अशोक कुमार कौशिक 

भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में प्रभु श्री राम के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा आगामी 22 जनवरी को होगी। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देशवासियों में काफी उत्साह है। 500 साल के इन्तजार के बाद भगवान राम अपने जन्मस्थल पर विराजमान होने जा रहे हैं । 

भारत देश में जाति व्यवस्था, ऊंच नीच, जातियों में बसी कुठांओं का इतिहास काफी पुराना रहा है। 

हमें न मंदिर चाहिए, न मूर्ति…क्योंकि हमारा तन ही मंदिर, हमारे रोम-रोम में बसते राम, इनकी कहानी बहुत दिलचस्प है। अनोखी परंपराएं और संस्कृति है। यह भारतीय समाज की एक ऐसी संस्कृति, जिसमें राम नाम को रोम-रोम में, कण-कण में बसाने की परम्परा है। इस समाज को दुनिया रामनामी समाज के रूप में जानती है। इस समुदाय के हर सदस्य, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं और वातावरण में राम नाम बसा है। 

हमारे देश में लोगों की मान्यताएं हैं कि भगवान सब जगह सबके लिए होते हैं और यह भी मान्यता है की भक्तों के रोम-रोम में राम बसे हैं। इसी श्रद्धा को ‘रामनामी’ जनजाति ने अपने शरीर के हर हिस्से में धारण किया है। दरअसल, रामनामी जनजाति के लोग भगवान श्रीराम के इतने बड़े भक्त हैं कि वो अपने पूरे शरीर पर ही प्रभु का नाम लिखवा लेते हैं।

भगवान श्रीराम को समर्पित पूरा शरीर

रामनामी जनजाति के लोग सिर्फ हाथ या मुंह पर ही नहीं बल्कि लगभग पूरे शरीर पर भगवान श्रीराम के नाम का परमानेंट टैटू करा लेते हैं। ऐसा करके राम का नाम का जिंदगीभर उनके साथ रहता है। ज्यादा तर लोग माता-पिता या चाहने वाले का नाम अपनी बॉडी पर टैटू कराते हैं। लेकिन रामनामी जनजाति के लोग अपने श्रद्धा स्थान यानी श्री प्रभु राम का ही टैटू ही बनवाते हैं इस तरह से वह अपने पूरी शरीर को एक तरह से भगवान श्रीराम को ही समर्पित कर देते हैं। ऐसे में लोगों की भक्ति राम के प्रति अटूट विश्वास की अनोखी कहानियां सामने आ रहीं है। इसी कड़ी में छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी जनजाति प्रभु श्री राम के प्रति अटूट श्रद्धा को लेकर चर्चा का विषय बनी हुई है।

दरअसल, छत्तीसगढ़ राज्य में एक ऐसी जनजाति निवास करती है, जिसने अपने पूरे शरीर पर भगवान राम का नाम गुदवा रखा है। हाथ की हथेली, माथा, पैर के तलवे यहाँ तक कि, शरीर का सबसे नाजुक माना जाने वाला हिस्सा कान पर भी राम नाम लिखवाया है। इस जनजाति ने न सिर्फ मन बल्कि शरीर, आत्मा और पूरा जीवन केवल भगवान राम को समर्पित कर दिया है। इस जनजाति की सबसे ख़ास बात यह है कि, इसे भगवान की भक्ति करने के लिए न मंदिर चाहिए और न ही मूर्ती। वह केवल भगवान को स्मरण करते है और उनका जाप करते है। उनके अनुसार भगवान तो हर कण, हर मनुष्य, जीव-जंतु में है तो मूर्ति की क्या जरूरत। इस प्रकार की भक्ति को मध्यकाल के दौर में निर्गुण भक्ति कहा जाता था। आइये अब जानते है वर्तमान दौर के निर्गुण भक्ति करने वाली जनजाति के बारे में …।

इस जनजाति को रामनामी आदिवासी के नाम से जाना जाता है। इस जनजाति के लोग भारत के विभिन्न राज्यों में बसे हुए है। जिसमें महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ शामिल है। इस जनजाति के लोगों ने अपने पूरे शरीर पर राम नाम लिखवाया है इसके साथ ही यह जनजाति केवल राम नाम लिखे कपड़े पहनते है और सिर पर मोरपंख से बना हुआ मुकुट पहनते है।

उठते-बैठते और सोते- जागते बस राम-राम

दरअसल, रामनामी समाज के लोग न मंदिर जाते हैं और न ही मूर्ति पूजा करते हैं। उन्होंने अपने पूरे शरीर पर राम नाम गुदवाया हुआ है। सिर से लेकर पैर तक राम नाम स्थायी रूप से गुदवाते हैं। राम-राम लिखे कपड़े पहनते हैं। घरों की दीवारों पर राम-राम लिखवाते हैं। एक दूसरे से बात भी राम-राम कहते हुए करते हैं। कहा जाता है कि इस समाज के लोग 2 साल का होते ही बच्चे के शरीर पर राम नाम गुदवा देते हैं। यह लोग कभी झूठ नहीं बोले। मांस नहीं खाते, बस राम नाम जपते रहते हैं।

