एक ऐसे समाज में जो अत्यधिक पितृसत्तात्मक है, महिलाओं को गर्भपात तक पहुंचना मुश्किल लगता है। स्वास्थ्य सेवा के लिए अक्सर महिलाओं से अपने पति, या परिवार के सदस्यों की अनुमति लेने के लिए कहते हैं, भले ही यह कानून द्वारा आवश्यक न हो।  परिवार हो या अस्पताल हर जगह महिलाओं की अबॉर्शन के मामले में मोरल पुलिसिंग की जाती है और यही वजह है कि असुरक्षित अबॉर्शन के कारण देश में आये दिन हजारों महिलाओं की जान चली जाती है।  अक्सर, महिला की गोपनीयता और गोपनीयता की रक्षा नहीं की जाती है। यौनकर्मी, एचआईवी पॉजिटिव महिलाएं, आदिवासी महिलाएं, एकल महिलाएं और युवाओं के लिए गर्भपात तक पहुंचना और भी मुश्किल हो जाता है। और पहुंच की कमी असुरक्षित गर्भपात की ओर ले जाती है। नए कानून से शायद अब ऐसा न हो।

प्रियंका सौरभ……………. रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

प्रजनन अधिकारों पर एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने विवाहित और एकल महिलाओं के लिए गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक सुरक्षित और कानूनी गर्भपात के अधिकार को बढ़ा दिया, यह कहते हुए कि “हर महिला का अधिकार है कि वह बिना किसी हस्तक्षेप के प्रजनन विकल्प चुन सके। अब, देश में सभी महिलाएं, वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना, गर्भावस्था में 24 सप्ताह तक गर्भपात करा सकती हैं।  एकल, अविवाहित महिलाओं को भी सुरक्षित और कानूनी गर्भपात का अधिकार है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर विवाहित महिला का गर्भ उसकी इच्छा के विरुद्ध है तो इसे बलात्कार की तरह देखते हुए उसे गर्भपात की अनुमति दी जानी चाहिए। शादी के बाद यदि महिला की मर्जी के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाया जाता है तो यह भी रेप की श्रेणी आएगा। यह अधिकार उन महिलाओं के लिए राहतकारी होगा, जो अनचाहे गर्भ को जारी रखने को विवश हैं।

क्या एक महिला को गर्भपात के अधिकार से महज इसलिए वंचित रखा जा सकता है क्योंकि वह अविवाहित है। देश की सर्वोच्च अदालत का मानना है कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। एक विवाहिता को भी अपने शरीर और अपने गर्भ को लेकर फैसला लेने का उतना ही अधिकार है जितना कि एक विवाहित महिला को होता है। दरअसल इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से बिल्कुल अलग दिखा है सुप्रीम कोर्ट का फैसला।  इसी मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता से पूछा था कि आप इस तरह बच्चे को क्यों मारना चाहती है? दुनिया में गोद लेने के लिए लोगों की लंबी कतार है फिर आखिर जरूरत क्या है ऐसा करने की।

हाईकोर्ट ने ये भी कहा था कि हम याचिकाकर्ता को बच्चा पालने के लिए मजबूर नहीं कर रहे।  हम उसको वह सब सुविधाएं देंगे कि वह बच्चे को एक सुरक्षित तरीके से जन्म देने अस्पताल जाए और बिना अपनी पहचान बताएं अपने घर वापस आ जाये। आखिर कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी क्यों की? दरअसल ये मामला दिल्ली हाईकोर्ट में 25 साल की एक लड़की का है। इसमें उसने याचिका की थी कि वह 23 सप्ताह और 5 दिन की प्रेगनेंसी को खत्म करना चाहती है।

लड़की ने कोर्ट में कहा कि वह आपसी सहमति से बने संबंधों के चलते प्रेग्नेंट हुई।  लेकिन अब वह इस बच्चे को रखना नहीं चाहती क्योंकि उसके पार्टनर ने उससे शादी करने से मना कर दिया है। याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट में दलील दी कि क्योंकि युवती के साथ धोखा हुआ है और युवती बच्चे के पालन पोषण के लिए आर्थिक सामाजिक रुप से ठीक नहीं है। ऐसे में युवती द्वारा बच्चों को पैदा करना उसके लिए एक मानसिक चोट जैसा होगा इसलिए युवती को मेडिकल प्रेगनेंसी एक्ट 2003 के तहत अबॉर्शन करवाने की अनुमति दी जाए। दिल्ली हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने यह कहते हुए इस अपील को दरकिनार कर दिया क्योंकि प्रेगनेंसी आपसी संबंधों के चलते हुई है और एबॉर्शन की मांग मेडिकल प्रेगनेंसी एक्ट 2003 के तहत नहीं आती। मगर साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि हम लड़की को बच्चे को पालने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं। बच्चे को पालने के लिए आया खर्च भारत सरकार या दिल्ली सरकार वहन करेगी।  अगर ऐसा नहीं हुआ तो जज अपनी जेब से खुद पैसे भरेंगे। युवती ने एक अपील भी की थी कि अविवाहित महिलाओं के लिए मेडिकल टर्मिनेशन  एक्ट 2003 में संशोधन किया जाए।

