-कमलेश भारतीय यशपाल शर्मा हिसार से मुम्बई तक ऐसे ही नहीं पहुंचा । एक जिद्द , एक जुनून का नाम है यशपाल शर्मा । मैं पिछले पच्चीस साल से हिसार रह रहा हूं और इनके बड़े भाई घनश्याम दास शर्मा से बात करके अनेक बार लिखा । अब यशपाल शर्मा ने एक्टिंग के साथ साथ निर्देशन में भी पांव रख दिया और पहली फिल्म बनाई -‘दादा लखमी’ जिसे सूचना व प्रसारण मंत्रालय की ओर से क्षेत्रीय फिल्म की केटेगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई है । इससे यशपाल बहुत गद्गद है और कह रहा है कि मेरी पांच साल की मेहनत का मीठा फल मुझे मिला है और मैंने हरियाणा की माटी का कर्ज चुकाने की कोशिश की है यह हरियाणवी फिल्म बना कर । दादा लखमी हमारे हीरो हैं , संस्कृति के ध्वजवाहक हैं । बड़े भाई घनश्याम दास ने बताया कि कितना जुनून था यशपाल में थियेटर के प्रति कि हिसार की कैनाल काॅलोनी के बच्चों को इकट्ठा कर रामलीला मंचन करता था । धार्मिक रोल करता था । हिसार के ही एनएसडी पासआउट राजीव मनचंदा की नज़र पड़ी तो इसे कुछ टिप्स दिये । हिसार के डीएन काॅलेज व गवर्नमेंट काॅलेज दोनों में पढ़ाई की और यूथ फेस्टिवल में ‘बेचारा भगवान् ‘ नाटक की भूमिका के आधार पर यशपाल को श्रेष्ठ अभिनेता का जब पुरस्कार मिला तब वह एक्टर बनने के प्रति बहुत गंभीरता से विचार करने लगा और एक साल पंजाब यूनिवर्सिटी के इंडियन थियेटर में लगाया और फिर एनएसडी में चयन हो जाने पर दिल्ली चला गया । हम चार भाई और दो बहनें हैं परिवार मे । पिता प्रेमचंद शर्मा की छोटी सी नौकरी थी और एक छोटा सा क्वार्टर । हम आठ प्राणी इसमें खुशी खुशी एक दूसरे का सहारा बने रहे । जहां तक कि खर्च के लिए यशपाल और मैंने चांदी का काम भी किया और यशपाल बहुत सुदर मंगलसूत्र व अन्य चीजें बनाता था । हम दोनों ने पैसे के लिए कभी कभी रिक्शा भी चलाई । दिल्ली के एनएसडी का खर्च खुद यशपाल ने उठाया । कभी कभी मैं दिल्ली मिलने जाता तो अपनी हैसियत के मुताबिक कुछ सहयोग दे आता । फिर वह रेपेट्री में लगा तो खर्च भी मिलने लगा । एनएसडी में ही प्रतिभा सुमन से परिचय हुआ और फिर शादी भी । प्रतिभा भी बहुत सहयोग दे रही हैं । मुम्बई गया सन् 1996 में और मैं बड़े भाई के नाते साथ गया छोड़ने । वनराय काॅलोनी में दो माह का चार हजार रुपये एडवांस देकर संघर्ष शुरू किया लोकल ट्रेन में जा जाकर । पहली कमर्शियल फिल्म मिली -अर्जुन पंडित । सन्नी द्योल के साथ । इसमें सन्नी के दोस्त के रोल में था ।पहली फिल्म जिससे यशपाल को पहचान मिली वह थी आमिर खान की लगान जिसने इसे लाखा के रोल की धूम मचा दी । फिर तो पीछे मुड़कर नहीं देखा । गंगाजल , अपहरण , सिंह इज किंग , राउडी राठौर और न जाने कितनी फिल्में और कितने रोल जो पसंद किये गये । हर तरह के रोल -काॅमेडी और विलेन के रोल भी । फिर जुनून हुआ हरियाणवी फिल्म बनाने का और एक बड़े कार्यक्रम में कहा कि अब मैं हरियाणवी फिल्म बनाऊंगा और यदि मुझे अमिताभ बच्चन को साथ भी कोई रोल मिले तो इस फिल्म के निर्माण तक नहीं करूगा । यानी पूरा समर्पण दादा लखमी के लिए । हर कुर्बानी देने को तैयार । आखिर इसकी मेहनत ने रंग दिखाया और हरियाणवी सिनेमा को जहां एक अच्छी फिल्म दी , वहीं गौरव भी दिलाया । यशपाल के स्वभाव की बात करते बड़े भाई ने कहा कि बचपन से ही घर में किसी को तकलीफ देकर राजी नहीं था यशपाल । चुपके से आधी रात दीवार बाद कर आता अपनी रिहर्सल से लौट कर और रसोई में रखा ढंका खाना चुपचाप खा कर सो जाता । बहुत कड़े संघर्ष के बाद आज हमारे परिवार ने यह खुशी पाई है । सबसे बड़ा गुण है शूरू से सबको साथ लेकर चलने का । पूरे हरियाणा के कलाकारों को फिल्म फेस्टिवल और साहित्यकारों को सृजन उत्सवों के माध्यम से जोड़ रखा है । साहित्य में भी पूरी रूचि और कविता पाठ में भी पुरस्कार जीतता रहा । छोटे भाई राजेश ने बताया कि छोटे थे तो मां जरूर डांटती कि कुछ काम धाम कर ले , इस रामलीला में क्या धरा है पर रामलीला से चल कर भाई मुम्बई तक पहुंच गये और आज पूरे हरियाणा का नाम रोशन कर दिया । भाई ने अपना बैनर और फिल्म मां को ही समर्पित की है । दुष्यंत कुमार के शब्दों में :कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकताएक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ,,,,-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी । Post navigation ‘दादा लखमी’ फिल्म को श्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दीप्ति नवल की पुस्तक …….. एक देश जिसे कहते हैं बचपन