 प्रतिशत के बजाय 75 प्रतिशत कोटा की मांग रखूंगा।

सिंह स्पष्ट थे कि उनका प्रस्ताव जातिगत आरक्षण को लेकर नहीं है, बल्कि जमीन जोतने वालों को प्रतिनिधित्व देने को लेकर है, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों।

चरण सिंह की मांग की धमक आज भी सुनाई देती है। आए दिन जाट, मराठा, पाटीदार और कापू जैसी जमींदार किसान जातियां खुद को आरक्षण का हकदार बताते हुए ओबीसी दर्जे की मांग करती हैं।

सिंह एक जाट थे, लेकिन उन्होंने कभी खुद को उस समुदाय के व्यक्ति के रूप में पेश नहीं किया। उन्होंने कृषकों के पूरे वर्ग, विशेष रूप से मुस्लिम, अहीर (यादव), जाट, गुज्जर और राजपूत समुदाय के मध्यम वर्गीय किसानों के हक की बात की। अपनी इस नीति से उन्होंने सिर्फ जाट ही नहीं, बल्कि इन सभी जातियों के किसानों को अपना प्रिय बना लिया।

मंडल आयोग का समर्थन लेकिन जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ!

चरण सिंह मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री थे, जिसने जनवरी 1979 में बीपी मंडल के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिसके आधार पर वीपी सिंह की सरकार ने ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) समुदायों के लिए 27% आरक्षण (सरकार नौकरी और उच्च शिक्षा में) की घोषणा की थी।

मंडल आयोग के गठन का समर्थन करने के बावजूद चरण सिंह ने जोर देकर कहा था कि किसानों के लिए आरक्षण का जाति से कोई लेना-देना नहीं है। वह चाहते थे कि दलितों और आदिवासियों को छोड़कर किसी भी उम्मीदवार से उसकी जाति के बारे में पूछताछ नहीं की जानी चाहिए।

सिंह का मानना था कि भारतीय समाज दो भागों में बंटा हुआ है- शहर में रहने वाले लोगों और गांव में रहने वाले किसानों। शहरी लोगों को लेकर उनका कहना था कि ‘वह गरीब किसानों पर अपना प्रभुत्व जमाते हैं और…कृषकों की परेशानियों के प्रति बहुत कम सहानुभूति रखते हैं। शहर में पला-बढ़ा गैर-कृषक गांव के अपने गरीब देशवासी को उसी तिरस्कारपूर्ण लहजे में ‘देहाती’ और ‘गंवार’ कहता है, जैसे यूरोप का कोई मूलनिवासी भारतीयों को अपमानित करने के लिए कहता है।’

किसान नेता ने यह उस परिपेक्ष में कहा था जब भारत में खेती से टोटल वर्कफोर्स के 70 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता था। 1950-51 में खेती से कुल जीडीपी का 54% आता था।

एक सर्वे के बाद कोटे की मांग में आई तेजी

चरण सिंह 1961 के एक सर्वेक्षण से आश्चर्यचकित रह गए जिसमें भारतीय प्रशासनिक सेवा के केवल 11.5% अधिकारी कृषि पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले थे और 45.8% के पिता सरकारी कर्मचारी थे। इसलिए उन्होंने न केवल किसानों के बच्चों के लिए 60% आरक्षण का प्रस्ताव रखा, बल्कि उन लोगों को सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य घोषित करने को कहा, जिनके माता-पिता पहले ही सरकार नौकरी से लाभान्वित हो चुके थे।

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