अशोक कुमार कौशिक 

राम मंदिर का राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन सही मायने में 1983 से शुरू हुआ था। इस आंदोलन में ऐसे बहुत सारे लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। आज के इस लेख में हम राम मंदिर आंदोलन के ऐसे ही गुमनाम नायकों के बारे में बात करेंगे जिनके बारे में आपको बहुत कम पता है। 

मोरेश्वर नीलकंठ पिंगले

मोरेश्वर नीलकंठ पिंगले को मोरोपंत पिंगले के नाम से जाना जाता है। नागपुर के मॉरिस कॉलेज से स्नातक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। पिंगले एक ‘अदृश्य’ रणनीतिकार थे, जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन में कई तरह की यात्राएं और देशव्यापी अभियान चलाने का काम किया। इनके प्रयासों के तहत पूरे देश से 3 लाख से ज्यादा ईंटें अयोध्या भेजी गईं, उनकी रणनीति तैयार करने में पिंगले की अहम भूमिका थी. वह 1983 में ‘एकात्मता यात्रा’ के रणनीतिकार भी थे, जिसके बाद 1984 में राम-जानकी रथ यात्रा हुई. पिंगले ने 1975-77 के दौरान आपातकाल विरोधी आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी। 1946 से 1967 तक उन्होंने महाराष्ट्र में संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया। पिंगले ने हमेशा पर्दे के पीछे काम करना पसंद किया और 1980 के दशक में मंदिर आंदोलन के निर्माण के लिए वह एक प्रमुख रणनीतिकार थे।

कोठारी बंधु

राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी सगे भाई थे, जो कोलकाता के रहने वाले थे। अक्टूबर 1990 में कार सेवा के लिए कोलकाता से अयोध्या आए थे. वो 1980 के दशक में स्थापित संघ प्रेरित संगठन बजरंग दल से जुड़े थे। उन्होंने 30 अक्टूबर 1990 को कार सेवकों के पहले बैच के सदस्यों के रूप में अयोध्या में कार सेवा में भाग लिया। दो दिन बाद, 2 नवंबर को, जब वे कार सेवा कर रहे थे, तो पुलिस ने उन दोनों को बहुत करीब से गोली मार दी। इसमें दोनों भाइयों की मौत हो गई। तब राम 23 साल के थे और शरद सिर्फ 20 साल के थे। कोठारी बंधुओं की हत्या से देश भर के हिंदुओं में आक्रोश फैल गया और उन्हें राम जन्मभूमि आंदोलन के बलिदानी नायकों के रूप में माना गया।

देवरहा बाबा

देवरहा बाबा एक बेहद आध्यात्मिक सन्यासी थे जो जिनके पास देश- के बड़े- बड़े नेता और हस्तियां आती थीं। हालांकि देवरहा बाबा के जन्मस्थान और जन्म तिथि के बारे में जानकारी आज भी एक रहस्य है। वह उत्तर प्रदेश में देवरिया के पास सरयू नदी के तट पर विराजमान रहते थे। उनके अनुयायियों में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता शामिल थे। उन्होंने जनवरी 1984 में प्रयागराज के कुंभ में ‘धर्म संसद’ की अध्यक्षता की। 9 नवंबर 1989 को अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला रखने के लिए सभी संप्रदायों से ऊपर उठकर हिंदू धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया था। ऐसा कहा जाता है कि जब राजीव गांधी शिलान्यास के संबंध में उनसे सलाह और आशीर्वाद लेने गए, तो देवरहा बाबा ने उनसे कहा, “बच्चा, हो जाने दो।”

