-कमलेश भारतीय

शायरी और राजनीति का संगम बहुत पुराना है । कभी संसद में तारकेश्वरी सिन्हा के शेर गूंजा करते थे । फिर हिंदी कवियों की कविताओं के अंश भी उद्धरण के रूप में गूंजते रहे । बहुत पुराना नाता है शेर ओ शायरी और संसद ही नहीं विधानसभा में भी । आचार्य रूपचंद्र की पंक्ति भी संसद में गूंजी :

नजर को बदलो , नजारे बदल जायेंगे ।
कभी यह भी आता रहा कि
इनका बस चला तो ये गगन बेच देंगे
ये धरा बेच देंगे
सारा चमन बेच देंगे ,,

बहुत सारे शेर और बहुत सारी पंक्तियां अब याद कर रहा हूं । कभी हिसार के सांसद व युवा तुर्क कृष्णकांत भी हंस के मुक्तक गुनगुना देते थे । इस तरह संसद या विधानसभा का माहौल खुशनुमा हो जाता था । लेकिन इधर राज्यसभा चुनाव के बाद जिस तरह एक परिवार के सदस्यों ने शेर ओ शायरी की , उससे सिवाय कटुता के और कुछ नहीं फैलाया । पहली बात तो यह कि सारी फैमिली ही शेर ओ शायरी की दीवानी है ? नहीं । ऐसा नहीं । लोग बाग समयानुसार शेर भेज देते हैं और वही ट्वीट कर दिये जाते हैं बल्कि ट्वीटर हैंडल करने वाले ही शेर दाग देते हैं । शेर ओ शायरी बहुत कोमल सी भावनाओं को व्यक्त करते हैं जैसे कहा भी गया है कि गजल एक घायल हिरणी की पुकार है । अब यह तो सच है कि किसी भी कारण से घायल तो यह परिवार भी हुआ है , इसकी भावनाएं भी आहत हुई हैं और अपनी भावनाओं व अंतरात्मा की आवाज पर वोट भी दे दिया । सब तय भी हो चुका था कि क्या क्या लेना है और क्या क्या देना है ।

वोट देकर चोट करनी है और वोट देकर कुर्सी पानी है । सीधी सीधी डील हो चुकी थी । फिर काहे का फन कुचलने और समंदर की बात करना ? सब तय था और है फिर किस बात की चोट ? अपने दिल का गुबार निकाल लिया । सभी करते हैं लेकिन अशोक तंवर इससे भी आगे निकल गये । कभी हिमाचल के दो बड़े विरोधी नेताओं के खत धर्मयुग ने प्रकाशित किये थे तो पढ़कर आनंद आ गया था । कितनी मर्यादा और कितना आदर विरोध के बावजूद । वह मर्यादा और आदर अब कहां देखने को मिलता है ? सब खो गया दिनों। समय के साथ । कोई कुछ नहीं कहेगा । कोई किसी को आदर नहीं देगा । जिस पार्टी में रहना नहीं , उस पार्टी से सवाल कैसे ? जिस पार्टी को कभी अपनी माना ही नहीं तो सवाल क्यों ? यह तो हाईकमान ने देखना था कि सुर बदल रहे हैं तो क्यों नहीं बातचीत के लिए बुलाया ? क्यों नहीं पुचकारा या मनाया ? वही बात -हमसे आया न गया
तुमसे बुलाया न गया ,,,

यह दूरी इतनी बढ़ती गयी कि अब मुलाकात की कोई जरूरत भी न रही । हाईकमान को भी अपने व्यवहार पर विचार करना चाहिए । नहीं तो यही होता रहेगा -चिड़िया चुग गयी खेत ,,,,,अब तो चिड़िया फुर्र हो चुकी है । हाथ में से उड़ान भर गयी और कमल का फूल खिलने ही वाला है । क्यों नहीं मंथन करते ? अपनी नीति और रणनीति पर विचार करते ? आखिर क्यों कोई रूठ जाता है ? क्यों उसे रूठा ही रहने दिया जाता है । अब राज्यसभा के परिणाम से बाहर निकलना होगा और नयी रणनीति बनानी होगी । नये कदम उठाने होंगे । नयी सोच के साथ आगे बढ़ना होगा । रद्द वोट वाले को खोजते खोजते गुटबाजी बढ़ती जायेगी । जो बीत गयी सो बीत गयी । अब निकाय चुनाव की सोचिए । सामने वाले तो तीन इंजन की सरकार का नारा देकर रहे हैं ।
-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।

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