हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार

स्तुत्य, गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। यह सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरु गोबिंद सिंह ने ही गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का गुरु घोषित किया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव सेवा और सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए बिता दिया। गुरु गोबिंद सिंह की शिक्षाएं आज भी लोगों का मार्गदर्शन कर रही हैं। सिंखों के 10 वें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र गोबिंद सिंह का अवतरण हिंदू पंचांग के अनुसार, पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को पटना के साहिब (बिहार) में  हुआ था। इस वर्ष पौष शुक्ल सप्तमी 29 दिसंबर को पड़ रही है। इस दिन सिख समुदाय के लोग भक्तिभाव और धूमधाम से गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती मनाते हैं। 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की कन्या जीतो, माता सुंदरी और माता साहिब ये तीन पत्निया थी। 26 दिसंबर 1704 में  गुरुगोबिंद सिंह के दो साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म कबूल न करने पर सरहिंद के नवाब ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था। माता गुजरी को भी किले की दीवार से गिराकर शहीद कर दिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंत की रक्षा के लिए अपने जीवनकाल में कई बार मुगलों का सामना किया था। सिखों को बाल, कड़ा, कच्छा, कृपाण और कंघा धारण करने का आदेश गुरु गोबिंद सिंह ने ही दिया था। इन्हें ‘पांच ककार’ कहा जाता है। सिख समुदाय के लोगों के लिए इन्हें धारण करना अनिवार्य होता है। बिहार के पटना साहिब गुरुद्वारे में वो सभी चीजें आज भी मौजूद हैं, जिसका इस्तेमाल गुरु गोविंद सिंह जी करते थे। यहां गुरु गोविंद की छोटी कृपाण भी मौजूद है, जिसे वो हमेशा अपने पास रखते थे। इसके अलावा, यहां गुरु गोंविद जी की खड़ाऊ और कंघा भी रखा हुआ है। यहां वो कुआं भी मौजूद है, जहां से गुरु गोविंद सिंह जी की मां पानी भरा करती थीं।

श्री गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा योद्धाओं के लिए कुछ खास नियम बनाए थे। उन्होंने तम्बाकू, शराब, हलाल मांस से परहेज और अपने कर्तव्यों को पालन करते हुए निर्दोष व बेगुनाह लोगों को बचाने की बात कही थी। खालसा पंथ की स्थापना करने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी अपने ज्ञान और सैन्य ताकत की वजह से काफी प्रसिद्ध थे। ऐसा कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह को संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएं भी आती थीं। धनुष-बाण, तलवार, भाला चलाने में उन्हें महारथ हासिल थी। श्री गुरु गोबिंद सिंह विद्वानों के संरक्षक थे। इसलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उनके दरबार में हमेशा 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति रहती थी। गुरु गोबिंद सिंह स्वयं भी एक लेखक थे, अपने जीवन काल में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी। इनमें चंडी दी वार, जाप साहिब, खालसा महिमा, अकाल उस्तत, बचित्र नाटक और जफरनामा जैसे ग्रंथ शामिल हैं।

वीभत्स, एक हत्यारे से युद्ध करते समय श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के सीने में दिल के उपर एक गहरी चोट लगने से  करीब 42 वर्ष की आयु में 18 अक्टूबर 1708 नांदेड में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अभिभूत, श्री गुरुगोविंद का यह मानना था कि ईश्‍वर ने जितने भी मनुष्‍यों को धरती पर भेजा है, उन सभी का काम समाज की बुराइयां दूर करना है और लोगों को अच्‍छे रास्‍ते पर ले जाना है। श्री गुरु गोविंद सिंह जी को यह बात बिल्‍कुल भी पसंद नहीं थी कि कोई भी उन्‍हें भगवान मानकर उनकी पूजा करें। वह खुद को सेवक मानकर समाज की भलाई के लिए काम करना चाहते थे।

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