रामनामियों की पहचान और उनके 5 प्रतीक

सिर से लेकर पैर तक राम नाम, शरीर पर रामनामी चादर, मोरपंख की पगड़ी और घंघुरू रामनामियों की पहचान है। 100 साल पुराने रामनामी समाज के 5 प्रमुख प्रतीक हैं। भजन खांब या जैतखांब, शरीर पर राम नाम, ओढ़ने के लिए काले रंग से राम-राम लिखा सफेद कपड़ा, घुंघरू बजाते हुए भजन करना और मोर पंखों से बना मुकट पहनना। यह छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा की रहने वाली आदिवासी जाति है। इस समाज को 1890 के आस-पास बसाया गया था।

रामनामी जनजाति का इतिहास

रामनामी जनजाति का इतिहास भक्ति आन्दोलन से जुड़ा है। भक्ति आन्दोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से शुरु हुई थी जिसके बाद यह धीरे-धीरे पूरे देश में फ़ैल गया था। इसी के फल स्वरुप देश में निर्गुण भक्ति करने वाली जनजाति उभरी। दरअसल, भक्ति आंदोलन के दौरान सभी नीच जाति और जनजाति के लोगों को भगवान की पूजा और मंदिरों में प्रवेश से मना कर दिया था। इसके साथ ही उन्हें सार्वजनिक कुए से पानी लेने तथा मंदिर के बाहर भी खड़े रहने से मनाही थी। इसके बाद जनजाति के लोगों की अपनी भक्ति और आस्था के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस दौरान जनजातियों के लोगों ने अपने मन में ही भगवान को याद करना शुरू किया और अपने पूरे शरीर पर राम नाम गुदवा (टैटू) करा लिया। जिसके बाद अपने जनजाति को ही रामनामी जनजाति नाम दे दिया। रामनामी जनजाति में कई लोग है जो अपने सिर या माथे पर राम नाम गुदवाते है ऐसे लोगों को सर्वांग रामनामी कहते है। वहीं जो अपने पूरे शरीर पर प्रभु श्री राम का नाम गुदवाते है उन्हें नखशिख रामनामी कहा जाता है। इसके अलावा कुछ लोग माथे पर एक जगह राम-राम लिखवाते हैं और उन्हें शिरोमणि कहा जाता है।

शरीर पर राम नाम लिखवाने की शुरुआत

इस जनजाति के लोगों ने 1890 के दशक में शरीर पर राम का नाम लिखवाना शुरू किया था। रामनामी जनजाति की स्थापना की श्रेय परशुराम को जाता है। रामनामी जनजाति के लोग भगवान श्रीराम में अटूट श्रद्धा रखते हैं। माना जाता है कि भारत में रामनामी जनजाति के करीब 1 लाख लोग रहते हैं। इसके अलावा यह भी माना जाता कि, मुगलों के शासन काल के दौरान हिन्दुओं को धर्म से अलग करने के लिये मंदिर और भगवान से दूर कर दिया गया था। इस दौरान में एक जनजाति ने अपने पूरे शरीर पर राम नाम का गुदना करवा लिया था और मुगलों के मंसूबे पर पानी फेरा था। रामनामी समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष मेहत्तरलाल टंडन ने कहा “मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्जा कर लिया और हमें राम से दूर करने की कोशिश की गई हमने मंदिरों में जाना छोड़ दिया, हमने मूर्तियों को छोड़ दिया. ये मंदिर और ये मूर्तियाँ इन पंडितों को ही मुबारक।”

अब युवा पीढ़ी नहीं गुदवाती टैटू :

इस संप्रदाय के अनुयायी शराब या धूम्रपान नहीं करते हैं, हर दिन राम का नाम जपते हैं, अपने शरीर पर “राम” शब्द गुदवाते हैं। इसके साथ ही राम शब्द छपा हुआ शॉल पहनते हैं और मोर पंख से बनी टोपी पहनते हैं। पूरे शरीर पर राम नाम का टैटू बनवाने वालों को “पूर्णनाक्षिक” के नाम से जाना जाता है और वे अधिकतर सत्तर के दशक के होते हैं। रामनामियों की युवा पीढ़ी अब टैटू नहीं गुदवाती है, उन्हें डर है कि टैटू के कारण उनके साथ भेदभाव किया जा सकता है और उन्हें काम से वंचित किया जा सकता है।

