-कमलेश भारतीय

मित्रो, जालंधर, एक ऐसा शहर, जहाँ मेरा साहित्यिक जीवन शुरू हुआ। यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य में अच्छे- बुरे, खट्टे- मीठे अनुभव प्राप्त किये! यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य व साहित्यकारों के चेहरों को बड़े गौर से देखना और समझना शुरू किया।

इन चेहरों में डाॅ चंद्रशेखर भी एक हैं, जो लायलपुर खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और‌ उन्होंने पंजाब में हिंदी के लिए बहुत ज्यादा योगदान दिया – एक मिशनरी की तरह! वे मेरी मुंह बोली बहन‌ डाॅ देवेच्छा के पति थे और मेरा जालंधर में एक ठिकाना इनका घर‌ भी था, जो बस स्टैंड के दायीं‌ ओर रणजीत नगर में था। वे गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से बीए के उन छात्रों को चुनते जिनके बहुत अच्छे अंक आये हों! संयोग से एक वर्ष ऐसा आया जब विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में मैं 76‌ अंक लेकर सर्वप्रथम था, तो वे जब नवांशहर आये देवेच्छा जी के पास तो मुझे बुला कर खालसा काॅलेज में हिंदी एम ए में दाखिला लेने के लिए कहा ! इस पर मेरी बहन ने कहा कि कमलेश नहीं जा सकता जालंधर! इसकी परिस्थितियां ऐसी नहीं! इसके पिता नहीं रहे और‌ घर में बड़ा बेटा होने के कारण शहर छोड़कर नहीं जा सकता और यह मेरे पास बी एड करेगा , बाद में कोई भी डिग्री ले ले! इस तरह मैंने बीएड की लेकिन मेरा आना जाना बना रहा। ‌रणजीत नगर के आवास की सीढ़ियां तय करते मैंने मोहन सपना, सेवा सिंह, कैलाश नाथ भारद्वाज, कुलदीप अग्निहोत्री और हिमाचल के गौतम व्यथित को न केवल देखा बल्कि जाना और समझा! डाॅ चंद्रशेखर अपने छात्रों को बहुत प्यार करते थे और‌ कैलाश नाथ भारद्वाज के संपादन में ‘ रक्ताभ’ पत्रिका भी फगवाड़ा से शुरू करवाई । वे आकाशवाणी, जालंधर के निर्देशक विश्ववर्धन प्रकाश दीक्षित ‘बटुक’ के साथ अच्छे से घुले मिले थे और‌ मुझ जैसे न जाने कितने नये लेखकों को आकाशवाणी के स्टुडियो तक पहुँचाया ! वे तब आकाशवाणी के लिए खूब ‘ध्वनि नाटक’ लिखते थे, जिनमें मुझे ‘ कटा नाखून’ की याद है! उन्हें ध्वनि नाटकों पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले‌! इसी तरह डाॅ चंद्रशेखर हिंदी को लेकर बहुत भावुक होकर कहते थे कि यह हिंदी सिर्फ हिंदी नहीं है यह भारत माता के माथे की बिंदी है!

उन्होंने मुझे अपने छात्रों जैसा ही स्नेह दिया, बेशक हिंदी एम ए नहीं की बल्कि बी एड के बाद हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से पत्राचार से हिंदी एम ए कर सका! वे मुझे काॅलेज के हर कार्यक्रम में आमंत्रित करते! इस तरह मैं उनके छात्रों के करीब आता गया ! वे एक आदर्श प्राध्यापक थे, जो अपने प्रिय शिष्यों को सिर्फ हिंदी ही नहीं पढ़ाते थे बल्कि उनकी ज़िंदगी भी संवारते थे और रचनायें भी! ‌डाॅ चंद्रशेखर ने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी और उनसे राष्ट्रपति भवन में पंजाब के लेखकों को सम्मानित भी करवाया!

आज डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज पंजाब हिंदी साहित्य अकादमी को चला रहे हैं और‌ डाॅ चंद्रशेखर की स्मृति में सम्मान प्रदान करते हैं, जो सम्मान मुझे भी एक वर्ष यह प्रदान किया गया ! डाॅ सेवा सिंह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिंदी विभाग में रहे और आजकल कपूरथला में रहते हैं। इसी प्रकार डाॅ कुलदीप अग्निहोत्री आजकल‌ हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं। वे अच्छे विचारक भी हैं। वे पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के उपाध्यक्ष ह नहीं बल्कि धर्मशाला (हिमाचल) के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।

यही नहीं डाॅ गौतम व्यथित हिमाचल से ‘बागेश्वरी’ पत्रिका निकाल रहे हैं जिसमें वे मुझसे भी बहुत प्यार से रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। इसी प्रकार इनके प्रिय शिष्यों में से एक मोहन सपरा जो नकोदर के डी ए वी काॅलेज में हिंदी विभाग के वर्षों अध्यक्ष रहे और‌ नकोदर से ही, ‘फिर’ नाम से हिंदी पत्रिका निकालते रहे और पिछले कई वर्षों से वे जालंधर में बसे हुए हैं। ‘फिर’ का स़पादन बहुत अच्छा होने के बावजूद कभी मोहन सपरा इसे नियमित प्रकाशित नहीं कर पाये ! उन्होनें’ आस्था प्रकाशन भी शुरू किया पर प्रकाशित कृतियों को बेचने के पैंतरे नहीं जानते या अपनाते! जिससे वे प्रकाशन तो करते हैं लेकिन विक्रय नहीं कर पाते। उनकी प्रकाशन की समझ बहुत बढ़िया है। उन्होंने मेरी इंटरव्यूज की पुस्तक ‘ यादों की धरोहर’ के दो संस्करण प्रकाशित किये! उन्हें यह मलाल है कि शानदार लंबी कवितायें लिखने के बावजूद उनका लंबी कविता में कोई खास जिक्र नहीं!
चलिए, इस बात को छोड़कर उनके कवि पक्ष की बात करते हैं। उनकी पहली काव्य कृति थी ‘कीड़े’ और फिर हाल ही के वर्षों में प्रेम के रंग भी खूब चर्चित रही। अनेक काव्य संकलन और पंजाब शिरोमणि साहित्यकार होने के साथ साथ वे हरियाणा साहित्य अकादमी से भी सम्मानित हो चुके हैं! हरियाणा के वरिष्ठ आईएएस रमेंद्र जाखू को साहित्यिक क्षेत्र में लाने में बड़ा सहयोग दिया!

आज लगता है कि डाॅ चंद्रशेखर स्कूल के सभी छात्रों को मैंने याद करने की छोटी सी कोशिश भर की है! हां, आज आंखें भीग गयीं डाॅ चंद्रशेखर को याद करते क्योंकि वे सन्‌1989 में 29 अगस्त को दिल्ली से अपनी कार‌ ड्राइव करते लौट रहे थे कि करनाल के निकट हरियाणा रोडवेज की बस से सीधी टक्कर में वे हमसे बिछड़ गये!

अब आज आगे लिख पाना बहुत मुश्किल लग रहा है और डाॅ चंद्रशेखर को याद करते इतना ही कहूँगा :
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में
ज़िंदगी की शाम हो जाये! 9416047075

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