बैरागी अभिराम दास

बिहार के दरभंगा में जन्मे बैरागी अभिराम दास रामानंदी संप्रदाय के एक तपस्वी थे और उनका नाम 22-23 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि को भगवान राम के जन्मस्थान पर बने विवादित ढांचे में भगवान राम की मूर्ति उभरने के बाद सामने आया। उस समय प्रशासन की तरफ से दर्ज की गई एफआईआर में उन्हें मुख्य आरोपी बनाया गया था। उन्हें अयोध्या में ‘योद्धा साधु’ के नाम से जाना जाता था। हिंदू महासभा के सदस्य, दास मजबूत कद काठी के थे और कुश्ती की कला में पारंगत थे।

महंत अवैद्यनाथ

राम मंदिर आंदोलन से नाथ संप्रदाय का पुराना रिश्ता रहा है। गोरक्ष पीठ की तीन पीढियों इस आंदोलन के प्रमुख भूमिका के केंद्र में रही है। 

महंत अवैद्यनाथ राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए 1980 के दशक के मध्य में स्थापित राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के पहले अध्यक्ष थे। वह एक और प्रमुख संगठन – राम जन्मभूमि न्यास समिति के भी अध्यक्ष थे, जिसने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।1969 में वह गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर बने। वह हिंदू महासभा के सदस्य भी थे। वह पांच बार विधायक रहे और चार बार गोरखपुर से लोकसभा सांसद रहे। उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में भी आरोपी बनाया गया था। गोरक्ष पीठाधीश्वर रहे ब्रह्मलीन महान अवैद्यनाथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरु थे। इस आंदोलन से जुड़ने वाले सीएम योगी तीसरे शख्स है। इससे पहले ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ और अवैद्यनाथ ने राम मंदिर आंदोलन को देशव्यापी विस्तार दिया।

महंत रामचंद्र परमहंस दास

महंत रामचंद्र परमहंस दास राम मंदिर आंदोलन के सूत्रधार रहे। उन्होंने 1949 से रामलला के मंदिर के लिए कई बार आंदोलन किए। आपने रामजन्मभूमि आंदोलन को एक नया कलेवर दिया, जिसे अमलीजामा पहनाने वाले प्रमुख लोगों में परमहंस रामचंद्र दास भी हैं। परमहंस जी आखिरी सांस तक इस आंदोलन का नेतृत्व करते रहे। निधन के वक्त तक रामचंद्र दास दिगंबर अखाड़ा के महंत के साथ-साथ राम जन्मभूमि न्यास के भी अध्यक्ष पद पर विराजमान थे।

श्रीश चंद्र दीक्षित

दीक्षित 1980 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के अग्रणी नेता थे. वह 1982 से 1984 तक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे। अपने रिटायरमेंट के बाद, वह विश्व हिंदू परिषद में इसके उपाध्यक्ष के रूप में शामिल हुए। उन्होंने अयोध्या में कार सेवकों के आंदोलन की रणनीति बनाने और विश्व हिंदू परिषद की तरफ से चलाए जा रहे अलग-अलग जमीनी अभियानों के लिए रणनीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1990 में अयोध्या में कारसेवा के दौरान राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वह 1991 में भाजपा के टिकट पर वाराणसी निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य के रूप में चुने गए।

विष्णु हरि डालमिया

विष्णु हरि डालमिया एक प्रसिद्ध उद्योगपति परिवार के वंशज हैं। डालमिया 1992 से 2005 तक विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष थे।

डालमिया राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे। 1985 में जब श्री राम जन्मभूमि न्यास की स्थापना हुई, तो उन्हें इसका कोषाध्यक्ष बनाया गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

दाऊदयाल खन्ना

राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महासचिव के रूप में दाऊ दयाल खन्ना ने आंदोलन की जमीन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह अपने शुरुआती वर्षों में कांग्रेस नेता थे और 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री का पद संभाला। यह वही व्यक्ति थे, जिन्होंने 1983 में एक सार्वजनिक सभा में अयोध्या, मथुरा और काशी (वाराणसी) में मंदिरों के पुनर्निर्माण का मुद्दा उठाया था।‌ उनकी पहल राम जन्मभूमि आंदोलन को फिर से शुरू करने