रामनामी जनजाति के लोगों द्वारा भजन मेला आयोजन :

रामनामी हर साल फसल के मौसम के अंत में दिसंबर-जनवरी में रायपुर जिले के सरसीवा गांव में तीन दिवसीय भजन मेले के लिए इकट्ठा होते हैं, जहां वे एक जयोस्तंभ (एक सफेद स्तंभ जिस पर राम का नाम खुदा होता है) खड़ा करते हैं और राम नाम का जप करते हैं।

‘रामनामी’ जनजाति, इन राज्यों में बसी है यह जनजाति

हालांकि, रामनामी जनजाति के लोग भारत में कहां-कहां रहते हैं, इसका कोई आधिकारिक डेटा तो नहीं है। लेकिन यह छत्तीसगढ़ में महानदी नदी के किनारे बसे हैं। इसके अलावा रामनामी जनजाति के कुछ लोग ओडिशा और महाराष्ट्र में भी हैं। रामनामी जनजाति के लोगों के पहनावे की बात करें तो ये लोग पूरी शरीर पर राम नाम लिखवाने के साथ ही राम नाम की शॉल या कपड़ा भी ओढ़े रहते हैं। इसके अलावा रामनामी जनजाति के लोग मोर पंख से बना मुकुट भी अपने सिर पर पहने हुए दिख जाते हैं।

मंदिर की बात सुन मुस्कुरा उठते हैं नृत्यगोपाल दास, होंठों पर बस.जय सियाराम-सीताराम

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥

एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥

यानी, प्रभु को सुनकर सब प्रेम मग्न हो गए। हम कौन हैं और कहां हैं? यह सुध भी भूल गए।

हाथ जोड़, टकटकी लगाए देखते रह गए। प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सके। नीचे राम दरबार, मंदिर, चौपाइयां पढ़ते संत। और उसी मंदिर के पीछे से संकरी सीढ़ियों का रास्ता। सीढ़ियां खत्म होते ही सीआरपीएफ की चौकी। हथियारों से लैस सैनिक और ऊपर छत को घेरे कंटीले तार। जैसे कोई संत की छावनी नहीं वॉर जोन हो।

सामने बड़ा सा कांच और उसके दाहिने ओर छोटी सी खिड़की। नीचे श्री गुरुदेव का चरणामृत लिखा स्टूल और उस पर लोटा में पानी। दान पेटी। और दूसरी ओर चरणपादुकाएं, उनपर ताजे फूल हैं। यहां राममंदिर आंदोलन के योद्धा, रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष और मणिरामदास छावनी के महंत नृत्यगोपाल दास रहते हैं।

बड़े से कांच के पीछे पर्दा है। उसके खुलने के पहले ही भक्त साष्टांग हो रहे हैं। पर्दा खुलता है, पीछे अस्पताल के रोटेटिंग बेड पर सिरहाना लगाए गुरुजी बैठे हैं। पास खड़ा शिष्य पैर दबा रहा है। वह प्यार से उसका सिर सहला देते हैं। 85 साल के नृत्यगोपाल दास बमुश्किल कुछ कहते हैं। भक्तों को देखकर मुस्कुरा देते हैं, या आशीर्वाद देते वक्त जयसियाराम कहते हैं। अब इस उम्र में उन्हें कुछ याद तक नहीं। उनका मन और जहन किसी बच्चे सा हो चला है। बीती बिसरी बातों से उन्हें अचानक कुछ याद आता है और वह बड़बड़ाने लगते हैं…रामलला का मंदिर बनेगा, भव्य मंदिर बनेगा। यह राममंदिर आंदोलन के सबसे मजबूत संत की बेहद भावुक कहानी है।

साये की तरह उनके साथ रहने वाले जानकी दासजी उनसे कहते हैं, यह आपसे सवाल पूछने आए हैं। फिर दुलार से समझाते हैं, आप अध्यक्ष हैं ना इसलिए…। नृत्यगोपाल दास वहां मौजूद लोगों को प्रसाद देने का इशारा करते हैं। खुद सारी उम्र सिर्फ फलाहार करते रहे हैं। सख्त नियम-कायदों वाले संत। इनदिनों सुबह कक्ष में बने मंदिर में ही पूजन होता है। व्हीलचेयर पर लिफ्ट से नीचे बड़े हनुमान जी के दर्शन को ले जाते हैं। गाहे-ब-गाहे मोबाइल फोन पर बांके बिहारी के दर्शन भी करवाते हैं। 22 तारीख को वह भी रामलला के दर्शन को जाएंगे, शायद यह बात जानते तक नहीं। पर मंदिर की बात सुनकर हर बार मुस्कुरा जरूर देते हैं। हां, दिन में कई बार बुदबुदाते हैं…जयसियाराम। सीताराम।

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