भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। एक ओर तो हरियाणा सरकार, प्रशासन और भाजपाई नेता हर ओर हर घर तिरंगा अभियान में लगे हुए हैं लेकिन दूसरी ओर राजनीति का ऐसा स्वरूप नजर आ रहा है, जो शायद देश भक्ति की प्रेरणा के अनुरूप नहीं लगता।

ऐसा दिखाई देता है कि राजनीतिज्ञ अपनी स्वार्थ सिद्धि और उच्च महत्वकांक्षाओं का ध्यान अधिक रख रहे हैं। देश प्रेम, देशभक्ति, जनहितार्थ कार्य करते नजर नहीं आ रहे।

आज की ही घटना लीजिए, कांग्रेसी विधायक कुलदीप बिश्नोई ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और कल भाजपा में जाने का ऐलान कर दिया और साथ ही भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनौती दे दी कि मेरे सामने आदमपुर से चुनाव लड़कर दिखाओ  तो जानें।

दूसरी घटना टोहाना से निर्दलीय जीतकर आए उम्मीदवार सत्ता के साथ हो लिए, जबकि जनता से सत्ता के विरूद्ध प्रचार कर जीतकर आए थे। इसे हृदय परिवर्तन कहें या स्वार्थ सिद्धि?

हर घर तिरंगा अभियान का अर्थ मैं तो यह समझता हूं कि हर व्यक्ति के दिल में देश भक्ति की ज्योत जगे, हर व्यक्ति अपनी स्वाधीनता के मूल्य को जाने, हर व्यक्ति गलत निर्णयों का विरूद्ध एकजुट होकर संघर्ष करे, आजादी के युद्ध में जान न्यौछावर करने वाले रणबांकुरों को याद करे और उनसे प्रेरणा ले, जबकि यह मुहिम केवल हर घर पर तिरंगा लगाने तक ही सीमित होती नजर आ रही है। 

तिरंगा लगाने में जो व्यक्ति लगे हैं, मेरे विचार से उनको भी तिरंगे, तिरंगे से जुड़ी भावनाएं, तिरंगे का सम्मान का ज्ञान नहीं है।

तिरंगा प्रतीक है देशभक्ति का और जब मन में देश भक्ति की भावना हो और अंतर्मन से देशप्रेम जागे, तभी तिरंगा फहराने का लक्ष्य प्राप्त होता है लेकिन वर्तमान में जो चर्चाएं सुनने को मिल रही हैं, वह यह कि उस स्थान पर तिरंगा इतने का मिल रहा है और अमुक स्थान पर इतने का। अमुक व्यक्ति ने तिरंगा वितरण के लिए इतना दान दिया और अमुक ने इतना।

मुख्यमंत्री एवं कुछ विधायकों ने तिरंगे के लिए अपना एक माह का वेतन दिया, सबने क्यों नहीं? एक विचार मेरे मन में और आ रहा है कि बुद्धिजीवियों और भाषाविद् लोगों से पूछना चाहूंगा कि तिरंगा वितरण केंद्र का अर्थ तिरंगे बांटना हुआ या फिर वहां से मूल्य देकर तिरंगा खरीदना?

राष्ट्रीय ध्वज किसी पार्टी विशेष का नहीं अपितु यह प्रतीक है देश के प्रत्येक नागरिक का। विपक्षी पार्टियां जिनमें कांग्रेस, इनेलो, आप और सत्ता की सहयोगी जजपा की कोई उल्लेखनीय भूमिका दिखाई दे नहीं रही। क्या तिरंगा उनके देश का प्रतीक नहीं? क्या उन्हें आजादी के अमृत महोत्सव पर आजादी का जश्न में सहयोग नहीं देना चाहिए?

देखने में आ रहा है कि कांग्रेस में इस समय भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सम्मान देने के बाद कलह थमी नहीं अपितु बढ़ी है और नेता उसी कलह में उलझे हुए हैं। इसी प्रकार इनेलो, जजपा, आप अपने जनाधार बढ़ाने में जुटी हुई हैं। 

वास्तविक आजादी का अमृत महोत्सव तो तब हो जब सत्ता-विपक्ष के नेता मिलकर सोचें कि हर घर में रोटी, कपड़ा और रोजगार हो। कोई भी चिकित्सा के पैसे के बिना परेशान न हो। अपने बच्चों की शिक्षा के लिए मजबूर न हो।