में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुई। सितंबर 1984 में, उन्होंने बिहार के सीतामढ़ी से इस आंदोलन की पहली ‘यात्राओं’ में से एक का नेतृत्व किया।

स्वामी वामदेव

मृदुभाषी तपस्वी स्वामी वामदेव गौरक्षा के लिए से प्रतिबद्ध थे। स्वामी वामदेव ने 1984 में जयपुर में एक अखिल भारतीय स्तर की बैठक के माध्यम से अलग-अलग हिंदू पंथों और आध्यात्मिक गुरुओं को एक मंच पर लाने का काम किया। आंदोलन की भावी रूपरेखा तैयार करने के लिए 400 से ज्यादा हिंदू धार्मिक नेताओं ने 15 दिनों तक मंथन किया। स्वामी वामदेव ने 1990 में अयोध्या में कार सेवकों का आगे बढ़कर नेतृत्व किया, जब मुलायम सिंह यादव की सरकार के आदेश पर पुलिस गोलीबारी में कई कारसेवक मारे गए थे। वृद्ध होने के वाबजूद वह 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय अयोध्या में मौजूद रहे।

अशोक सिंघल 

अशोक सिंघल. एक ऐसे राम साधक, संन्यासी, योद्धा, शिल्पकार, हिंदुत्व के प्रखर वक्ता, जिनकी साधना-जिनकी तपस्या, जिनकी दूरदृष्टि अयोध्या के राम मंदिर के पत्थरों में आकार ले चुकी है, वो सही मायने में अयोध्या के राम मंदिर के नींव की पत्थर हैं।

क्या किसी ने कल्पना की थी कि 16 शताब्दी में बाबर निर्मित बाबरी ढांचे को ज़मींदोज़ कर भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जा सकता है, लेकिन अशोक सिंघल के बेमिसाल संगठन क्षमता, लगातार प्रयास, मिशन को पूरा करने के संकल्प और असंभव को संभव कर दिखाने के जज्बे ने ये कमाल कर दिया।

27 सितंबर 1926 को उत्तर प्रदेश के आगरा में एक संभ्रांत परिवार में अशोक सिंघल का जन्म हुआ। बीएचयू ने उन्होंने मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली, वो संगीत में भी सिद्धहस्त थे। लेकिन संगीत साधक अशोक सिंघल ने इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद नौकरी नहीं की बल्कि धर्म और समाज की इंजीनियरिंग करने निकल पड़े। उन्होंने हिंदुत्व का सिरा पकड़ा और संघ का दामन थामा। शुरुआती दिनों में उनका पड़ाव गोरखपुर का गोरक्ष पीठ भी था। इस तरह 1970 के दशक तक अशोक सिंघल गौ, गंगा, गीता और गायत्री के उत्थान के लिए समर्पित थे, लेकिन 1980 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें विश्व हिंदू परिषद में भेजा और कुछ ही बरसों पर बाद उन्होंने राम मंदिर मुद्दे में चिंगारी नज़र आने लगी।

राम मंदिर आंदोलन से अशोक सिंघल कैसे जुड़े

अशोक सिंघल की अगुवाई में राम मंदिर आंदोलन की बुनियाद कैसे पड़ी, इसकी एक दिलचस्प कहानी अयोध्या से करीब 2500 किलोमीटर दूर शुरू होती है। 19 फरवरी 1981 को तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम् में 180 दलित परिवारों ने धर्मांतरण कर इस्लाम कबूल कर लिया। इस खबर से दिल्ली तक सियासत गर्म हो गई। इस घटना का सीधे तौर पर अयोध्या के राम मंदिर विवाद से दूर-दूर तक संबंध नहीं था, लेकिन मीनाक्षीपुरम में दलितों के इस्लाम कबूल करने की यही घटना विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन की बुनियाद बनी, जिसके सूत्रधार बने अशोक सिंघल, जो तब संघ के प्रचारक के रूप में दिल्ली प्रांत का काम संभाल रहे थे।

मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण की बड़ी घटना के बाद संघ की एक बड़ी बैठक प्रांत प्रचारक या उससे ऊपर के सभी पदाधिकारी बैंगलोर में गठित और वहां सबकी चिंता थी कि हिन्दू समाज का इस तरह से विखंडन या अपहरण जो हो रहा है धर्मांतरण के जरिए उसे कैसे रोका जाए। उसमें लोगों से सुझाव मांगे गए। उसमें सब से बढ़ चढ़कर के और ऊंची आवाज में जो व्यक्ति बोल रहा था, जिससे लग रहा था कि सबसे ज्यादा अगर कोई इस घटना से मर्माहत है तो वह अशोक सिंघल है।

मीनाक्षीपुरम की घटना के दो साल बाद विश्व हिंदू परिषद ने काठमांडू से रामेश्वरम, गंगा सागर से सोमनाथ मंदिर और हरिद्वार से कन्याकुमारी तक यात्राएं निकालीं, जिनका नाम था एकात्मता यात्रा। विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार के अनुसार, सारे भारत में इस यात्रा का जैसा स्वागत हुआ। नागपुर में जैसा ये पहुंची तो हिंदुत्व का भाव जागरण और देश भक्ति का भाव जागरण इन दोनों में वो यात्राएं सफल रहीं । राम जन्मभूमि के आंदोलन की भूमिका भी इसमें से बनी।

एकात्मता यात्रा से बदला हिंदुत्व का माहौल

विश्व हिन्दू परिषद की प्राथमिकता में तो धर्मान्तरण का सवाल सबसे ऊपर था। धर्मान्तरण से हिन्दू समाज को कैसे बचाया जाए और इसी मुद्दे के साथ-साथ जब अशोक सिंघल ने देखा कि कई ऐसे जैसे दाउदयाल गुप्त और भी कई कांग्रेस के पूर्व बड़े नेता राम मंदिर वाले सवाल को उठा रहे हैं तो इस बारे में विचार हुआ होगा और फिर कार्यक्रमों की रचना हुई जो पहला कार्यक्रम एकात्मता यात्रा का था।

एकात्मता यात्रा से देश में हिंदुत्व का माहौल बना। ऐसी स्थिति में 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद हुई और इसका संचालन अशोक सिंघल ने किया। इस धर्म संसद में पहली बार राम मंदिर का प्रस्ताव पारित हुआ। इससे आरएसएस को जोड़ा और फिर साधु-संतों को. इस तरह वो अशोक सिंघल थे, जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन का सपना देखा, उसे तराशा और फिर साकार कर दिखाया। 

अशोक सिंघल की ख़ासियत देखिए कि राम मंदिर के लिए अलग-अलग मतों और पंथों में बंटे साधु-समाज को एक मंच पर लाना आसान नहीं था, लेकिन उन्होने अपनी धर्म-साधना से इसे भी सरल बना दिया। विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया कि बहुत सारे संत विश्व हिन्दू परिषद को कुछ समझते नहीं थे। परिषद भी इतनी बड़ी नहीं थी। कुछ अशोक सिंघल को बड़ा नहीं मानते थे । अशोक सिंघल की तब उतनी ख्याति भी नहीं थी। कुछ समर्थन नहीं करते थे। कुछ लोग मानते थे कि तुम हमारा समर्थन करते हो पर उनके पास क्यों जाते हो। कई बार ऐसा हुआ कि किसी संत के पास गए और उन संतों ने उनको गाली बकना शुरू किया। बुरा भला कहना शुरू किया और गाली बकने और बुरा भला कहने का ये जो सत्र है यह 40-45 मिनट चला वो भी निश्चल भाव से भूमि की ओर देखते बैठे रहे। 