साल 2021 में मेडिकल टर्मिनेशन बुलेट में संशोधन किया गया था और विवाहित महिलाओं के लिए अबॉर्शन समय समय बढ़ाकर 24 हफ्ते का कर दिया गया था। लेकिन यह  सभी महिलाओं के लिए नहीं किया गया था।  कुछ स्पेशल मामलों में किया गया था और इन स्पेशल केस में सहमति से बने संबंधों के फलस्वरूप हुए गर्भ को हटाने का स्थान नहीं दिया गया था।  देश में अबॉर्शन पर पहला कानून 1971 में बना था इसे एमटीपी एक्ट 1971 के नाम से जाना जाता है। इसके बाद साल 2021 में एमटीपी एक्ट 1971 में संशोधन किया गया। संशोधन के बाद कानून में यह जगह बनी कि प्रेगनेंसी के पहले 20 हफ्ते की जगह 24 हफ्ते  का गर्भपात करवाया जा सकता है। यह 4 हफ्ते का पीरियड स्पेशल केस में ही दिया गया। स्पेशल केस में रेप के द्वारा हुई प्रेगनेंसी या माइनर प्रेगनेंसी या मैरिटल स्टेटस बदलने के बाद भी प्रेग्नेंसी जैसे विधवा या तलाक के मामले में रखा गया।  लेकिन यह सब प्रावधान है एकल महिला के लिए नहीं किए गए और ना ही 26 हफ्ते की प्रेगनेंसी हटाने की बात कही गई। यहां तक की रेप पीड़िता को भी 26 हफ्ते का अबॉर्शन करवाने की अनुमति नहीं दी गई।  हाल ही में 17 साल की एक लड़की द्वारा जो रेप पीड़ित थी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई कि उसे 26 हफ्ते की प्रेगनेंसी को हटवाने की अनुमति दी जाए।  ऐसे में कोर्ट ने कहा कि वह इस लड़की को ऐसे में बच्चा पैदा करने कि नहीं कह सकते और उसे अबो्र्ट करवाने की अनुमति दी गई।

हमारे देश में महिलाओं के लिए देश के कानून है कि वह बच्चा रखना चाहती है या नहीं लेकिन स्थिति अब भी बेहद बदसूरत है। आप भी जानते हैं वजह वही पुरानी है।  भारत में अबॉर्शन को सबसे बड़ा टैबू माना जाता है। परिवार हो या अस्पताल हर जगह महिलाओं की अबॉर्शन के मामले में मोरल पुलिसिंग की जाती है और यही वजह है कि असुरक्षित अबॉर्शन के कारण देश में आये दिन हजारों महिलाओं की जान चली जाती है। भारत में, एक महिला को अपने पति, साथी या परिवार के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है यदि वह “स्वस्थ दिमाग” की वयस्क है और गर्भपात करवाना चाहती है। इसके बावजूद महिलाओं को कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। एक ऐसे समाज में जो अत्यधिक पितृसत्तात्मक है, महिलाओं को गर्भपात तक पहुंचना मुश्किल लगता है। स्वास्थ्य सेवा के लिए अक्सर महिलाओं से अपने पति, या परिवार के सदस्यों की अनुमति लेने के लिए कहते हैं, भले ही यह कानून द्वारा आवश्यक न हो। अक्सर, महिला की गोपनीयता और गोपनीयता की रक्षा नहीं की जाती है। यौनकर्मी, एचआईवी पॉजिटिव महिलाएं, आदिवासी महिलाएं, एकल महिलाएं और युवाओं के लिए गर्भपात तक पहुंचना और भी मुश्किल हो जाता है। और पहुंच की कमी असुरक्षित गर्भपात की ओर ले जाती है। नए कानून से शायद अब ऐसा न हो। 

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