जब महात्मा जी गाली दे कर थक गए तो प्रणाम करके आ गए। थोड़े दिन बाद फिर पहुंच गए। इस सब में से सब संतों को लगा कि नहीं व्यक्ति तो अच्छा है। बात भी ठीक करता है. आंदोलन का बल भी दिख रहा था। शक्ति है विश्व हिंदू परिषद की ये भी मालूम हो रहा था। इन सब कारणों से सब संत जुड़ते गए और यह कारवां बढ़ता गया।

अशोक सिंघल फाउंडेशन के संस्थापक महेश भागचंदका के मुताबिक, अशोक सिंघल जब साधु संतों से मिलते तो केवल उनके पांव नहीं छूते चरण नहीं छूते थे, दंडवत प्रणाम करते थे। वो और दंडवत प्रणाम करके जब आप किसी के सामने बैठते थे तो गुरु के अंदर भी वो इच्छा होती थी कि मैं शिष्य को क्या दूं । तो अशोक सिंघल उनसे वहीं से मांगते कि आप लोग इतने बड़े गुरु हैं, आप लोग जागृत होइए और जागृत करिए।

फिर राम मंदिर आंदोलन का शंखनाद

श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के गठन के साथ राम मंदिर आंदोलन का शंखनाद हो गया। अशोक सिंघल को मालूम था कि आंदोलन लंबा चलेगा और लंबे आंदोलन से लोगों को जोड़े रखने के लिए लगातार कोई न कोई बड़ा आयोजन ज़रूरी था, जिसका पूरा खाका पहले से तैयार था। शुरुआत वर्ष 1984 में श्रीराम जानकी रथयात्रा से हुई।

इस तरह के कार्यक्रमों की अशोक सिंघल को जो विद्यार्थी आंदोलन से लंबा अनुभव था तो उन्हें इसका भी पता रहता था कि किन कार्यक्रमों की रचना से समाज जुड़ेगा। आंदोलन का प्रसार होगा, इसीलिए उन्होंने कुछ प्रतीक चुने और राम जानकी रथयात्रा यानी अयोध्या से जनकपुर तक की यात्रा। अभी एक प्रतीकात्मक यात्रा और इससे लोगों में जागरण का भी भाव आया, ये भी आया कि इस आंदोलन का महत्व क्या है।

अशोक सिंघल ऐसा कोई कार्यक्रम बड़ा बनाते थे कि जिससे हमें समाज को जोड़ना है। अशोक सिंघल बार-बार कहते थे कि राम जन्म भूमि का मामला सिर्फ अयोध्या पर राम मंदिर निर्माण करने का नहीं है। सिर्फ आप ही तो ये भारत के जन चेतना या भारत के सभी समाज के सभी लोगों को जोड़ने का एक ये मिशन है, आन्दोलन है या अभियान है। जब अशोक सिंघल चिंतन को रखकर कोई योजना बनाते थे तो उसी योजना में जब वो कोशिश करते थे कि चाहे जानकी रथयात्रा हो या राम ज्योति की बात हो, कैसे समाज का सभी वर्ग उससे जुड़ पाए तो कभी उन्होंने सवाल उठाया और एक रुपये राम की बात की, कभी 10 रुपये की बात कहीं। 

अशोक सिंघल ने जब यात्रा का ये पूरा प्रारूप बनाया था तो उस समय पर वो जो राम जानकी रथयात्रा है जो कि पुनौरा धाम सीतामढ़ी से चला था, जहां पर मां सीता का जो जन्मस्थल माना जाता है, वहां से जब रथ निकाले गए तो उससे उसके साथ लोगों का जुड़ाव होता गया, स्वतः ही कार्यक्रम की संरचना कुछ इस प्रकार से की थी।

बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी भी सक्रिय

रथयात्रा की सफलता के तुरंत बाद शिला पूजन के लिए विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता और साधु-संत निकल पड़े। तब तक इस आंदोलन से युवाओं और महिलाओं को जोड़ने के कार्यक्रम बनाए गए।

इसके आगे की चर्चा कल करेंगे —

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